कहानी
चूहा और सोने का बिस्किट
अठारहवीं शताब्दी में चित्तौड़ राजवंश के कानुन के मुताबिक गड़े हुए धन या वस्तु, या कहीं किसी भी स्थान से मिला हुआ धन या वस्तु उसकी हो जाती है जिसे वह मिला है यानि व मालिक हो जाता था। बशर्ते मिलने के समय से एक दिन के भीतर कोई उस पर दावा न करें और सबुत के अपना साबित न कर दे। इस समय चित्तौड़ शहरी के अंदरूनी इलाके में एक रईस जमादार ‘‘जोरावर सिह‘‘ रहता था। वह बेहद कंजुस, निहायती बेईमान व दुसरो पर रौब झाड़ने वाला घमण्डी किस्म का इंसान था। उसके साथ उसका वफादार नौकर ‘‘गबरू पहलवान‘‘ रहता था, जो ‘‘जोरावर सिंह‘‘ के कहे को नही टाल सकता था; उसके लिए वह वसुली करता, गरीब, मजलूम लोगो को डराता-धमकाता और अपने सेठ के लिए वसुली करता था....। ‘‘जोरावर सिंह‘‘ का घर मजबुत पक्की ईंटों से बना था......, इतना मजबुत की उसकी दीवारों की मोटाई भी कोई बरगद के तने जितनी थी.....इसी घर में उसने एक शयन कक्ष....एक रसोईघर....एक गुप्त तहखाना....और एक काला अंधेर घुप्प वाला सजा देने का कमरा बना रखा था, जिसमें वह कर्ज़ नहीं चुकाने वालों को सौ कोड़े मारने की सजा देता था। उसके बाद कर्जदार को अपनी गुलामी में लगा लेता था। उसका लक्ष्य था कि एक दिन सारे शहर को गुलाम बनाकर चित्तौड़ के राजा से गद्दी हथिया लेगा और चित्तौड़ पर राज करेगा।
‘‘जोरावर सिंह‘‘ के घर के पास कुछ दुरी पर ‘‘सत्तु‘‘ का झोपड़ा था। वह एक गरीब किसान था, एक बीघा जमीन की खेती करता और खाली समय में शहर में चोकीदारी कर अपना गुजर बसर करता था। गरीब इतना की गरीबी भी उससे तंग आ गई थी. झोपड़े कच्ची खपरैल वली छत थी, तो दीवारे....हवा में उड़ जाये....एैसी.....घास-फूस और आम की लकड़ी के चौडे़ पाट बनाकर पन्नी लपेटकर उनसे दीवारों की खानापुर्ति की हुई थी। ‘‘सत्तु‘‘ के घर में उसकी पत्नी ‘‘जशोदा‘‘ और एक जवान बेटा ‘‘जगदीश‘‘ था....ये सभी लोग अपनी एक बीघा जमीन में खेती करते और खाली समय में दुसरी मजदुरी करते थे।
एक बार शहर में सुखा पड़ा और ‘‘सत्तु‘‘ के जमीन ने इस बार अनाज नही उपजा...? पहले ही गरीब...उपर से सुखा...अब तो खाने क लाले...?
‘‘जशोदा‘‘.....देख....कैसा बखत आ गया है......! हम गरीबों पर भी उपरवाले का कैसा प्यार टपकता है....? न खाना ठीक से देता है....न रहना...न धन....न दौलत.....लगता है जैसे हमको भुल ही गया इस धरती पर भेजकर.....और केवल उन अमीरो...पापियों.....जुल्मियों....को याद रखता है....भरे को और भरता है....? जब अमीरों को ही सब देना था.....तो हम गरीबो को दुनिया में पैदा ही क्यँ करता है....‘‘जोरावर‘‘ के कौड़े खाने के लिए...? (सत्तु)
ऊपरवाले के घर देर है अंधेर नहीं......छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब, काला-गोरा हर तरह का इंसान बना के भेजता है....! दुःख देता है तो सुख भी देता है...! जानते हो....वो पास के ‘‘भोलाराम नाई‘‘ के खेत में ट्यूबवेल की खुदाई के समय पानी नहीं निकला था तब वो एक अफसर नहीं आया था जाँच पड़ताल करने.... वो कह रहा था......‘सबै दिन होत न एक समाना‘.....आज नही ंतो कल आयेगा......? इसलिए तुम चिंता मत करो इस बरस सुखा पड़ा है....हम मजदुरी करके अपनी गुजर कर लेंगे....अगले बरस ईश्वर जरूर सुनेगा और फिर से हम अपने खेत का अनाज खा सकेंगे।
आज तो रोटियां थेप कर लाती हूँ, कल इंतज़ाम करेंगे कुछ...? ‘‘जशोदा‘‘
सत्तु की पत्नी और बेटे ने आज रोटी और थोड़े से बचे गुड़ से अपना पेट भर लिया...अब कल न जाने क्या होगा...? अगले दिन सुबह.....
धत्त तेरी......कहाँ से आ गया....सुन तो ‘‘जशोदा‘‘ सब तरफ सुखा है और ये चूहा कहां से आ गया...मेरे पैर में....देख ज़रा....बिस्तर की तरफ गया है...कहीं बिस्तर ही न कुतर दे....नहीं तो...खाना तो दुर ... सोने को बिस्तर भी न बचेंगे...? ‘‘जशोदा‘‘ जाकर देखती है.....चूहा दौड़कर घासफुस से बनी दीवार के सहारे भागकर गायब हो जाता है.....
चला गया...! न जाने कहाँ से आ गया....।
आज खाने के लिए घर में कुछ नहीं है न नून न तेल...न आटा..... (जशोदा)
ला....थोड़ा पानी ही ले आ...कुछ तो प्यास बुझेगी....पेट की आग.....खाने ही बुझती है...ऐसा कहते है....? हम गरीब...देखते है....पानी से बुझती है कि नहीं...? तभी ‘‘जोरावर सिंह‘‘ का नौकर ‘‘गबरू पहलवान‘‘ झोपड़े के बाहर से आवाज़ लगाता है.....सत्तुतुतु....एै सत्तु, कहा मर गया....बाहर आता है कि मैं आऊ झोपड़े में...? ‘‘सत्तु‘‘ झोपड़े से बाहर आकर.....
क्यो रे.....स्याले....वहाँ जोरावर सेठ की रातों की नींद हराम हैं और तु यहाँ चैन से अपनी प्यास बुझा रहा है...? ला....चुका कर्जा.....जो तुने लिया था जोरावर सेठ से.....। पुरे सोलह सो आने मुल....और उस पर ब्याज मिला कर बत्तीस सो आने की रकम हो गई है तेरी....? चल चुकता कर नही ंतो ले चलता हँू तुझे सेठ के उस कोड़े वाले कमरे में....फिर तु भी गुलाम....?
चुका दुंगा गगरू दादा....देखते हो ना...अबके सुखा पड़ा है......फसल नहीं हुई...कोई मजदुरी भी नहीं है.....अगली फसल में जरूर चुका दुंगा...इतनी मोहलत दे दो....मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ...?
चल हट्ट........कर्जा चुकाने के बहाने......तेरी फसल और खेत देखकर ही तो तुझे कर्जा दिया था सेठ ने...! तेरे जैसे लोग कर्जा नहीं चुकाऐंगे तो सेठ कंगाल हो जायेगा....? कर्जा तो मैं लेकर जाऊंगा...? आज के आज ही..? अब तो....?
मुझे मजबुर न कर....जबरदस्ती करने पर....अब तेरी जमीन को सेठ के नाम कर दे....उसके बाद भी तु कर्जदार ही रहेगा....क्योंकि सेठ कर्जा माफ करने वाला तो हैं नहीं.....खेत सेठ के नाम कर दे...नहीं तो चल कोडे़े खाने....और सेठ की गुलामी करने....?
सेठ इस समय वैसे भी बहुत परेशान है...जाने कहाँ से इतने चूहे आ गये...की दीवारे कुतर दी है....सेठ चूहो को पकड़-पकड़ कर मार रहा है.....बहुत है गुस्से में है...इसीलिए तुझ चूहे को लाने भेजा है....या तो कर्जा दे या चल साथ...?
गबरू दादा बिस्वास तो करो....इस बार की और मोहलत दे दो....अगली फसल में सारा कर्जा चुकता कर देंगे।
नहीं, आज माने आज....कर्जा तो चुकाना होगा....नहीं तो ला आज तेरी जमीन की पावती लिये जाता हूँ, जोरावर सेठ भी खुश हो जायेगा...? और सुन...साथ में तेरे बेटे ‘‘जगदीश‘‘ को भी लिए जाता हूँ...तेरी जमीन से कर्जा पुरा नहीं होता...।
गबरू बात कर ही रहा होता है कि उसके पैर में कुछ हलचल होती है....और वह जोर से पैर झटकता है....धत्त...स्याला...चूहा.....पैर काट रहा है...लगता है तुने ही पाले हैं ये चूहे....?
अब समय खोटी मत कर...ला तेरे खेत की पावती लेकर आ...और चल बे ‘‘जगदीश‘‘ अब ‘‘जोरावर सेठ‘‘ का गुलाम है....मैं कहे दुंगा सेठ से....बाकी कर्जा तेरा बाप चुकाकर तुझे छुड़ा ले जायेगा...।
गबरू, सत्तु के खेत की पावती और उसके बेटे जगदीश को लेकर चला जाता है। इधर सत्तु और उसकी पत्नी विरोध नहीं कर पाते है...गबरू पहलवान जो ठहरा...? और ऊपर से जोरावर सिंह का भय...कितना हरामी है....ज़रा भी दया नहीं करता...उसका बस न चले...नहीं तो इंसान की बोटी नोच कर खा ले...कहाँ लेकर जायेगा इतना धन...गरीब को मारकर....?
दोनो झोपड़ी में पास बैठे माथे पर हाथ रखकर इस विपदा से निजात कैसे मिले....सोच ही रहे थे कि तभी एक चूहा कहीं से सामने से भागता दिखाई देता है....और जाकर पास पड़े पुराने बिस्तर के नीचे छिप जाता है....‘‘सत्तु‘‘ पहले ही गुस्से में हैं और उसे कुछ सुझ नहीं रहा....वह चूहे को देखकर आग बबूला हो जाता है....।
आज इस चूहे को नहीं छोड़ूंगा....तुफान मचा रखा है......पहले तो एक ही था...अब न जाने कहाँ से आ गये इतने....रूक तू...आज तेरी खैर नहीें....यहाँ जिना हराम हुआ जा रहा है....सुखे से लोग मरे जा रहे हैं और तु यहाँ-वहाँ फुदक रहा है...रूक तैरी खैर नही....!
‘‘सत्तु‘‘ उठकर चूहे के पिछे दौड़ता है....रूक....रूक...! और बिस्तर पलट कर देखता है....वहाँ कोई चूहा नहीं है...लेकिन ये क्या....‘‘सत्तु‘‘ अचानक चौक जाता है.....वह समझ नहीं पाता.....बिस्तर में सोने का कुतरा हुआ छोटे बिस्किट जैसा टुकड़ा कहाँ से आया...? वह तुरंत चिल्लाता है....जसोदाआ....जसोदाआ...देख ये क्या है....ये कहाँ से आया...शायद सोने का है...देख तो...ज़रा......जसोदा विश्वास नहीं कर पाती है....हाय राम.....यह तो सोने का है....कहाँ से आया....शायद चूहे कहीं से ले आये हैं इसे...!
जसोदा गरीब जरूर थी, लेकिन उसे सोने और लोहे का फर्क मालूम था....वह कह उठती है....हाँ यह तो सोने का है.....तुरंभ ऊपर की तरफ देखकर भगवान को हाथ जोड़ते हुए कहती है....सच है...उपर वाला कठिन परीक्षा लेता है....लेकिन हाय रे किस्मत.....दिया भी तो यह एक टूकड़ा.....कर्ज तो दुर....इससे जोरावर का ब्याज भी चुकता नहीं होगा....और हमारी भुख फिर भी भुखी की भुखी..?
तभी सत्तु कुछ और आगे बढ़ता है....बिस्तर को पुरी तरह से हटाता है तो देखता है कि चूहों ने झोपडी के कोने में बिल बना दिया है...और मिट्टी बाहर निकली पड़ी है....! वह मिट्टी हटाता है....उस गड्ढे से और मिट्टी निकालता है, उसे पुरा खोल देता है....सत्तु की आँखें इस बार चार गुना ज्यादा चौड़ी हो जाती है...गड्ढे में एैसे कई सोने के बिस्किट दिखाई देते है....उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता....यह दृश्य देखकर जसोदा की आँखों से आंसू निकलने लगते है....!
अब हम भर पेट खाना भी खायेंगे और कर्जा भी चुका देंगे...इससे हमारी गरीबी भी दुर हो जायेगी....जाओं तुम ये लेकर जोरावर के पास और उसके मुहं पर मारों चुकता कर दो कर्जा सारा और अपने ‘‘जगदीश‘‘ को ले आओ...बेचारा वो भी सुबह से भुखा है...।
‘‘सत्तु‘‘ सोने के बिस्किट लेकर ‘‘जोरावर सिंह‘‘ के घर जाता है....तो वहाँ क्या देखता है..? ‘‘जोरावर सिंह‘‘ के घर की दीवार की मिट्टी चूहांे ने कुतर दी है और बड़ा से गड्ढा बन गया है....‘‘जोरावर सिंह‘‘ विलाप करने के साथ-साथ अपने गुलाम ‘‘गबरू पहलवान‘‘ की कोड़ो से पिटाई कर रहा है...वहीं ‘‘सत्तु‘‘ का बेटा ‘‘जगदीश‘‘ पास खड़ा यह सब देख रहा है।
कहानी- चूहा और सोने का बिस्किट
लेखक - डॉ. मोहन बैरागी