Dr.Mohan Bairagi

Monday, May 24, 2021

कहानी - चूहा और सोने का बिस्किट

 


कहानी 

 चूहा और सोने का बिस्किट

अठारहवीं शताब्दी में चित्तौड़ राजवंश के कानुन के मुताबिक गड़े हुए धन या वस्तु, या कहीं किसी भी स्थान से मिला हुआ धन या वस्तु उसकी हो जाती है जिसे वह मिला है यानि व मालिक हो जाता था। बशर्ते मिलने के समय से एक दिन के भीतर कोई उस पर दावा न करें और सबुत के अपना साबित न कर दे। इस समय चित्तौड़ शहरी के अंदरूनी इलाके में एक रईस जमादार ‘‘जोरावर सिह‘‘ रहता था। वह बेहद कंजुस, निहायती बेईमान व दुसरो पर रौब झाड़ने वाला घमण्डी किस्म का इंसान था। उसके साथ उसका वफादार नौकर ‘‘गबरू पहलवान‘‘ रहता था, जो ‘‘जोरावर सिंह‘‘ के कहे को नही टाल सकता था; उसके लिए वह वसुली करता, गरीब, मजलूम लोगो को डराता-धमकाता और अपने सेठ के लिए वसुली करता था....। ‘‘जोरावर सिंह‘‘ का घर मजबुत पक्की ईंटों से बना था......, इतना मजबुत की उसकी दीवारों की मोटाई भी कोई बरगद के तने जितनी थी.....इसी घर में उसने एक शयन कक्ष....एक रसोईघर....एक गुप्त तहखाना....और एक काला अंधेर घुप्प वाला सजा देने का कमरा बना रखा था, जिसमें वह कर्ज़ नहीं चुकाने वालों को सौ कोड़े मारने की सजा देता था। उसके बाद कर्जदार को अपनी गुलामी में लगा लेता था। उसका लक्ष्य था कि एक दिन सारे शहर को गुलाम बनाकर चित्तौड़ के राजा से गद्दी हथिया लेगा और चित्तौड़ पर राज करेगा।

‘‘जोरावर सिंह‘‘ के घर के पास कुछ दुरी पर ‘‘सत्तु‘‘ का झोपड़ा था। वह एक गरीब किसान था, एक बीघा जमीन की खेती करता और खाली समय में शहर में चोकीदारी कर अपना गुजर बसर करता था। गरीब इतना की गरीबी भी उससे तंग आ गई थी. झोपड़े कच्ची खपरैल वली छत थी, तो दीवारे....हवा में उड़ जाये....एैसी.....घास-फूस और आम की लकड़ी के चौडे़ पाट बनाकर पन्नी लपेटकर उनसे दीवारों की खानापुर्ति की हुई थी। ‘‘सत्तु‘‘ के घर में उसकी पत्नी ‘‘जशोदा‘‘ और एक जवान बेटा ‘‘जगदीश‘‘ था....ये सभी लोग अपनी एक बीघा जमीन में खेती करते और खाली समय में दुसरी मजदुरी करते थे। 

एक बार शहर में सुखा पड़ा और ‘‘सत्तु‘‘ के जमीन ने इस बार अनाज नही उपजा...? पहले ही गरीब...उपर से सुखा...अब तो खाने क लाले...? 

‘‘जशोदा‘‘.....देख....कैसा बखत आ गया है......! हम गरीबों पर भी उपरवाले का कैसा प्यार टपकता है....? न खाना ठीक से देता है....न रहना...न धन....न दौलत.....लगता है जैसे हमको भुल ही गया इस धरती पर भेजकर.....और केवल उन अमीरो...पापियों.....जुल्मियों....को याद रखता है....भरे को और भरता है....? जब अमीरों को ही सब देना था.....तो हम गरीबो को दुनिया में पैदा ही क्यँ करता है....‘‘जोरावर‘‘ के कौड़े खाने के लिए...? (सत्तु) 

ऊपरवाले के घर देर है अंधेर नहीं......छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब, काला-गोरा हर तरह का इंसान बना के भेजता है....! दुःख देता है तो सुख भी देता है...! जानते हो....वो पास के ‘‘भोलाराम नाई‘‘ के खेत में ट्यूबवेल की खुदाई के समय पानी नहीं निकला था तब वो एक अफसर नहीं आया था जाँच पड़ताल करने.... वो कह रहा था......‘सबै दिन होत न एक समाना‘.....आज नही ंतो कल आयेगा......? इसलिए तुम चिंता मत करो इस बरस सुखा पड़ा है....हम मजदुरी करके अपनी गुजर कर लेंगे....अगले बरस ईश्वर जरूर सुनेगा और फिर से हम अपने खेत का अनाज खा सकेंगे। 

आज तो रोटियां थेप कर लाती हूँ, कल इंतज़ाम करेंगे कुछ...? ‘‘जशोदा‘‘

सत्तु की पत्नी और बेटे ने आज रोटी और थोड़े से बचे गुड़ से अपना पेट भर लिया...अब कल न जाने क्या होगा...? अगले दिन सुबह.....

धत्त तेरी......कहाँ से आ गया....सुन तो ‘‘जशोदा‘‘ सब तरफ सुखा है और ये चूहा कहां से आ गया...मेरे पैर में....देख ज़रा....बिस्तर की तरफ गया है...कहीं बिस्तर ही न कुतर दे....नहीं तो...खाना तो दुर ... सोने को बिस्तर भी न बचेंगे...? ‘‘जशोदा‘‘ जाकर देखती है.....चूहा दौड़कर घासफुस से बनी दीवार के सहारे भागकर गायब हो जाता है.....

चला गया...! न जाने कहाँ से आ गया....।

आज खाने के लिए घर में कुछ नहीं है न नून न तेल...न आटा..... (जशोदा)

ला....थोड़ा पानी ही ले आ...कुछ तो प्यास बुझेगी....पेट की आग.....खाने ही बुझती है...ऐसा कहते है....? हम गरीब...देखते है....पानी से बुझती है कि नहीं...? तभी ‘‘जोरावर सिंह‘‘ का नौकर ‘‘गबरू पहलवान‘‘ झोपड़े के बाहर से आवाज़ लगाता है.....सत्तुतुतु....एै सत्तु, कहा मर गया....बाहर आता है कि मैं आऊ झोपड़े में...? ‘‘सत्तु‘‘ झोपड़े से बाहर आकर.....

क्यो रे.....स्याले....वहाँ जोरावर सेठ की रातों की नींद हराम हैं और तु यहाँ चैन से अपनी प्यास बुझा रहा है...? ला....चुका कर्जा.....जो तुने लिया था जोरावर सेठ से.....। पुरे सोलह सो आने मुल....और उस पर ब्याज मिला कर बत्तीस सो आने की रकम हो गई है तेरी....? चल चुकता कर नही ंतो ले चलता हँू तुझे सेठ के उस कोड़े वाले कमरे में....फिर तु भी गुलाम....?

चुका दुंगा गगरू दादा....देखते हो ना...अबके सुखा पड़ा है......फसल नहीं हुई...कोई मजदुरी भी नहीं है.....अगली फसल में जरूर चुका दुंगा...इतनी मोहलत दे दो....मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ...?

चल हट्ट........कर्जा चुकाने के बहाने......तेरी फसल और खेत देखकर ही तो तुझे कर्जा दिया था सेठ ने...! तेरे जैसे लोग कर्जा नहीं चुकाऐंगे तो सेठ कंगाल हो जायेगा....? कर्जा तो मैं लेकर जाऊंगा...? आज के आज ही..? अब तो....? 

मुझे मजबुर न कर....जबरदस्ती करने पर....अब तेरी जमीन को सेठ के नाम कर दे....उसके बाद भी तु कर्जदार ही रहेगा....क्योंकि सेठ कर्जा माफ करने वाला तो हैं नहीं.....खेत सेठ के नाम कर दे...नहीं तो चल कोडे़े खाने....और सेठ की गुलामी करने....?

सेठ इस समय वैसे भी बहुत परेशान है...जाने कहाँ से इतने चूहे आ गये...की दीवारे कुतर दी है....सेठ चूहो को पकड़-पकड़ कर मार रहा है.....बहुत है गुस्से में है...इसीलिए तुझ चूहे को लाने भेजा है....या तो कर्जा दे या चल साथ...?

गबरू दादा बिस्वास तो करो....इस बार की और मोहलत दे दो....अगली फसल में सारा कर्जा चुकता कर देंगे। 

नहीं, आज माने आज....कर्जा तो चुकाना होगा....नहीं तो ला आज तेरी जमीन की पावती लिये जाता हूँ, जोरावर सेठ भी खुश हो जायेगा...? और सुन...साथ में तेरे बेटे ‘‘जगदीश‘‘ को भी लिए जाता हूँ...तेरी जमीन से कर्जा पुरा नहीं होता...।

गबरू बात कर ही रहा होता है कि उसके पैर में कुछ हलचल होती है....और वह जोर से पैर झटकता है....धत्त...स्याला...चूहा.....पैर काट रहा है...लगता है तुने ही पाले हैं ये चूहे....?

अब समय खोटी मत कर...ला तेरे खेत की पावती लेकर आ...और चल बे ‘‘जगदीश‘‘ अब ‘‘जोरावर सेठ‘‘ का गुलाम है....मैं कहे दुंगा सेठ से....बाकी कर्जा तेरा बाप चुकाकर तुझे छुड़ा ले जायेगा...।

गबरू, सत्तु के खेत की पावती और उसके बेटे जगदीश को लेकर चला जाता है। इधर सत्तु और उसकी पत्नी विरोध नहीं कर पाते है...गबरू पहलवान जो ठहरा...? और ऊपर से जोरावर सिंह का भय...कितना हरामी है....ज़रा भी दया नहीं करता...उसका बस न चले...नहीं तो इंसान की बोटी नोच कर खा ले...कहाँ लेकर जायेगा इतना धन...गरीब को मारकर....? 

दोनो झोपड़ी में पास बैठे माथे पर हाथ रखकर इस विपदा से निजात कैसे मिले....सोच ही रहे थे कि तभी एक चूहा कहीं से सामने से भागता दिखाई देता है....और जाकर पास पड़े पुराने बिस्तर के नीचे छिप जाता है....‘‘सत्तु‘‘ पहले ही गुस्से में हैं और उसे कुछ सुझ नहीं रहा....वह चूहे को देखकर आग बबूला हो जाता है....। 

आज इस चूहे को नहीं छोड़ूंगा....तुफान मचा रखा है......पहले तो एक ही था...अब न जाने कहाँ से आ गये इतने....रूक तू...आज तेरी खैर नहीें....यहाँ जिना हराम हुआ जा रहा है....सुखे से लोग मरे जा रहे हैं और तु यहाँ-वहाँ फुदक रहा है...रूक तैरी खैर नही....!

‘‘सत्तु‘‘ उठकर चूहे के पिछे दौड़ता है....रूक....रूक...! और बिस्तर पलट कर देखता है....वहाँ कोई चूहा नहीं है...लेकिन ये क्या....‘‘सत्तु‘‘ अचानक चौक जाता है.....वह समझ नहीं पाता.....बिस्तर में सोने का कुतरा हुआ छोटे बिस्किट जैसा टुकड़ा कहाँ से आया...? वह तुरंत चिल्लाता है....जसोदाआ....जसोदाआ...देख ये क्या है....ये कहाँ से आया...शायद सोने का है...देख तो...ज़रा......जसोदा विश्वास नहीं कर पाती है....हाय राम.....यह तो सोने का है....कहाँ से आया....शायद चूहे कहीं से ले आये हैं इसे...! 

जसोदा गरीब जरूर थी, लेकिन उसे सोने और लोहे का फर्क मालूम था....वह कह उठती है....हाँ यह तो सोने का है.....तुरंभ ऊपर की तरफ देखकर भगवान को हाथ जोड़ते हुए कहती है....सच है...उपर वाला कठिन परीक्षा लेता है....लेकिन हाय रे किस्मत.....दिया भी तो यह एक टूकड़ा.....कर्ज तो दुर....इससे जोरावर का ब्याज भी चुकता नहीं होगा....और हमारी भुख फिर भी भुखी की भुखी..?

तभी सत्तु कुछ और आगे बढ़ता है....बिस्तर को पुरी तरह से हटाता है तो देखता है कि चूहों ने झोपडी के कोने में बिल बना दिया है...और मिट्टी बाहर निकली पड़ी है....! वह मिट्टी हटाता है....उस गड्ढे से और मिट्टी निकालता है, उसे पुरा खोल देता है....सत्तु की आँखें इस बार चार गुना ज्यादा चौड़ी हो जाती है...गड्ढे में एैसे कई सोने के बिस्किट दिखाई देते है....उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता....यह दृश्य देखकर जसोदा की आँखों से आंसू निकलने लगते है....!

अब हम भर पेट खाना भी खायेंगे और कर्जा भी चुका देंगे...इससे हमारी गरीबी भी दुर हो जायेगी....जाओं तुम ये लेकर जोरावर के पास और उसके मुहं पर मारों चुकता कर दो कर्जा सारा और अपने ‘‘जगदीश‘‘ को ले आओ...बेचारा वो भी सुबह से भुखा है...।

‘‘सत्तु‘‘ सोने के बिस्किट लेकर ‘‘जोरावर सिंह‘‘ के घर जाता है....तो वहाँ क्या देखता है..? ‘‘जोरावर सिंह‘‘ के घर की दीवार की मिट्टी चूहांे ने कुतर दी है और बड़ा से गड्ढा बन गया है....‘‘जोरावर सिंह‘‘ विलाप करने के साथ-साथ अपने गुलाम ‘‘गबरू पहलवान‘‘ की कोड़ो से पिटाई कर रहा है...वहीं ‘‘सत्तु‘‘ का बेटा ‘‘जगदीश‘‘ पास खड़ा यह सब देख रहा है। 


कहानी- चूहा और सोने का बिस्किट

लेखक - डॉ. मोहन बैरागी



Monday, May 17, 2021

geet.....मैं गंगा सा निर्मल जल हूँ।

 मैं गीतों का राजकुंवर हूँ

शिलालेख हूँ इतिहासों का

याद नही में अफसानों का

व्याकरण मैं दिनमानो का

मैं भटका बादल हूँ

मैं गंगा सा निर्मल जल हूँ।


मैं मानस की चोपाई सा

नही विरुदावली गाई सा

पीर नही मैं कोलाहल की

प्रीत हूँ हर मन हलचल सी

मैं खुशबू संदल हूँ

मैं गंगा सा निर्मल जल हूँ।


सबके मन की पीड़ा को गाता

शब्दों का व्यापार मुझे न आता

मैं तुम्हारी अनकही बोली हूँ

मैं घर आंगन बनी रंगोली हूँ

मैं तारा पुच्छल हूँ

मैं गंगा सा निर्मल जल हूँ।


पगडंडी पर चलता रहा अकेला

और आगे पीछे दुनिया का मेला

पर मोल लगाया जिसने मेरा

क्या समझे दुनिया का फेरा

आंसू का छल छल हूँ

मैं गंगा सा निर्मल जल हूँ।

©डॉ. मोहन बैरागी

16/5/2021

geet......है सबका मन बैरागी

 हर चेहरा खिला हुआ है

हर एक यहाँ अनुरागी

है सबका मन बैरागी


त्याग तपस्या पत्थर हो गए

भ्रम की चादर बुनने वाले

वो जी गए मधुबन में जो थे

खिली कलिया चुनने वाले

दुनिया के हो या के त्यागी

है सबका मन बैरागी


कितना बांध रखो चंचल मन

उड़ता हर पल कोई चितवन

रोक सकता न कोई इसको

कैद जो थी चिड़िया वो भी

दुनिया के पिंजरे से भागी

है सबका मन बैरागी


प्रेम मिला है तुझको मुझको

तो ओढ़े क्यों तम झुरमुट को

जी ले इसको भीतर बाहर

शाम सुबह के रात दोपहर

तो केवल एक तू सोभागी

है सबका मन बैरागी


चाहत सबकी मानव या देव

सृष्टि का सारा सार एकमेव

राग में जिया है वो बैरागी

तभी राधा के उस प्रेम का

देखो कान्हा भी है अनुरागी

है सबका मन बैरागी

©डॉ. मोहन बैरागी

15/5/2021

Sunday, May 16, 2021

कहानी ‘‘बंट्या‘‘


तेरह साल का ‘बंट्या‘ गाँव से शहर जा रही कच्ची, अधपक्की पगडंडी पर नंगे पैर पैदल चला जा रहा है। भरी गर्मी, जेठ की तपती दोपहरी में गर्मी से जलते पैरों को कुछ बचने बचाने की कोशिश करता....? हाफ अस्तिन की फटी सी पसीने से गीली शर्ट के नीचे से बहकर पसीना नेकर को गीला कर रहा है..? लेकिन उसे इसका कोई भान नहीं....? उसके दिमाग में सिर्फ एक बात चल रही है कि उसे तीस मिनट में तीन किलोमीटर लंबा सफर तय कर शहर पँहूचना है और कहीं से भी गाँव में बीमार पिता ‘रामभुवन‘ के लिए इंजेक्शन लेकर आना है। डाॅक्टर ने तीस मिनट का समय दिया है। ‘रामभुवन‘ को गर्मी की वजह से लू लग गई और बुखार उतरने का नाम नहीं ले रहा.....गाँव के एक आरएमपी डाक्टर ने बुखार उतारने का अंतिम इलाज इंजेक्शन ही बताया है।

‘बंट्या‘ के पैर तप कर कडक हो गये और अब प्यास भी लगने लगी है....हंसने खेलने की उम्र और इस बचपन में ही उस पर ऐसी जिम्मेदारी आन पड़ी, जिसका ठीक से उसको भान भी नहीं...लेकिन सवाल पिता ‘रामभुवन‘ के बुखार का है....और ‘बंट्या‘ जानता है इसकी गंभीरता को...? अभी डेढ़ बरस पहले ही उसकी माँ का देहांत इसी तरह से बुखार के बाद हुआ था। बाहर से पसीने से तर-बतर, सुखते गले और प्यास के मारे हाँफते करते आखिर ‘बंट्या‘ शहर में दाखिल हो गया.....। पगडंडी को जोड़ती मुख्य सड़क के किनारे घने बरगद की छांव में कुछ बच्चे कंचे खेलते दिखाई देते है.....पास ही एक हेण्डपंप भी है। ‘बंट्या‘ गर्मी से कड़क हुए पैरों में दर्द की चिंता किये बगैर लंगडाते हुए भागकर हेण्डपंप के पास पँहुचता है। अपने कद से ऊंचे हेण्डपंप के हत्थे को ऊचककर नीचे लाता, फिर पुरा ज़ोर लगाकर दो-तीन बार ऊपर-नीचे चला देता....उधर हेण्डपंप पानी उगलने लगा....‘बंट्या‘ हत्था छोड़कर मार छलांग हेण्डपंप के मुंह पर दोनो हाथों की ओक बनाकर पानी पीता है.....,उसे दो-चार ओक एक साथ पानी पीकर तो जैसे कुछ जान आई सी महसुस होने लगी, कि तभी एक फुटबाल आकर ‘बंट्या‘ का लगती है....दुसरी तरफ से आवाज आई....!

ऐ...ऐ...ऐ लड़के...हमारी फुटबाल उठाकर फेंक दे इधर....?, ‘बंट्या‘ अवाक्......उसने आज से पहले इतनी बड़ी गेंद न देखी थी..? उसे तो वहीं कपडे की गुथी हुई छोटी गेंद पता थी, जिससे वह अपने दोस्तों के साथ गदामार जैसे खेल खेतना था..? दोनो हाथों से फुटबाल उठाकर कुछ पल उसे निहार ही रहा था कि फिर आवाज़ आई.....ऐएएए....ऐ...लड़के, हमारी फुटबाल इधर पास कर दो प्लिज।

‘बंट्या‘ ने दोनो हाथों से अपना पुरा ज़ोर लगाकर फुटबाल को दुसरी तरफ फेंका और एक टक निहारता रहा, कैसे ये शहरी बच्चे पैरो से इस गेंद को एक दुसरों की तरफ उछाल रहे है...? उसके लिए खेल नया नहीं लेकिन इतनी बड़ी गेंद पहली बार देखना नया था...?

फुटबाल खेल रहे बच्चों में से एक बच्चा पुछता है..? ऐ.....क्या नाम है तुम्हारा...खेलोगे फुटबाल हमारे साथ..! ‘बंट्या‘ तुरंत भागकर बच्चों में शामिल होकर पथरीली कच्ची पक्की पगडंडी पर चलकर कठोर और कड़क हो गये पैरों से फुटबाल को किक मारने की कोशीश करता है, फुटबाल तिरछी हवा में उड़कर सड़क कि और भागने लगती है। अपने पैरो की बिना चिंता किये ‘बंट्या‘ खुद भागकर फुटबाल उठाकर ले आता है, तभी पास के घरों से बच्चों के अभिभावकों की आवाज़ आने लगती है.....‘‘चलो...अब गेम ओवर करो...पढ़ाई का टाईम हो गया।‘‘ बच्चों का लीडर अपनी फुटबाल लेकर बिना कुछ कहे घर की और चल देता है....‘बंट्या‘ को भी अपनी मंज़िल को भान होता है, उसे अपने पिता ‘रामभुवन‘ का चेहरा दिखाई देने लगता, और वह शहर में आगे की तरफ बढ़ने लगता है। ‘बंट्या‘ उधेड़बुन में है कि गाँव के डाक्टर ने उसे दवा की दुकान का पता जहाँ बताया था, वह उसी दिशा में जा रहा है...या कहीं गलत रास्ते पर तो नहीं निकल आया...? वह सोच ही रहा होता है कि सामने से भीड़ की शक्ल में कुछ लोग दौड़े चले आ रहे है, सभी के हाथ में चाकु-छूरे, लाठी-डंडे है...और कुछ विशेष तरह की गालियां देते हुए सड़क के आजु-बाजू पड़े वाहनों दुकानों घरों को तोड़ते फोड़ते नुकसान करते हुए आगे बढ़ रहे है...? यह सब कुछ देख मासूम ‘बंट्या‘ सहम जाता है...? वह छुपने की जगह देखने लगता है....तभी उसकी नज़र पास के मंदिर पर पड़ती है...तुरंत वह भागकर मंदिर के भीतर प्रवेश कर जाता है। भीतर घुसते ही पीले गमछे जिस पर कुछ श्लोक अंकित है, गेरूआ धोती पहले पहने दाढ़ी वाले एक बाबा दिखाई देते है....शायद वह इस मंदिर के पुजारी है..! हांफते-हांफते वह अंदर बढ़़ता है.... तभी पुजारी जी बोल पड़ते है

‘‘अरे बेटा.....कौन हो तुम....और इतना हांफ क्यों रहे हो...? आओ, इधर मेरे पास आओ.....घबराओं नहीं....। तुम श्री हरि की शरण में हो....यहाँ सबके दुख दूर होते है....। डरो नहीं...आओ पानी पी लो...कहाँ से आये हो...कौन हो तुम...घबराओ नहीं...। ‘बंट्या‘ बाहर उन्माद मचा रही भीड़ के बारे में बताते हुए अपने पिता के लिए इंजेक्शन लेकर जाने की बात कहता है।

पुजारी ‘बंट्या‘ को पानी देकर मंदिर के दरवाजे से बाहर झांककर देखता है, और चारो तरफ के शांत माहौल को देखकर कहता है....कोई नहीं है, सब उन्मादी चले गये शायद...इनको कोई भय नहीं ऊपरवाले का....आए दिन दंगा-फसाद करते रहते है। चलो, जाओ अब तुम भी....तुमको अपने पिता के लिए इंजेक्शन लेकर जाना है। ‘बंट्या‘ पुजारी के पिछे से छुपकर झांकते हुए मंदिर के दरवाजे से बाहर देखता है...सब कुछ शांत सा प्रतित होने पर वह बाहर निकल कर आगे सड़क किनारे बढ़ने लगता है।

कुछ दुरी पर उसे दवाई की दुकान नज़र आती है...वह दुकान की तरफ बढ़ ही रहा होता है कि इस बार एक और हुजूम कुर्ता पायजामा पहने टोपी लगाये लोगों का हाथ में तलवार लहराते दिखाई देता है....इस बार ‘बंट्या की घिघ्घी बंध जाती है....वह समझ नहीं पाता कि क्या शहर ऐसा होता है, छोटे से बचपन के आगे यह सफ खौफ के मंजर पहली बार असलियत में उभर कर सामने आ रहे थे...? फिर से खुद को बचाने की जुगत में सड़क किनारे खड़ी कार के पिछे छुप जाने कि चेष्टा करने लगता है...इस बार ‘बंट्या‘ की आँखों में डर के साथ आँसू भी हैं....तभी उसे हरे रंग की दीवारो वाली लंबे मीनार नुमा एक भवन दिखाई देता है....शायद यह मस्जिद है...। बिना कुछ सोचे ‘बंट्या‘ भागकर अंदर चला जाता है...। इस बार उसे कुर्ते पजामें और सफेद टोपी में कोई मौलाना सामने दिखाई देते है....वो ‘बंट्या‘ को देखकर ताज्जुब करने लगते है...इतना छोटा बच्चा यहां रो रहा है....? बेटा क्या हुआ,,,? तुम रो क्यों रहे हो...? बताओ...घबराओ नहीं...ये अल्लाह का घर है.....। ‘बंट्या‘ मौलाना को हिचकते हुए बिना देर किये सारी कहानी बता देता है......मौलाना को भी समझते देर न लगती.....वह ‘बंटया‘ को हाथ पकड़कर खुद आगे लेकर आते है....आओ चलो...पास में दवा की दुकान है...मै तुमको इंजेक्शन दिलवा देता हूँ....। ‘बंट्या‘ को जैसे मंजिल मिल गई थी, बिना कुछ सोचे वह मौलाना के साथ दवा की दुकान से इंजेक्शन खरीद लेता है...। अब उसे वापस घर जाने की जल्दी है...समय की काफी हो गया है....डाक्टर ने उसे जल्दी आने को कहा था। वह अपनी नेकर की जेब से रूपये निकाल दवा दुकानदार को देकर तुरंत इंजेक्शन की थैली हाथ में लेेकर उल्टे पैर दौड़ने लगता है। दवा की दुकान से चंद कदम दुर गया ही था कि सायरन बजाती...ट्वीईई....ट्वीईई....ट्वीईई...पुलिस जीप सामने आकर रूक जाती है....उसमें से एक पुलिस मेडम बाहर उतरतकर फटकार लगाते हुए....एै....एै...कहाँ भाग रहा है, बीच सड़क पर....देखता नहीं ट्रेफिक कितना है....कोई गाड़ी कुचल देगी.....कहाँ रहता है तु....? अबकी घबराहट के मारे ‘बंट्या‘ की हालत खराब...., उसने एक बार अपने गाँव में एक चोर की पीटाई देखी थी....पुलिस ने बेल्ट ही बेल्ट से उसे मारा था....? ‘बंट्या‘ हाथ के इंजेक्शन की थैली को पिछे पीठ की तरफ छुपाने की कोशीश करता है, गर्मी से बेहाल, ऊपर से पुलिस का खौफ...हलक से कुछ शब्द न निकलते.....गला रेगिस्तान सरीखा सुख गया....तुभी पुलिस मेडम पास आकर उसके हाथ को आगे कर थैली देखती है, जिसमें इंजेक्शन है....और थोड़ नर्म होते हुए.....ये क्या है बेटा....कहाँ ले जा रहे हो....कोई बीमार है.....? बड़ी मुश्किल से तुतलाती, लड़खड़ाती ज़ुबान से ‘बंट्या‘ पुलिस मेडम को सारी कहानी बयां कर देता है। पुलिस मेडम को मासूम की जिम्मेदारी और स्थिति समझते देर न लगती...! वह ‘बंट्या‘ को अपनी जीप में बैठाकर गाँव जाने वाली पगडंडी पर छोड़ आती है। ‘ंबंट्या‘ को अब न गर्मी का एहसास था, न थकावट का....वह दौड़कर उस उबड़-खाबड़ पगडंडी से पुरे तीस मिनट में इंजेक्टशन लेकर अपने गाँव पँहुचता जाता है.......डाक्टर को इंजेक्शन ले जाकर देता है। डाक्टर ‘रामभुवन‘ को इंजेक्शन लगा देता है....अगले कुछ मिनट में ‘रामभुवन‘ का बुखार उतरने लगता है।


कहानी- ‘‘बंट्या‘‘

लेखक - डाॅ. मोहन बैरागी

Saturday, May 15, 2021

कहानी- खाट

 कहानी  

खाट

मोटे चश्में के पिछे बुढ़ाई आँखों से पलंग की निवार डोरी को अस्थी-पंजर के निढाल से शरीर से शेष बचे ज़ोर को लगाकर खिंचते ‘रतिराम‘ की स्मृति में कहानी तैर रही थी की किस तरह अपनी मेहनत और ईमानदारी के पैसो से उसनेे एक-एक पाई जोड़कर इस खाट नुमा पलंग को अस्सी रूपये में खरीदा था। टूटी खाट के इर्द-गिर्द जुड़ती स्मृति में कुछ दृश्य दिखाई देने लगे।

विद्या...अरे ओ...विद्या......‘‘सारे घर में कोना-कोना छान मारा....लेकिन इसका कहीं पता नहीं....! कहाँ चली जाती है...घर को सूना छोड़कर......? ये नहीं कि मरद नौकरी से थका हारा घर आयेगा....! उसके लिए कुछ चाय पानी वगै़रह की व्यवस्था करूँ बखत पर....! जब मालूम है....कि कहीं और नहीं जाता....रोज़ शाम को ये बखत घर ही आता है.....‘‘ विद्याआआआ....ओ विद्या....!

तभी एक पुरानी सी मटमैली साड़ी में लिपटी, कुछ उलझे कुछ सुलझे बालों वाली एकदम गोरीचिट्टी भरपुर यौवन लिए एक स्त्री की आवाज़ आई.....? आईईईई....जी.....‘‘पड़ोसन के घर गई थी, कुछ सुना आपने...? उस सावित्री को उसके मरद ने नई साड़ी लाकर दी, वही दिखा रही थी...हम्म.....,बड़ी इतरा-इतरा के दिखा रही थी....?‘‘ लेकिन मेरी ऐसी किस्मत कहाँ कि मेरा मरद मुझे साड़ी लाकर दे...? उसे तो बस घर की फिकर रहती है हरदम...? माना कि हम गरीब है....आपकी नौकरी से दो वक्त की रोटी मिलती है...गुज़ारा करते हैं जैसे-तैसे....? लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हमें अच्छे से रहने, खाने, ओढ़ने का हक नहीं है...? ‘‘ईमानदार जो ठहरे....वो क्या कहते है...? अपने सिद्धांतो से समझौता नहीं करते......? हम्म....चुल्हे मे जाये ऐसी ज़िंदगी....ये भी कोई ज़िंदगी है...? बड़बड़ाते हुए रसोईघर से रतिराम के लिए पानी का ग्लास लेने चली गई।

हाँ..हाँ..., तु बस दुसरों की खुशी देखकर दुखी हुआ कर... ‘विद्या‘...? अरे हमें क्या लेना-देना उनसे...हमको अपनी गृहस्थी देखनी है। और सावित्री के मरद की नौकरी ऐसी है कि उसको उपर की कमाई, मतलब रिश्वत मिलती है....और वो...लेने में ज़रा भी नहीं हिचकता......मैं तो सोच भी नहीं सकता ऐसे पाप का काम करने की। और देखा नहीं तुने....उसके घर में बस अच्छे कपड़े और नकली जे़वर ही हैं...जिनमें दोनो मरद-लुगाई लदे-पदे रहते है...? बाकी देखा घर.....? कैसा जर्जर सा हुआ पड़ा है....अरे...घर में कोई एक रिश्तेदार आ जाये तो बैठने को चटाई तक नहीं...बाकी और सब तो छोड़ो....? और गंदगी इतनी के कुत्ता भी न जाऐ उनके घर...। तु...वो सब छोड़....ला...पानी दे...ज़ोरो की प्यास लगी है....थक जाता हूँ दिनभर इतना काम है नौकरी में।

‘रतिराम‘ पानी पीकर दीवार के सहारे बिछी चटाई पर गहरी साँस लेकर लेटने की कोशिश करता है। और कोई डेढ़ फर्लांग दूर खड़ी ‘विद्या‘ की और देखते हुए सोचने लगता है....कि औरतें होती ही ऐसी है....या ‘विद्या‘ ही ऐसी है....?, जिसे घर-गृहस्थी से ज्यादा चिंता दिखावे का जीवन जीने की है...? हं...दिखावा स्थाई नहीं है....! लेकिन अब कौन समझाए इस मुरख को...? एकलौती, नाज़ो पली जो थी अपने माँ-बाप के यहाँ। पानी पीकर ‘रतिराम‘ इन खयालों में ही था कि फिर उसके कानों में किसी के बिनबिनाने की आवाज सुनाई देने लगी...!

‘‘दस बरस हो गए ब्याह को, ओर सात बरस तुम्हारी नौकरी को.....बस ये चार दिवारी ही बना पाएं हैं हम....ना कभी अच्छा खाया...ना ओढ़ा...! और घर बस बरतन-ठीकरे ही तो जमा किये...। कहां तो बड़े-बड़े सपने दिखाते हो...कि घर को पक्की छत से ढंकना है..., दीवारों को पक्का रंग रोगन करवाना है....अलमारी खरीदना है....खाट खरीदना है...? कहाँ है ये सब...? कब तक कच्ची मिट्टी में ज़मीन पर बिछोने में ही सोना पड़ेगा.....मेरी तो किस्मत ही फूट गई....? पड़ोसने देखों कैसी इतराती फिरती है.....और एक मैं हूँ..?‘‘

तभी गहरी लंबी सांस लेकर ‘रतिराम‘ बोला...., चुप कर मेरी माँ...अब कितनी बार समझाई तुझे....मेरी ईमानदारी और नैतिकता से जितना बन पड़ता है...मैं तेरे और घर के लिए ही तो करता हूँ...! अबके तारीख पर तनखा के अलावा भत्ता भी मिलेगा....तो सबसे पहले तेरे लिए खाट खरीदुंगा...फिर मेरी रानी, महारानी के जैसे खाट पर आराम करेगी....चल अब शांत रह.., और जा मेरे लिए खाना परास दे, बड़ी भुख भी लगी है, फिर आराम करूंगा...कल सुबह मुझे जल्दी दफ्तर जाना है, एक जरूरी फाईल का निरीक्षण कर अफसर को रिपोर्ट देना है।

‘विद्या‘ नाक-भौं सिकोड़ते हुए ‘रतिराम‘ के को खाना परोस कर दीवार के सहारे बिछे बिछोने पर सोने के लिए चली जाती है।

अगले दिन सुबह ‘रतिराम‘ जैसे ही दफ्तर पंहुचता है....तो देखता है कि दफ्तर में अफसर सभी कर्मचारियों की क्लास ले रहा है...गुस्से में एकदम लाल-पीला अफसर ज़ोर-ज़ोर से सभी कर्मचारियों को डांट रहा है....बताओ फाईल कहाँ गई......? एक कर्मचारी......जी बड़े बाबू ‘रतिराम‘ जी के पास निरिक्षण के लिए भेजी थी...अब वे ही कुछ बता सकते है..? तभी ‘रतिराम‘ अफसर के गुस्से से नावाकिफ सामने आता है....जी....जी...साब...वो फाईल तो मेरी टेबल पर ही थी.....आज निरीक्षण कर वापस सौंपना है आपको....। 

कहाँ से सौपोंगे...फाईल है कहां अब तुम्हारी टेबल पर.....गायब है फाईल वहां से...? चोरी हो गई है फाईल.? दफ्तर के ही किसी कर्मचारी का हाथ मालूम पड़ता है इसमें....? लगता है पूलिस बुलाना पड़ेगी..? इतनी इंर्पोटेंट फाईल, आज आखरी निरीक्षण के बाद हेड क्वार्टर को रिपोर्ट और फाईल भेजना थी....? बताओ ‘रतिराम‘ ये तुम्हारी गैरी जिम्मेदारी है...? फाईल तुम्हारी जिम्मेदारी थी....तुम इतना ध्यान नहीं रख सकते सरकारी कागजों का....तुम्हें कोई हक नहीं नौकरी करने का....नौकरी से बरखास्त कर देना चाहिये तुमको तो..?, ‘रतिराम‘ के पसीने छूटने लगे....जिसकी ईमानदारी और नैतिकता की लोग मिसाल देते है...उसके लिए इतना बड़ा इल्जाम.....निरअपराधी होकर भी कटघरे में खड़ा जो किया जा रहा था ‘रतिराम‘ को...? अपनी सफाई में कुछ कहते न बना उससे...चुपचाप मुंह निचा कर सुनने के सिवा। तभी एक बार फिर अफसर के ज़ोर-ज़ोर से बोलने की आवाज़ आई.....और यह क्या..? इस बार अफसर कह रहा था....‘रतिराम‘ इस बार की तुम्हारी तनखा काट ली जायेगी....केवल भत्ता मिलेगा.....और ये वार्निंग है तुमको....किसी भी सुरत में अगले दो दिन में फाईल ढुंढकर दो नहीं तो तुमको नौकरी से बरखास्त कर दिया जायेगा।

उदास मन से ‘रतिराम‘ घर पहुँचता है...जैसे आज निराशा ने उसे चारों तरफ से घेल लिया हो...? सात साल की नौकरी में कभी ऐसा नहीं हुआ...अपने काम के लिए इतना पाबंद और सख्त की मजाल कोई एक कलम की भी ‘रतिराम‘ की मेज से इधर से उधर हो जाये....। लेकिन आज जाने क्या हुआ कि....नौकरी पर ही बन आई...?

विद्याआआ......ओ विद्या.....आवाज लगाते हुए आज जैसे ‘रतिराम के गले में जोर लग रहा था.....भीतर से कुंठा के भाव बलवती हो रहे थे....निरअपराध होकर भी। ऐ विद्या....कहाँ मर गई.....? एक पल सुकून से जीने न देगी ये औरत और ये नौकरी...। 

हाँ, आ रही हूँ....क्यों हमेशा आसमान सर पर उठाये रहते हो.....कहीं न मरी.....घर में ही हूँ....तुम्हारे लिए खाना बना रही थी...! ठीक है.....तुम स्टोव न लाकर दो...तो भी इतने बरस से चुल्हे पर बन रहा है खाना....वहीं झोंक रहीं हूँ खुद को....! ये नहीं देखते कभी कि मुझे चुल्हा जलाने के लिए भी क्या-क्या जतन करना पड़ता है....? कहाँ-कहाँ से लकड़ी, कचरा, कागज़ इकट्ठा करके चुल्हा जलाती हूँ। आज ही कितनी मुश्किल से चुल्हा जला है....तुम क्या जानो..?

जान न खा..? जब देखो...बड़बड़ाती रहती है....? दो घड़ी का सुकून नहीं...! घर में औरत, दफ्तर में अफसर...तुम लोगों ने ठान रखी है मेरी जान लेने की...मुझे जीने दोगे या नहीं...? जला तुझे जैसे चूल्हा जलाना है जला....लेकिन मुझे मत जला..? वैसे ही परेशान हूँ, तु और परेशान न कर..?

हाय राम..! क्या हुआ, मैने ऐसा क्या कह दिया....? अब घर की बातें तुमसे न कहूँ तो किससे कहूँ..? 

अच्छा, माफ करो.... और जल्दी से हाथ मुहँ धो लो....आज मै तुम्हारे लिए सुजी का हलवा बना रही हूँ...थोड़ी देर हो गई...चूल्हा नहीं जल रहा था....लेकिन मैने भी बिना लकड़ियों के चूल्हा जलाने का इंतजाम कर लिया....? जाओ तुम जल्दी हाथ मुँह धो लोकृ। मैं गरम गरम सुजी का हलवा लेकर आती हूँ।

‘रतिराम‘ का मन ठीक न था...उसे नौकरी और फाईल की चिंता खाये जा रही थी....‘‘रहने दे, मन नहीं हैं कुछ खाने का‘‘। ‘‘अरे, एैसे कैसे मन नहीं है....इतने प्यार से बनाया है मैने.....जानते हो...आज चुल्हा जलाने के लिए लकड़ नहीं थी...पड़ोसन से भी पुछा...लेकिन वो स्टोव वाले जो ठहरे...! तो मैने...आपके बिछोने के पास एक मोटी सी कागज की पुरानी सी फाईल पड़ी थी...सोचा बहुत पुरानी है, कोई काम की न होगी...और कागज से चुल्हा जलाकर तुम्हारे लिए इतने प्यार से हलवा बनाया है...? हूँ न मैं समझदार...?

‘रतिराम‘ को समझते देर न लगी...यह तो वही फाईल थी...जिसके लिए दफ्तर में इतना बवाल हुआ और जिसके लिए अफसर से इतनी डांट सुनी. यही वो फाईल थी जिसे वो कुछ दिन पहले सुरक्षित रखने के कारण घर ले आया था और बिछौने के पास रखकर भूल गया था। अब गुस्से के मारे ‘रतिराम‘ के चेहरे और हाथ की नसे हरी होने लगी थी.....खुन हवा कि गति से नसों में दौड़ रहा था.....आँखे लाल होकर बड़ी हो रही थी....कि तभी चट्ट कर आवाज आती है और रस्सी टूट जाती है....‘रतिराम‘ पीछे की ओर गिर पड़ता है, अगले ही पल ‘रतिराम‘ वापस अपनी खाट के पास था, टूटी रस्सी के दोनो सिरों को फिर जोड़ने की कोशिश कर रहा था।


कहानी- खाट

लेखक - डाॅ. मोहन बैरागी


Wednesday, May 12, 2021

कहानी - प्रोफाईल लाॅक

 कहानी  

प्रोफाईल लाॅक

निबेदिता की उम्र अभी बत्तीस वर्ष है, तथा असमय बीमारी से अपने पति की मृत्यु के बाद एक छोटे से एक कमरे के मकान में अपने दस वर्षीय बेटे ‘बिप्लव‘ के साथ अकेली किराये से रहती है। ‘निबेदिता‘ के पिता ने दुसरी शादी की है, और उनकी पहली पत्नी, (निबेदिता की मां) का देहांत हो चुका है। अब ‘निबेदिता‘ का अपने पिता और परिवार से ज्यादा संपर्क नहीं हैं। ‘निबेदिता‘ ज्यादा पढी लिखी नहीं है तथा एक मोबाईल की दुकान में नौकरी करके अपना गुजारा करती है। मात्र आठ हज़ार रूपये की तनख्वाह में ‘निबेदिता‘ अपना घर भी चलाती है और बच्चे की पढ़ाई लिखाई व पालन पोषण भी करती है।

अपनी इस ज़िंदगी से ‘निबेदिता‘ बहुत परेशान है, और कभी उसके मन में आत्महत्या करने का ख्याल भी आता है। लेकिन फिर अपने छोटे से बेटे ‘बिप्लव‘ की तरफ देखकर अपनी आॅंसू पी जाती है। ना अच्छा खाने को है, ना अच्छा पहनने को है, और शौक पुरे करना तो जैसे उपर वाले में कुंडली में लिखा ही नहीं। ‘निबेदिता‘ को दुख इस बात का है कि वह अपने शौक तो ठीक...? लेकिन अपने छोटे से बच्चे ‘बिप्लव‘ के शौक भी पुरे नहीं कर पाती है। हर रोज़ सुबह-सुबह जब फेरी वाला गुब्बारे लेकर उसकी गली में आता है और ‘निबेदिता‘ का बेटा उसे लेने की ज़िद करता है, तब वह उसे कभी डांट कर तो कभी प्यार से समझाती है, कि बेटा तुम्हारे बर्डे पर हम एक साथ बहुत सारे गुब्बारे लेंगे, और घर सजाकर केक भी काटेंगे। छोटा सा मासुम कुछ देर सिसक कर फिर चुप हो जाता है।

एक रोज़ ‘निबेदिता‘ सुबह आठ बजे जल्दी जल्दी तैयार होकर घर का काम-काज निपटाने में लगी रही है कि तभी एक फेरीवाला उसके आंगन से आवाज़ लगाते हुआ गुज़रता है-

फेरीवाला- खिलोने वाला...बच्चों के खिलोने....गुड़िया-गुड्डू, ढपली-डमरू....ले लो खेल खिलोने...!

बिप्लव- मम्मी...मम्मी...खिलोने वाला आया बाहर....मुझे...गुडिया...चाहिये...मम्मी.....

निबेदिता- बेटा अभी नहीं, जब एक तारीख को सैलेरी मिलेगी तब जरूर दिलाउंगा, पक्का प्रामिस....मेरा बच्चा...उमममम...!

बिप्लव - नई मम्मा फिर वो खिलोने वाला नहीं आयेगा, कितने दिन के बाद तो आया है....मम्मा प्लिज...दिलवा दो प्लिज..!

‘निबेदिता‘- बिप्लव....अच्छे बच्चे ज़िद नहीं करते,,,,कहा ना दिलवा दुंगी...अभी मुझे दुकान जाना है, देर हो रही है...आप अच्छे बच्चे हो ना, ज़िद नहीं करते प्यारे बच्चे....चलो अभी मम्मा को बाय बोलो...!

इतना कहकर ‘निबेदिता‘ अपने अंदर ही अंदर खुन के आंसू पीती हुई दुकान के लिए घर से निकल जाती है। और पैदल चलते चलते रोते हुए अपनी किस्मत को कोसती है.... क्यूं एैसी ज़िंदगी दी...उपरवाले..? कुछ ही देर में ‘निबेदिता‘ दुकान पंहुच जाती है और अपने काम पर लग जाती है। ‘निबेदिता‘ के साथ ही काम करने वाली ‘अंजली‘, ‘निबेदिता‘ का चेहरा देख कर भांप जाती है, कि ‘निबेदिता‘ इतनी उदास क्यंू है आज..! उसे समझने में देर नहीं लगती और वह कहती है....यार ‘निबी...जस्ट चिल्ल...क्यूं इतना परेशान होती है सब ठीक हो जायेगा...सुन..! तु एक काम कर...तु...फिर से शादी कर लें...?

यह सुन ‘निबेदिता‘ अचानक से चैंक जाती हैं.....लेकिन मन ही मन सोचने लगती है...हज़ार बातें उसके मन में आने लगती है। एक मन कहता है कि सही भी है...,अगर कोई अच्छा लडका मिल गया तो शादी कर लेना चाहिये, कम से कम ये रोज़ रोज़ की पेरशानियों से तो छुटकारा मिलेगा...! मेरी और मेरे बेटे की ज़िंदगी सुधर जाएगी, कोई सहारा मिल जायेगा, तो घर चलाना, बच्चे को पालना, उसके खर्चे, पढ़ाई लिखाई,...ये सब झंझट से मुक्ति मिल जायेगी।

यह सोचते हुए ‘निबेदिता‘, अंजली से कहती है...बात तो ठीक है, लेकिन किससे करूं शादी...कौन करेगा.. एक बच्चे की माॅं से शादी, और कौन लेगा जिम्मेदारी हमारी। इस पर ‘अंजली‘ कहती है...तु चिंता क्यूं करती है..! आजकल सोशल मिडिया पर बहुत सी एैसी वेबसाईट है जो रिश्ते करवाती है...और उनमें अच्छे अच्छे लड़कों के प्रोफाईल बने होते है..एक बार तु रजिस्टर तो कर... हो सकता है शायद कोई अच्छा लड़का तुझे भी मिल जाये, जो तेरी और ‘बिप्लव‘ की जिम्मेदारी लेने को तैयार हो जाये। सुन...तू...शादी डाॅट काम पर अपनी प्रोफाई बना और देख कुछ दिन में तेरे प्रोफाईल से मेच करती हुई कई रिक्वेस्ट आएगी।

निबेदिता का दिनभर काम में मन नहीं लगता है... वह अपनी ज़िंदगी और उसके झंझावातों के उधेड़बुन में रहती है। अनमने मन से दिनभर दुकान पर काम करने के बाद शाम को घर जाते हुए भी रास्ते में यही सब सोचती रहती है....घर पंहुचकर अपने छोटे से बेटे को देखकर तुरंत गले लगा लेती है और सोचती है कि कल को मुझे कुछ हो गया तो इस मासुम का क्या होंगा, सोचकर उसकी आॅंख भर आती है। बच्चे की ज़िम्मेदारी और जीवन के बोझ तले दबी जा रही ‘निबेदिता‘ रोम रोम सिहर उठता है, जब उसके मन में ये सब ख्याल आते है। आखिकार वह फैसला करती है कि मेट्रीमोनियल वेबसाईट पर अपना बायोडाटा डालेगी और किसी लड़के से शादी करके दोबारा घर बसाएगी और अपने व बच्चे के भविष्य को सुरक्षित करेगी।

इतना सोच ही रही होती है कि उसकी दुकान में साथ काम करने वाली सहेती ‘अंजली‘ आ जाती है।

निबी...ओ निबी...कहाॅं है तु...क्या कर रही है...

सुन मेरी एक और सहेली है... उससे मेरी बात हुई, उसने बताया कि उसके भैया ने भी मेट्रीमोनियल वेबसाईट से ही लड़की देखकर शादी की है और आज दोनो खुशी खुशी रह रहे है। चल आज तेरा भी प्रोफाईल हम बनाते है...!

इतना कहकर वह पलंग पर पालथी मारकर बैठजाती है और कहती चल बता निबी...तेरी डिटेल डालते है और बनाते है प्रोफाईल..!

‘अंजली‘, ‘निबी‘ से उसकी डिटेल लेकर शादी डाॅट कर एप्लिकेशन डाउनलोड कर उसमें प्रोफाईल बनाकर डालना शुरू करती है और एक अच्छी इंप्रेशन वाली ‘निबेदिता‘ की प्रोफाईल बना देती है।

दो-चार दिन गुज़रते है, और ‘निबेदिता‘ की प्रोफाईल पर रिक्वेस्ट आना शुरू हो जाती है। समय गुज़रता है और हप्तेभर में करीब बारह लड़को की रिक्वेस्ट उसकी मेट्रीमोनियल वेबसाईट की प्रोफाईल पर आ जाती है। ‘निबेदिता‘ इनमें सी चार लड़को की प्रोफाईल को एक्सेप्ट करती है इनमंे चारो लड़के पढे़ लिखे और अच्छी नौकरी ओर बिजनेस वाले है, जिनकी सालाना इनकम दस लाख के उपर लिखी हुई है। एक दिन ‘निबेदिता‘ अपनी सहेली ‘अंजली‘ को ये बताती है, कि उसने चार लड़को की रिक्वेस्ट एक्सेप्ट की है और चारो लड़के बात करने के लिए मोबाईल नंबर मांग रहे है। तब अंजली कहती है... तु भी ना बूद्धू की बूद्धू ही रहेगी, अरे नंबर मांग रहें हैं तो दे ना...? किसका रस्ता देख रही है। ला मोबाईल दे तेरा, मैं इनको तेरा नंबर सेण्ड कर देती हॅू...इतना कहकर अंजली, निबेदिता के मोबाईल से चारो लड़को को मोबाईल नंबर सेण्ड कर देती है। 

अगले दिन सुबह....निबेदिता के मोबाईल की रिंग बजती है...टूननन.....टूनननन, टूननन....टूनननन

हैलो, कौन....जी, मैं आलोक बोल रहा हॅू, मुंबई से...क्या मेरी बार निबेदिता जी से हो रही है।

हाॅ...निबेदिता बोल रही हॅूकृ।

जी...आपने शादी डाॅट काॅम पर अपना नंबर दिया था....। कैसे है आप...आपने मेरी प्रोफाईल तो देख ही ली है..!

ओह...हाॅं....देखी है, आपकी प्रोफाईल....मैं ठीक हूॅ....आप कैसे है...?

आलोक- मैं ठीक हॅू...आपका एक बेटा भी हैं ना...कैसा है बेटा....क्या कर रहा है...?

निबेदिता- वो अभी सोया है, मैं बस सुबह के घर के काम करके जाब पे जाने की तैयारी कर रही हॅू, और आप क्या कर रहें हैं...आपको भी आॅफिस जाना होगा न...?

आलोक - हाॅं, जाना तो है...! लेकिन, जब से आपकी प्रोफाईल देखी है....दिल पर काबू नहीं रहा...?, आपके सुर्ख गुलाबी होंठ...झील सी गहरी आॅंखें....सुबह कि किरणों से सुनहरे बाल.....अहा....!, मैं तो मर ही न जाउ कहीं। बहूत खुबसूरत हो तुम...? जी करता है...बाहों में भर लूं और बस प्यार करता रहूॅं।

निबेदिता- अरे, ये क्या हो गया आपको सुबह-सुबह। आलोक जी, अभी तो बात शुरू ही कि हैं हमने, अभी मिलिये, जानिये, समझिये और लाईफ में आगे कैसे एक साथ चल सकते हैं उस पर सोचिये....?। अच्छा चलिये, अभी मुझे घर के काम करना हैं और फिर ड्यूटी पर भी जाना है, तो बाद में बात करते हैं।

आलोक- ठीक है... आप काम कर लिजिये, हम शाम को आराम से बात करते है...।, ओके

निबेदिता- ठीक है....बाय

निबेदिता कहकर बेटे को जगाती है, और उसे चाय देकर मन मन ही आलोक के बारे में सोचने लगती है, कैसा लड़का होगा...क्या इससे शादी करने पर मेरी ज़िंदगी की परेशानियां खत्म हो जायेंगी, क्या ये मेरे बेटे को अपने बेटे जैसा प्यार देगा...? तमाम सवाल उसके मन मस्तिष्क में आने लगते है, और वह फिर किचन की तरफ चली जाती है बेटे के लिए खाना तैयार करने।

अगले दो दिनों में तीन और लड़कों के फोन निबेदिता के पास आते है, वह धीरे -धीरे सभी से बात करना शुरू करती है, दो चार दिन सामान्य बातें और एक दुसरे के बारें में जानतें है, उसके बाद सभी लड़के हर रोज़ रात-दिन व्हाट्सएप पर मैसेज भेजना शुरू करते है। और फिर फोन से भी एक-एक कर बातें करना शुरू हो जाती है। लेकिन निबेदिता तब दंग रह जाती है जब सारे लड़के जिम्मेदारियों, शादी की बात न करके रोमांस के नाम वल्गर बातें करना शुरू कर देते है। निबेदिता इस सब से और परेशान हो जाती है। एक रोज़ शाम को मेट्रीमोनियल वेबसाईट से एक लड़के ‘प्रणब‘ को फोन ‘निबेदिता‘ के मोबाईल पर आता है, ‘प्रणब‘ भी वहीं लड़का है जिसकी प्रोफाईल ‘निबेदिता‘ ने एक्सेप्ट की थी।

‘प्रणब - हैलो.......

‘निबेदिता‘- हैलो....

मै प्रणब बोल रहा हॅू बैंगलोर से....

अच्छा...बोलिये, प्रणब जी, कैसे हैं...आप

मैं ठीक हूॅं, तुम कैसी हो...क्या कर रही हो...?

और बताओं,....तुमको क्या पसंद है..?

निबेदिता -बस, सब ठीक है...आप बताईये.....आपको क्या पसंद है...?  

प्रणब - मुझे तो बस तुम पसंद हो....! 

निबेदिता-ओह.... अभी तो हम मिलें भी नहीं, ज़्यादा बात भी नहीं हुई, अभी आप जानते ही कितना हैं मुझे...? 

प्रणब-तुम्हारा फोटो देख लिया और हो गया बस प्यार, अब और कुछ नहीं देखना..?,अब तो बस तुम ही तुम दिखाई देती हो हर तरफ..! 

तुम्हारे गुलाब की पंखड़ियों से होंठ, तुम्हारी कत्थई आॅंखें, तुम्हारे रेशमी बाल....बस जी करता है....देखता ही रहूॅं...!

तम्हारे खयाल से ही शरीर का रोम-रोम बोलने लगता है...? कितनी खुबसूरत हो तुम....बस तुमसे प्यार करता रहा रहूॅं...!

अच्छा सुनो....एक किस्स दो ना....?

निबेदिता - अरे....अभी हम मिले नहीं, बात नहीं हुई, एक दुसरे को जानते नहीं...और आप कैसी बात कर रहें हैं...।

प्रणब- तो क्या हुआ मिल भी लेंगे। मेट्रीमोनियल पर हम मिलने के लिए ही तो आए हैं..? और अगर प्यार ही नहीं तो फिर रिश्ता कैसे आगे बढ़ेगा। 

निबेदिता- ...तो प्यार ऐसे प्रोफाईल देखने से नहीं होता है। मिलिए पहले, देखिये, पहले एक दुसरे को जानना जरूरी है। एक दुसरे के बारे में जानना जरूरी है। और हम दोनों एक दुसरे का साथ अपनी जिम्मेदारियों के साथ ज़िंदगीभर निभा सकते हैं...? या नहीं। 

ये सब देखना है, उसके बाद आगे का सोचेंगे।

प्रणब फिर भी नहीं मानता हैं और रिश्ते के नाम पर निबेदिता से आलिंगन कर लेने और इसके बाद अश्लिल बातें शुरू कर देता है। इससे निबेदिता असहज महसुस करने लगती है और प्रणब को कहती है....

उल्टी सीधी बात ना करें, अभी से आप....! अभी मुझे काम है, हम बाद में बात करते है...और यह कहते हुए निबेदिता फोन काट देती है। ‘निबेदिता‘ को ‘प्रणब‘ के इरादे समझते देर न लगी...? वह सोचने लगी की, क्या मेट्रीमोनियल वेबसाईट में इसी तरह के लोग रहते है...और फिर निबेदिता दोबारा शादी के निर्णय का ख्याल करते हुए साथ ही अपने बेटे के भविष्य के बारे में सोचते हुए उसकी तरफ देखती है...., उसकी आॅंखे भर आती है...वह अपने बेटे को गले से लगा लेती है। और मेट्रीमोनियल वेबसाईट से अपनी प्रोफाईल लाॅक कर देती है।

लेखक - डाॅ. मोहन बैरागी



कहानी - पाॅंच रूपये का बंटी

 कहानी  

पाॅंच रूपये का बंटी

मनोकामना पूर्ण महादेव मंदिर के मुर्तिकक्ष में पंडित के हाथ कीं पुजा थाली में पाॅंच रूपये का सिक्का आकर गिरता है। यकायक पंडित अपनी नज़र भगवान की मुर्ति से हटाता और देखता है, मुर्ति कक्ष के बाहर से एक जोड़ा खड़ा है। पुरूष हाथ जोड़े खड़ा है तो वहीं महिला के हाथ में फूल-प्रसाद की टोकरी है, जिसे वह माथे पर लगा कर मुर्तिकक्ष की तरफ शीश झुका रही है। पंडित तुरंत कुछ मंत्रों का उच्चारण शुरू कर इस दंपति को आशीवार्द देने की मुद्रा में आ जाता है, फुल-प्रसाद की टोकरी लेने के लिए हाथ बढ़ाता है, और कहता है... भगवान सभी की इच्छा पुर्ण करते हैं....., आंखे बंद कर मन में भगवान का पवित्र मन से नाम लेकर अपनी मनोकामना कहंे, भगवान अवश्य पुर्ण करेंगे...! 

इतना कहकर पंडित...दंपत्ति से....अपना नाम  बताईये....अ...जी....पंडित जी, मैं अजय और ये मेरी पत्नी कविता है।

पंडित दोनो को नाम उच्चारते हुए भगवान की प्रतिमा पर फुल अर्पित कर प्रसाद को प्रतिमा के सामने निचे रखकर फिर कुछ मंत्र कहने लगता है...ओम............ओम.......आमे.......भगवान मनोकामना पूर्ण महादेव आपकी मनोकामना पूर्ण करेंगे। हाथ जोड़ लिजिये भगवान के।

अजय और कविता हाथ जोड़ कर, सत झुकाते हुए मंदिर से बाहर की ओर जाने लगते है।

(अजय और कविता की शादी को दस साल हो गये है। लेकिन उनकी कोई संतान नहीं है। अजय पढ़ा लिखा नौजवान है, जो एक आई टी कंपनी में काम कर अपना जीवन यापन कर रहा है।)

मंदिर से बाहर निकलते हुए कविता, अजय से कहती है..... तुम ना....एकदम कंजुस हो.....। भगवान के मंदिर में भी पाॅंच रूपये चढ़ा रहें हो केवल, सौ रूपये का एक नोट चढ़ा देते.....शायद हमारी भगवान सुन ले, और हमे बच्चा हो जाये..?

कितने साल हो गये हमारी शादी को, अभी तक हमको संतान सुख नहीं मिला....! सब कर लिया हमने, हर मंदिर में माथा टेका, वैद्य, हकिम, डाक्टर क्या....सब तो कर चुके है..? तभी अजय कहता है.....

अजय पलटकर कविता से कहता है, भगवान में आस्था होनी चाहिये, श्रद्धा होनी चाहिये, भगवान चढ़ावे से नहीं खुश होते है...

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए अजय फिर कहता है.....देखो कविता, मैं कई बार कह चुका हूॅ, ये मेडिकल प्राब्लम है, हमारा डाक्टर से ईलाज चल रहा है ना...हो जायेगी ये प्राब्लम भी जल्दी ठीक....तुम ज्यादा चिंता मत करो....और चलो अब जल्दी घर....मुझे आफिस भी जाना है..!

अजय चलने को तैयार होता है और जैसे ही अपनी स्कुटर स्टार्ट करता है, तभी कविता की नज़र मंदिर के पास बह रही नदी किनारे कुछ लोगों के झुण्ड पर पड़ती है, वो तुरंत अजय से कहती है....रूको, देखों......वो नदी में लोग क्या कर है....इतनी भीड़ क्यों है वहां...? अजय कहता है...अरे...कविता......होगा कुछ...हमें क्या करना है....तुम चलों ना...! 

नही.....नहीं.., मुझे देखना हैं, इतनी सारी लेडिज...जेट्स....रूको न प्लीज......!

अजय अपना स्कुटर वापस स्टेण्ड पर लगाकर...कविता को थोड़ा नदी किनारे के पास लेकर जाता है....और उसे देखते-समझते देर नहीं लगती.....?

वह चैंक जाता है.....उसके मुंह से बरबस निकलता है.....ओह....भगवान इस बच्चे की आत्मा को शांती दें......!

चलो...चलो.....कविता.., मैं बताता हूॅं...तुमको...!

वापस स्कुटर की तरफ लौटते हुए,वह कविता से कहता है.....ये यहाॅं की प्रथा है, जब कोई छोटा बच्चा, असमय मर जाता है, किसी भी बिमारी या किसी एक्सीडेंट, या ऐसी ही किसी और दुर्घटना से...तो उसकी लाश का अंतिम संस्कार एैसे ही किया जाता है....उसकी लाश को ऐसी किसी टोकरी में रखकर उसके पास एक सिक्का रखकर नदी में बहा दिया जाता है।

यह सुनते ही अत्यंत भावुक स्वभाव की कविता की आंखें डबडबा जाती है......और उसके मुंह से निकलता है....भगवान इतना निर्दयी भी है। अगले ही पल अपने दोनो हाथों से अजय की बांह पकड़ लेती है और दोनों स्कुटर की तरफ चलने लगते है।

स्कुटर स्टार्ट कर दोनो घर चले जाते है!

मध्यमवर्गीय परिवार के बेहद समझदार अजय और कविता आम जिं़दगी गुज़र-बसर कर रहे हैं, लेकिन शादी के दस साल बाद भी दोनों में प्यार, सामंजस्य तथा एक-दुसरे के लिए सम्मान की काई कमी नही है। हालांकि संतान नहीं होने से दोनो पति-पत्नी कुछ परेशान जरूर रहते है लेकिन धीरे-धीरे समय बीतता हैं और कविता की एक दिन अचानक तबीयत खराब होने लगती है, वह तुरंत ही अजय को उसके आफिस फोन करती है....हैलो....अजय.....जल्दी घर आओ....मेरी तबीयत खराब हो रही है....बहुत उल्टियां हो रही है......! अजय अपना काम बंद कर अपने बाॅस से परमिशन लेकर घर भागता है। घर पहंुचकर ...क्या हुआ कविता.....तुम ठीक तो हो ना.... चलो तुमको डाक्टर के पास ले चलता हुॅं। दोनो डाक्टर के पास पंहुचते है....डाॅक्टर कविता का चेकअप करती है....और ड्रेसिंग रूम से बाहर निकलकर हाथ पौछते हुए......बधाई हो अजय....कविता गर्भ से है....तुम बाप बनने वाले हो.....। यह सुनते ही अजय की खुशी का ठिकाना नहीं रहता....वह भागकर तुरंत ड्रेसिंग रूम में पहुंचता है.......सुना कविता तुमने डाक्टर ने क्या कहा......तुम माॅं बनने वाली हो....कांग्रेचुलेशन स्वीटहार्ट...मुअअअआाााह....! आज मैं बहुत खुश हॅू।

अजय कविता को घर लेकर आता है और, अब तुम अपना ध्यान रखों। अब बिल्कुल काम नहीं करना है....घर में कामवाली बाई लगवा लो, पर अब तुम कोई भी भारी काम नहीं करोगी।

धीरे धीरे समय गुज़रता हैं। और ठीक नो महीने बाद कविता एक सुंदर से हष्ट-पुष्ट बेटे को जन्म देती है। अजय की खुशी का ठिकाना नहीं रहता...। वह नाचने लगता है, अपने अपने बेटे का गोद में उठाकर चुमते हुए प्यार करने लगता है.....मुउउउअअआाााा...,गोदी में झुलाते हुए गाना गाने लगता है....तुझे सुरज कहूं या चंदा...तुझे दीप कहूं या तारा....मेरा नाम करेगा रोशन...जग में मेरा राजदुलारा......मुउउउअआााााा...। ये गाते गाते....बेटे को कविता के पास लेटा देता है, और कविता से कहता है, मैं मंदिर जाकर आता हॅंू। कहते हुए अजय सीधे मनोकामनापुर्ण महादेव के मंदिर में पंहुचता है...और मुर्तिकक्ष के बाहर साष्टांग दण्डवत होकर शीश नवाने लगता है...उठकर हाथ जोड़ते हुए, बिना कुछ कहे पाॅंच रूपये का सिक्का भेंट पात्र में डालकर उल्टे पैर दोड़कर कविता के पास पंहुचता है और कविता से कहता है, अब तुम अपने खाने पीने का और ज्यादा ध्यान रखोगी, कोई काम नहीं करोगी, बेटे की ओर तुम्हारी दोनो की सेहत का ध्यान रखना पडे़ेगा....। कविता पलटकर कहती है....जो आज्ञा मेरे पतिदेव....अच्छा सुनो, इसका नाम क्या रखें... देखो तो एक दम गोलू-मोलू सा तुम पर गया है...मेरे जैसी तो बस इसकी नाक है...लेकिन बाकी सब तुम पर गया है....! 

अजय- इसका स्कूल में नाम हम अलग रखेंगे...बाद में अच्छे से सोचकर और जन्मकुंडली में राशी के हिसाब-किताब को देखकर। लेकिन अभी से ये हमारा बंटी है। आज से इसका नाम बंटी.....मुउउउअआआाााा।

आज के दिन अजय और कविता बेहद खुश है, आखिर शादी के दस साल बाद जो उनके यहां कोई संतान हुई है। अगले दिन अजय आफिस में पुरे स्टाफ के लिए मिठाई लेकर जाता है, और बहुत खुश होते हुए सबको मिठाई देते हुए कहता है...ये लिए बाॅस आप बड़े पापा बन गये,...लो समीर, रजनीश, विकास, (आफिस के अन्य कर्मचारी) तुम भी मिठाई खाओ....तुम सब चाचा बन गये हो।

अरे...बधाई हो अजय हो सर...मिठाई के साथ पार्टी बनती भी बनती है अब तो......

अजय- हाॅं....हाॅं.....जरूर...पार्टी भी होगी..! बड़ी पार्टी करेंगे।....कहते हुए अजय अपनी टेवल पर जाकर काम करने लगता है।

समय गुज़रता है, अजय ओर कविता दोनो बंटी की देखभाल ओर हद दर्जे की केयर करने लगते है...।

अब बंटी दो एक साल का हो गया है। सब ठीक चलता है। 

और अचालक एक दिन टीवी और पेपर्स में समाचार आता है कि हमारे देश में एक भयंकर बीमारी का प्रवेश हो गया है। ‘कोरोना‘..!

क्या बच्चे क्या बड़े सब इसकी चपेट में आ रहे हैं, और यह जानलेवा बीमारी हैं....इसके संक्रमण से सीधे जान जाने का खतरा है...इसलिए सभी लोग सावधानी बरतें...थोड़ी भी बीमारी का अंदेशा या लक्षण हो तो तुरंत डाक्टर को दिखाएं।

अजय....समाचार को देखा-अनदेखा, सुना-अनसुना कर देता है।

लेकिन अगले लगभग पन्द्रह दिनों में ही इस बीमारी से देशभर में कोहराम मच जाता है, लाखों लोग इससे संक्रमित हो जाते है। हजारो लोगों की जान चली जाती है। सरकार को भी समझ नहीं आता, इस बीमारी को कैसे रोका जाये। 

एक दिन देश का प्रधान टीवी पर आकर घोषणा करता है कि इस गंभीर बीमारी ने हमारे देश को भी चपेट में ले लिया है और दुनिया के कई देश इससे झुझ रहे हैं। इस बीमारी से बचने का तरीका यही है की लोग घरों से ना निकले, एक दुसरे से दुरी बनाकर रखें। मुहं पर कपड़ा या मास्क पहने। देश के सारे सरकारी और प्रायेवट दफतर को अगले आदेश तक के लिए बंद किया जाता है।

यह सुनकर अजय....अरे ये क्या..... ऐसे, कैसे हो सकता है.....सब बंद हो जायेगा तो लोग क्या करेंगे। कहां जायेगें।

वह अपने आफिस बाॅस को फोन लगाता है...।

अजय-...हैलो....,बाॅस...यह क्या समाचार आ रहा है टीवी पर...की सब सरकारी और प्रायवेट दफतर बंद हो जायेंगे...तो काम कैसे होगा।

बाॅस- हाॅं, अजय...हमारे आफिस के लिए भी सरकारी लेटर आ गया है...आफिस बंद करना है....अब हमें घर रहकर ही काम करना होगा। बाकी देखते है....कंपनी के बोर्ड मेंबर और मालिक क्या कहते है....लेकिन तुम चिंता मत करो....तुम्हारे फोन पर मैसेज आएगा कि क्या करना है....ठीक है....!

अजय- ओके...ठीक है बाॅस..।

अगले ही दिन से इस आदेश का पालन देश के सभी सरकार और प्रायवेट दफतर करने लगते है। तो वहीं दुसरी और सरकार इस बीमारी से निजात पाने के लिए जद्दोजहद करती रहती है। समय गुज़रने लगता है। देश के आर्थिक ढांचे की कमर टुटने लगती है। दफतरों को बंद रखने की घोषणा के चलते कोई दफतर नहीं खुलता और समय गुज़रने लगता है...! इस सब में तीन महीने गुज़र जाते है। प्रायवेट कंपनियों के हाथ पैर फूलने लगते है। देश की कई कंपनिया अपने एम्प्लाई को एक महिने का वेतन देकर नौकरियों से निकलना शुरू कर देती है। इधर अजय घर से ही अपना आफिस का काम कर रहा होता है....कि एक दिन आफिस से बाॅस का फोन आता है...

बाॅस-.....हैलो, अजय......

अजय-..जी बाॅस

बाॅस- अजय कंपनी की हालत बहुत खराब हो गई है, मैनेजमेंट ने साठ परसेंट कर्मचारियों की छटनी करने का निर्णय लिया है, इन सभी को एक महिने की तनख्वाह देकर, नौकरी से रिलिव किया जा रहा है, इसमें तुम्हारा भी नाम है अजय...। यह सुनकर अजय चैंक जाता है.....!

अजय- अरे...बाॅस...ये कैसे...मेरा तो काम भी परफेक्ट है....आप खुद ही देखते है...अपना सब काम मैं टाईम पर करके देता हॅू।

बाॅस- सही है अजय, लेकिन क्या करें...?, मेनेजमेंट का फैसला है।, एक महीने की एडवांस सेलेरी तुम्हारे बैंक अकांउट में क्रेडिट हो जायेगी और रिलिविंग लेटर तुम्हे मेल कर दिया जायेगा।

यह सुन अजय मायुसी के भाव में आ जाता है, और खुद को कुछ परेशान सा महसुस करने लगता है।

तभी अचानक कविता की आवाज आती है.......सुनो........अजय..........?

बंटी दो दिन बहुत रो रहा है......उसको सर्दी, खांसी भी बहुत हो रही है, मैं दवाई दे रही थी......उससे थोड़ी देर ठीक रहता लेकिन...फिर वैसा ही....प्लिज देखों ना क्या हुआ इसको.....?

अजय तुरंत उठ कर बंटी के पास जाता है, उसे रोता देख और परेशान हो जाता है....और कविता को डांटने लगता है....तुमसे ज़रा भी ध्यान रखते नहीं बनता...! झल्लाते हुए......बंटी बीमार है और तुम हो कि....! चलो, अस्पताल डाक्टर के पास....!

अजय और कविता बंटी को अस्पताल डाक्टर के पास लेकर जाते है......डाक्टर बंटी का चैकअप करता है, और तुरंत कुछ इंजेक्शन लिखकर अजय को कहता है......... ये इंजेक्शन तुरंत लेकर आओ.....बच्चे की हातल खराब है...मैं कुछ जांच भी लिख रहा हूॅं....इसको करवाना होगा और बच्चे को अस्पताल में एडमिट करना होगा।

अजय- डाक्टर साहब, जो करना है किजिये.....प्लीज...लेकिन बंटी को ठीक कर दिजिये.....।

डाक्टर- घबराओ मत...सब ठीक होगा...पहले जाओ...फार्मेलिटी पुरी करके बच्चे को इंजेक्शन लगवाओ...जांच करवाओं...ओर भर्ती करो।

अजय तुरंत सारी प्रक्रिया पुरी करता है और डाक्टर को इंजेक्शन लाकर देता हैकृडाॅक्टर बच्चे को इंजेक्शन लगाकर जांच के लिए लेबोरेटरी में सेंपल भेजकर अस्पताल में एडमिट कर देता है। अब बंटी को कुछ आराम है और वह गहरी नींद में सो जाता है। उधर कविता की आॅंखों में आॅंसू है...वह अजय के गले लगकर रो पड़ती है....अजय कहता है...धैर्य रखो...ठीक हो जायेगा बंटी।

अगले दिन बंटी की जांच रिपोर्ट आती है, जिसमें बंटी कोरोना से संक्रमित पाया जाता है.....?

अजय को रिपोर्ट बताते हुए डाक्टर.....देखिये अजय जी...आपके बेटे के टेस्ट में कोरोना की बीमारी का संक्रमण आया है। बंटी को आईसीयु में भर्ती करना होगा.....और विशेष देखभाल और ईलाज की जरूरत होगी।

अजय- डाक्टर साहब, जो भी करना है, किजिये.....मेरे बेटे को अच्छा कर दिजिये आप....!

डाक्टर- ठीक है, घबराओ मत...सब ठीक होगा।

अजय खुद का ढांढस बंधाता है...और एक लाचार से पिता की तरह अपने बच्चे के पास आकर बैठ जाता है। 

अस्पताल में लगातार एक सप्ताह तक भर्ती रहने और तमाम तरह की दवाईयां व ईलाज करने के बाद भी बंटी की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जाती है। इधर अजय और कविता की हालत मानसिक ओर शारीरिक हालत भी खराब होने लगती है। 

एक दिन सुबह-सुबह अचानक बंटी रोने लगता है, और उसकी खांसी है कि बंद होने का नाम ही नहीं ले रही....? अजय और कविता तुंरत भाग कर डाक्टर के पास जाते है, डाक्टर साहब.....डाक्टर साहब.....प्लीज देखिये बंटी को क्या हुआ........रोना बंद हीं नहीं कर रहा है ओर ज़ोर ज़ोर से खासी हो रही है उसको। 

डाक्टर अपना आला लेकर, अजय के साथ बंटी को देखने भागकर आता है.....। 

तीनों आकर देखते है कि बंटी एकदम चुप है....रोने की आवाज भी नहीं आ रही.....डाॅक्टर अपना आला बंटी के सीने पर लगाकर देखता है....उसे बंटी में कोई हलचल नहीं दिखाई देती....वह बच्चे के सीने में ज़ोर से पम्प करने लगता है....लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ता....सारी कोशिश करने के बाद डाक्टर अजय से कहता है....साॅरी.....बंटी अब इस दुनिया में नहीं रहा.....?

यह सुन कविता ज़ोर से दहाड़ मारकर रोने लगती है....अजय भी आपे में नहीं रहता....उसकी आॅंखो से झर-झर आॅंसू बहने लगते है...इतने में कविता देखता है...कि कविता बेहोश हो गई है.....डाॅक्टर उसे उठाते है....मुंह पर पानी मारते है...थोड़ी देर में कविता को होश आता है, लेकिन यह क्या.....उसकी दुनिया तो जा खत्म हो चुकी है...उसका बंटी अब इस दुनिया में नहीं है....अजय कविता को ढांढस बंधाता है। कविता और अजय दोनो अपने छोटे से दो साल के बेटे बंटी की लाश लेकर अस्पताल से निकलते है, और अपने शहर की उसी नदी में एक टोकरी में रख देते है। अजय अपनी जेब में हाथ डालता है, बंटी के पास रखने के लिए सिक्का चाहिये था, लेकिन अपनी सारी जेब देखने के बाद उसकी जेब में कोई सिक्का नहीं मिलता, तब कविता अपने पर्स में हाथ डालती है और उसके पर्स से पाॅंच रूपये का सिक्का निकलता है.....! अजय और कविता....बंटी को सफेद कपडे़ में लपेटकर उसे टोकरी मे लिटाते है और उसके पास पाॅंच रूपये का सिक्का रखते है। टोकरी को दोनो अपने हाथों से नदी में अंदर की और धकेल देते है।


लेखक - डाॅ. मोहन बैरागी



कहानी - उम्मीद का दरख़्त

 


कहानी  


उम्मीद का दरख़्त

 लक्ष्मी....ऐ...लक्ष्मी....कहाँ है....? देख लक्ष्मी....., आज मैं तेरे लिए जलेबी लेकर आया हूूँ। आज तो खूब बिक्री हुई..! कितने महकते फूल थे आज के गुलदस्तों में...! वाह मज़ा आ गया....। है ईश्वर बस ऐसे ही बरकत बख्शता रह हम ग़रीबों पर...तेरा बहुत एहसान हम पर। लेकिन लक्ष्मी कहाँ चली गई....लक्ष्मी.....एै....लक्ष्मी.....! (राम आसरे)

आइइइईईई.....क्या हुआ.....क्यों इतना शोर मचा रहे हो....। मैं पिछे की दिवार को लीप-छाब रही थी.....कितनी सीद आने लगी दिवारों से...पुरा घर गीला हो जाता है....इस मौसम....?

कब से कह रही हँू......घर की दीवारें पक्की बनवा लेते हैं....ईंट-गारा कब तक टिकेगा....? हमारे सपनों के जैसे हर सुबह इनसे भी टूटकर मिट्टी बिखरने लगती है......? (लक्ष्मी)

बनवा लेंगे....जल्दी ही....! तु धीरज धर....

लक्ष्मी....देख....आज मैं जलेबी लाया हँू। आज महकते फूलों के पुरे चैदह गुलदस्तों की बिक्री हुई। ले.....ये बचे हुए तेरह सो पचास रूपये संभाल कर रख दें...! जरूरत के समय बचत ही काम आती है। और फिर हमको अपने घर की दीवारों को भी पक्का करवना है....ले.....रख ले....पाई-पाई जोड़कर ही घर बनता है।

जलेबी की थैली लक्ष्मी को देकर....चल अब खाना परोस दे.....मैं हाथ मुँह धोकर आता हँू...! (राम आसरे)

तभी घर के बाहर से मुनादी की आवाज़ आती है?

सुनो...सुनो...सुनो.....सरकारी फरमान है....गौर से सुनननो....मौसम विभाग के अनुसार....देश में सुखा पड़ने की आशंका हैएएए.....? सुखे और अकाल से निपटने के लिए सरकार को धन की जरूरत हैएएए...! सभी लोग अपनी जमा पुँजी सरकारी खजाने में जमा कर देंएएए.....नहीं तो देशद्रोही मानकर जेल में डाल दिया जायेगा...? सुनो.... सुनो..... सुनननोओओ....।

हाय राम...! ये क्या...?

हम अपना पैसा सरकार को दे देंगे....? तो हम क्या करेंगे....हमें अपना घर बनवाना है..! और भी घर के खर्चे है....बड़ी मुश्किल में मेहनत मजदुरी करके तो अपना पेट पालते है.....ये कैसी निर्दयी सरकार है....?

अरे क्या हुआ लक्ष्मी.....ला खाना रख जल्दी, बड़ी जोर की भुख लगी है....?

भुखी तो सरकार हो गई है हमारे खुन की......? सुना तुमने....(लक्ष्मी)

क्या....? क्या हुआ.....? अचानक से क्यों इतनी आगबबुला हो रही है...? कौनसी आफत टुट पड़ी आसमान से....? (राम आसरे)

आसमान से ही तो टुटी है.....? हम ग़रीब लोग, बड़ी मुश्किल से अपने लिए दो जुन की रोटी की जुगाड़ कर पाते हैं...? ठीक से खाने को नहीं...ओढ़ने-पहनने को नहीं... तुम्हारे दो जोड़ी कपड़े खरीदने के लिए कब से सोच रहे हैं...अब तक नहीं ला पाये...? चारपाई टूट गई....उसे ठीक करवाना है....कच्चे टूटे बर्तन में खाना बनता है....स्टील के बर्तन लाना है...और ये सरकार है कि...आम जनता पर ही जुल्म ढाने वाली है...? बताओ.....? अब हमको अपनी जमा पुँजी सरकार को देना होगी...? कोई अपने घर में रूपया जमा नहीं कर सकता...? आँखों में आँसू भर....रामआसरे को खाना परसते हुए बोली...!

कोई बात नहीं.....ईश्वर पर भरोसा रखो......ऊपरवाला सब ठीक करेगा....! तुने सुना है न वो कहते कि ऊपरवाला सबका ध्यान रखता है, तो हमारा भी रखेगा। देख, हमारे पास खेती-बाड़ी नहीं...., कोई और आमदनी नहीं...., पुरे गाँव में सबसे गरीब.....ले-देकर कुल जमा यह दो कमरों का घर ही है...हमारी जमा पुँजी..! अच्छा है....सरकार ने जमीन जायदाद भी नहीं माँग ली जनता से....? और इसके बाद तो सारे गाँव में सब एक बराबर हो जाएंेगे....! क्या गरीब...क्या अमीर..., सब एक। तकलीफ तो उनकी है....जिन्होंने तिजोरी भर रखी अपनी काली-सफेद कमाई से..? हल्के अनमने मन से खाना खाते हुए रामभरोसे ने पत्नी से कहा- ला...ले...आ....जितना रूपया है...हमारे पास....तो दे आऊ सरकारी खजाने में...।

रामभरोसे अपनी सारी जमा पुँजी सरकारी खजाने में जमा कर आया। घर आकर देखता है...लक्ष्मी सुबक कर रो रही है...और बड़बड़ाते हुए सरकार को कोसती गालियां निकाल रही है। ......चल सो जा अब...रात होने को है.....ना जाने कल से ज़िंदगी कैसे गुज़रेगी....अकाल देश में ही नहीं....हम सब के जीवन में पड़ने वाला है....क्या होगा....कैसे होगा ....? है राम.....कृपा करो....! बुदबुदाते-बड़बड़ाते दोनों सो गए...लेकिन नींद जैसे....उसे तो अकाल ने अभी से लील लिया हो.....आने का नाम ही नहीं ले रही थी...? सारी रात आँखों ही आँखों में कट गई।

गरीबी के हालात में दोनों अपना जीवन गुज़र बसर कर रहे थे, दिन बीता..., महीना बीता... आशंका सच साबित हुई....अकाल पड़ा....आसमान से पानी बरसने का नाम नहीं लेता.....जाड़े के मौसम मंे भी चिलचिलाती धुप...? पशु-पक्षी पानी को प्यासे....खेत-खलिहान सुखे....हवा का नामो निशान नहीं....,तो वहीं दुसरी और इस दौरान गाँव में चोर लुटेरों ने भी खूब आंतक मचाया.....लोगों के घरो से बर्तन, सामान और राशन की चोरियां होने लगी...? एक सुबह जैसे ही लक्ष्मी की आँख खुली.....

हाय राम......ज़ोर-ज़ोर से दहाड़ मारकर छाती पिटते.....ये क्या हो गया.....हरामखोरों ने खाने को भी नहीं छोड़ा....सब चोरी कर लिया.....देखो...देखो तो....सुनो...उठो....अंअंअंअअअ...नाशपिटों ने कुछ नहीं छोड़ा....सब ले गये......है भगवान...इससे तो अच्छा मौत दे दे....फांके में तो यूं भी न जी सकेगें। सुनोओओ...उठो....!

क्या हुआ...सुबह-सुबह क्यूं इतना रो रही है लक्ष्मी.....ऐसा क्या पहाड़ टुट पड़ा है..?(रामभरोसे)

नाशपिटे सब ले गये....राशन, बर्तन.....सब...?(लक्ष्मी)

दो महिनों से नून रोटी खाकर बसर कर रहे थे.....वो भी ले गये? अब क्या होगा...?

रामभरोसे, सुनकर दंग रह जाता है....थोड़ी देर गुमसुम....,फिर संभल कर.....

चिंता न कर....ऊपर वाले ने पेट दिया है...वहीं कुछ न कुछ इंतजाम करेगा...!

अगले सात दिन तक सिर्फ पानी से पीकर खाते-सोते.....दोनों सिर्फ आसमान निहारा करते......कब बरखा होगी...कब फुल खिलेंगे.....

अब तो हड्डियां दिखने लगी दोनों की....शरीर में जान ही न रही मानो...? लेकिन विश्वास का पक्का रामभरोसे....हिम्मत नहीं हारता....घर के बाहर माथे पर हाथ धरे बैठा था कि....अचानक कहीं से माथे पर पानी की बुंद टपकी....नज़रे उठाकर आसमान की तरफ देखा तो बादल आ रहे थे.....थोड़ी ही देर में मानो करिश्मा हो गया....बिजली की गड़गड़ाहट होने लगी....और देखते ही देखते ज़ोरदार बारिश होने लगी.....रामभरोसे चिल्लाया......लक्ष्मीईईईई.....लक्ष्मीईईईई....लक्ष्मी देख....मैं न कहता था... ऊपरवाला सबकी सुनता है....देख बारीश होने लगी बाहर......ला जल्दी कपड़े दे....मैं जाकर देखू....दरख्त को........?

रूआंसी आँखों से....खुशी के मारे लक्ष्मी के आँसू छलक पड़े...बोली-कपड़े कहाँ हैं......यही जो तन पर है....यही बचा है हमारे पास...बाकी तो सब लूट ले गये...?

कोई बात नहीं....मैं एैसे ही जाता हँू.....! रामभरोसे दरख्त के पास आकर देखता है....बारिश में तरबतर दरख्त पर फूल खिलने को हैं.....यह देखकर खुशी के मारे वह चार फर्लांग कुदने लगा....और भागकर घर आकर...देख लक्ष्मी मैं न कहता था...कि ऊपर भगवान है और निचे दरख्त.....अब फिर अच्छे फुल खिलेंगे...फिर गुलदस्ते बेचकर खुब कमाई होगी, खुब हरियाली होगी, खुब खुशहाली होगी।

कहानी- उम्मीद का दरख्त

लेखक - डाॅ. मोहन बैरागी




 

कहानी - आक्सीजन

 कहानी  

आक्सीजन

प्रताप सिंह ने अपने घर के आंगन में एक छोटा सा बगीचा बनाया हुआ है, और रोज़ सुबह शाम इसमें पानी देतेे हैं। उन्हें शौक है, आंगन को हरा-भरा रखने का, वे आए दिन नई किस्म के पौधे ले आते हैं और आंगन में लगा देते हैं। आज भी वे अपने आंगन में बरगद का पौधा लगा रहें हैं। एक तरफ कोने में खुरपी से मिट्टी खोद कर बाहर कर रहें थे कि तभी उनका आठ वर्षीय पोता बिट्टू उनके पास आकर कहता है.....दादाजी...ये आप क्या कर रहें हैं..? मिट्टी क्यो निकाल रहें हैं...? बिट्टू बेटा....यहां हम बरगद का पेड़ लगाएगें...! आपको पता है...बरगत से हमें आक्सीजन मिलती है...! ये आक्सीजन क्या होती है दादाजी...? प्रताप सिंह...मिट्टी खोदकर...उसमें कुछ जैवीक खाद मिलाकर उलट-पलट करते हुए....बिट्टू बेटा...आक्सीजन प्राणवायु होती है...हम जो सांस लेते हैं ना...इसमें भी हम हवा से आक्सीजन ही लेते है....। अच्छा, बताओं बेटा...? आपको पता है...हमारा शरीर किससे बना है....? हाॅं.....दादाजी....हमारा शरीर हाथ, पेर, मुहॅं से बना है...? हा...हा....हा...हा.....नहीं बेटा.....हमारा शरीर पानी और आक्सीजन से मिल कर बना होता है, आक्सीजन गैस या हवा के रूप में होती है और पानी........ये दोनों मिलकर हमारे शरीर को बनाते है....हम इन दोनों के बिना जिंदा कोई नहीं रह सकता।, अच्छा दादाजी....!

प्रताप सिंह गड्डे में बरगद के पौधे का रखकर आसपास की मिट्टी से गड्डा भरते हुए.....अं....चलो बेटा हो गया....अब यह बड़ा होकर हमे छाया और आक्सीजन देगा....लेकिन इसके लिए हमको इसकी भी देखभाल करना पड़ेगी। प्रताप सिंह अपने पोते से बात कर ही रहे होते हैं कि तभी आवाज़ आती है....? बाबुजी....ये आप क्या दिनभर आंगन में पौधो को उधल-पुधल किया करते हैं....देखिये न मिट्टी और पत्तों का कचना पुरे घर में आता है....थोड़े उंचे स्वर में दरवाजे पर खड़े प्रताप ंिसह के बेटे अनिल सिंह ने कहा..?

हो गया....हो गया....मेरा काम बेटा अनिल....! (प्रताप सिंह)

ओके बाबूजी.....आईये....नाश्ता कर लिजिये....।

कहते हुए अनिल अपना बेग उठाकर आफिस के लिए निकल जाता है। समय गुज़रता है....! अनिल सिंह अब अपने आफिस में सबसे सिनियर मोस्ट अधिकारी हो गया है....उसके पास रूतबा, पैसा, गाड़ी सब आ गया, लेकिन बाबुजी की ज़िद की वजह से नया घर नहीं लिया....। बाबूजी को अपना वहीं पुराना घर पसंद है...क्योंकि उसके आंगन में उनके लगाये पेड़ पौधे वाला सुंदर सा गार्डन है, इस गार्डन उस बरगद सहित कई पौधे अब पेड़ की शक्ल ले चुके हैं। प्रताप सिंह अब सत्तर वर्ष से अधिक आयु के हो चुके हैं, लेकिन प्रकृति के नज़दिक रहने की वजह से आज भी एकदम स्वस्थ्य और फुर्ति एैसी की पच्चीस साल के नौजवान से मात दे दें। पोता बिट्टू अब काॅलेज पढ़ने जाने लगा हैं। आज बिट्टू का ग्रेजुएशन फाईनल ईयर का रिजल्ट आने वाला है...। प्रताप सिंह बिट्टू को आवाज देते हुए!

बिट्टू....बेटा बिट्टू....कहां हो भाई....आज तुम्हारा इम्तेहान का रिजल्ट आने वाला है....।

एं...ये लो मैं वहां सारे घर में तुमको ढूंढ रहा हूॅ और तुम यहां कम्प्युटर पर लगे हुए हो.....आॅंखें खराब हो जायं्रेगी....! ज़्यादा मत चलाया करों इस कम्प्युटर को। 

हां दादाजी...।

चलो, जल्दी तैयार हो जाओ, आज मैं भी चलूंगा तुम्हारे साथ, तुम्हारे काॅलेज...तुम्हारा रिजल्ट जो है आज..?

कहकर प्रताप सिंह कमरे से बाहर निकल गया। बिट्टू ने भी अपना कंप्यूटर बंद किया और दीवार की खुंटी पर टंगा टावेल लेकर बाथरूम की तरफ नहाने चला गया। थोड़ी देर बाद फिर से आवाज आई....तैयार हुए की नहीं बिट्टू...? देखो...पेड़-पौधो को पानी देकर मंदिर भी जाना है....फिर काॅलेज...। सुबह के दस बज गये है। जल्दी करों...?

बिट्टू अगले पांच मिनट में तैयार हो कर आ गया और दुसरी तरफ प्रताप सिंह भी आंगन के पेड़-पौधो को पानी देकर जाने के लिए एकदम रेडी है।

चलो दादाजी.....प्रताप सिंह के हाथ में हेलमेट देकर...दुसरा हेलमेट खुद बिट्टू पहनते हुए कहता है...इसे पहल लिजिये दादाजी..! स्कुटर स्टार्ट कर....आईये दादाजी बैठिये...। प्रताप सिंह, हेलमेंट पहनकर बिट्टू से कहते हैं...मंदिर होते हुए चलना है बेटा....कोई भी शुभ ओर अच्छा काम करने से पहले भगवान के दर्शन जरूर करना चाहिए।

प्रताप सिंह और बिट्टू मंदिर के दर्शन करने के बाद सीधे काॅलेज पंहूचते हैं जहां नोटिस बोर्ड पर रिजल्ट लगा हुआ है....उसके सामने बच्चों की भीड़ है...एक दुसरे को धक्का देकर हर कोई नोटिस बोर्ड तक पंहुचने की कोशिश कर रहा है...बिट्टू, प्रताप सिंह से भीड़ के बाहर ही कहता है...दादाजी आप यहीं खड़े रहिये, भीड़ बहुत है...आप इस भीड़ में मत चलिये....मैं नोटिस बोर्ड पर रिजल्ट देखकर आता हूॅ। कहकर बिट्टू...भीड़ में खड़े काॅलेज के बच्चों के कंधे पर हाथ से पिछे की और धकेलते.हुए खुद आगे बढ़ता है, वह भीड़ को ऐसे चिरते हुए नोटिस बोर्ड के पास पंहुच जाता है, जैसे पानी में कोई पत्थर फेंके तो वह पानी की सतह को चिरकर तलहटी में चला जाता है। नोटिस र्बोर्ड के पास पंहुच कर बिट्टू अपनी जेब से रोल नंबर वाला नामांकन पत्र निकालता है ओर दुसरे हाथ रिजल्ट लिस्ट की तरफ करते हुए उंगली से अपना रोल नंबंर देखने लगता है। नोटिस बोर्ड पर लगी दो-तीन सुची में तीन-चार बार उंगली से उपर-नीचे देख लेने के बाद भी बिट्टू को अपना रोल नंबर इस रिजल्ट सुची में कहीं नहीं मिलता....उसके चेहरे से हवाईयां उड़ जाती है...वह अचानक खुद को असहज महसुस करने लगता है....और निराश सा चेहरा लेकर वापस भीड़ से टकराते हुए बाहर निकलता है। घबराता हुआ प्रताप सिंह के पास पंहुचकर....दादाजी रिजल्ट लिस्ट में कहीं भी मेरा रोल नंबर नहीं है..? 

प्रताप सिंह.....अरे क्या हुआ....इतना घबरा क्यूं रहे हो बिट्टू....रिलेक्ट रहो बेटा...गहरी सांस लो....आक्सीजन अंदर जायेगी तो घबराहट दुर हो जायेगी.....लेकिन....।

ठीक से देखा तुमने बेटा...होगा वहीं लिस्ट में होगा रोल नंबर....?

बिट्ट....नहीं है, दादाजी...मैनें....तीन-चार बार देखा...फैल और पास....दोनो लिस्ट में मेरा नंबर नहीं है।

प्रताप सिंह.....ऐसा कैसे हो सकता है....चलो....आफिस में चलकर पता करते है...रोल नंबर क्यूॅं नहीं है लिस्ट में...? आओ... कहते हुए बिट्टू और प्रताप सिंह दोनों आफिस की तरफ चल दिये।

कौन हैं यहां....कोई जिम्मेदार व्यक्ति है.......

आईये सर....कहिये....आफिस में टेबल के दुसरी तरफ ज़ोर-ज़ोर से खांसते हुए, संर्दी के मारे नाक बंद से बोलने की कोशिश करते हुए...हांफते-हांफते, पुरी तरह से चेहरा लाल, ओर एकदम बीमार बैठी महिला ने कहा।

मेरा नाम प्रताप सिंह है...और ये मेरा पोता बिट्टू है....आपके काॅलेज में ग्रेजुऐशन में पढ़ता है....लेकिन बाहर बोर्ड पर लिस्ट में इसका रोल नंबर ही नहीं है...देखिये.....बच्चे की हालत कैसी हो गयी.....घबराहट के मारे एकदम इसकी....कम से कम क्या रिजल्ट है..? वो तो लगाईये बोर्ड पर...?

सर्दी के मारे नाक से सुड़-सुड़ और साथ में हांफते-खांसते हुए.....साॅरी सर....आप बैठिये....सर बिट्टू हमारे काॅलेज का सबसे ब्रिलियंट स्टूडेंट है। और इसका रिजल्ट...खों...खों...(रूमाल से नाक पोछते और खांसते हुए) प्रिंसिपल सर के पास है....वो अखबारों में देने के लिए न्यूज बनवा रहें है....बिट्टू ने टाॅप किया है...पुर काॅलेज में बिट्टू फस्र्ट आया है। हमे गर्व है आपके पोते पर...वी आ...आ...आ...आर प्राउड आॅफ हिम...। मैं आपके बिट्टू के रिजल्ट की शीट का दुसरी काॅपी देती हूॅं....ये लिजिये...।

यह सब सुनते ही प्रताप सिंह के चेहरे पर सागरभर खुशी दौड़ गई...बिट्टू ने तुरंत प्रताप सिंह के पैर छू लिये...। अरे...अरे...जीते रहो बेटा...खुब तरक्की करो...देखा.....तु वैसे ही घबरा रहा था...काॅलेज में टाॅप किया है तुने...चल अब घर...वापस चलते हुए फिर से मंदिर में चलकर भगवान के दर्शन करना और फिर तेरे पापा अनिल को भी ये खुशखबरी देना। चल....और चेहरे पर अप्रतीम खुशी लेकर काॅलेज के आफिस से बाहर निकल गये।

उधर प्रताप सिंह के जाते ही आफिस में बैठी महिला ने दवाई लेने के लिए अपना पर्स खोला और दवाई खाने के लिए निकाली....और....है भगवान...कितना सर्दी-जुकाम....कहा से हो गया ये...डाक्टर की रिपोर्ट भी देखू...क्या आया है जांच रिपोट में......रिपोर्ट देखकर उसकी आॅंखें एकदम खुली की खुली रह जाती है..? ये क्या....रिपोर्ट में तो भयानक जानलेवा संक्रमित बीमारी की पाजीटीव रिपोर्ट.....?

उधर प्रताप सिंह और बिट्टू खुशी के मारे फूल के कुप्पा हुए जैसे घर पंहुचते है....और दोनो खाना साथ खाते हैं...खाने के बाद....बिट्टू अब में अपने कमरे मंे जा रहा हूॅं....कुछ थकावट हो जैसा लग रहा है....थोड़ी देर आराम करूंगा...कहते हुए प्रताप सिंह अपने कमरे की तरफ चल देता है और बिट्टू अपने दोस्तों को फोन कर काॅलेज में टाॅप करने की खुशखबरी देने लगता है।

शाम होते होते प्रताप सिंह के कमरे से कराहने की आवाज आने लगती है। बिट्टू यह सुन तुरंत अपने दादा के कमरे की तरफ भागता है, दादाजी....दादाजी...क्या हुआ.....जैसे ही वह कमरे में दाखिल होता है...देखता है कि.....!

प्रताप सिंह जोर जोर से सांसे ले रहा है.....ज़ुकाम के मारे सुड़-सुड़ और रह-रह कर खाॅंसी से हालत खराब है।

दादाजी आप ठीक तो हैं...क्या हुआ आपको..... प्रताप सिंह के हाथ पर बिट्टू अपना हाथ रखता है....अरे...दादाजी आप की तबीयत तो खराब है.....कितना गरम हो रहा है आपका शरीर......रूकिये मैं पापा को फोन करता हुॅं.....आपको हास्पिटल ले चलते है.....

हैलो.....पापा......, हाॅं, बिट्टू बोलो.......

पापा, दादाजी की तबीयत खराब है, आप जल्दी आईये, हास्पिटल ले जाना पड़ेगा......है भगवान...क्या हुआ बाउजी को....रूको मैं अभी आता हॅंू। अगले ही कुछ मिनटों में अनिल सिंह अपने पिता प्रताप सिंह के पास पंहुचता है.....क्या हुआ...बाउजी...आप ठीक हैं..? बिट्टू, जल्दी से कार निकालो....चलिये उठिये बाउजी....हास्पिटल चलते है.....! उधर प्रताप सिंह एकदम बेसुध...? जैसे-तैसे अनिल के कंधे का सहारा लेकर खड़े होते है और अनिल धीरे-धीरे के साथ कार की तरफ बढ़ते हैं, बिट्टू भी कार का दरवाजा खोलकर वापस आकर प्रताप सिंह को सहारा देकर कार मैं पीछे की सीट पर लेटा देता है।

अस्पताल पंहुचकर.....डाॅक्टर साहब......डाक्टर साहब...देखिये बाउजी को क्या हुआ....डाॅक्टर चेकअप करते है....इनको एडमिट करना होगा....सिवियर इंफेक्शन लगता है....आप जाईये काउंटर से एडमिट करने की प्रोसेस कर लिजिये....! अनिल सिंह पेशेंट भर्ती करने की सारी प्रक्रिया पुर कर लौैटकर क्या देखता है.....? प्रताप सिंह के मुंह पर आक्सीजन मास्क लगा हुआ है, हाथ में सलाईन की सुई लगी है....दिल की धड़कन देखने के लिए सीने पर ईसीजी मशीन की काॅर्ड लगी हुई है, और डाक्टर इंजेक्शन लगा रहे है....। तुरंत डाक्टर से पुछता है.... क्या हुआ बाउजी को, ठीक हो जायेंगे ना......! इनकी हालत बहुत सीरियस है..? पुरी बाॅडी में जनलेवा इंफेक्शन हुआ है...सांस लेने में दिक्कत है....आक्सीजन देना पड़ेगी, और हमारे हास्पिटल क्या.....शहर के किसी भी हास्पिटल में आक्सीजन नहीं हैं...इस बीमारी की वजह से सारे शहर में आक्सीजन की कमी है.....?

पास ही खड़ा बिट्टू यह सब बातें सुनता है, उसे बचपन की दादाजी की वो बात अचानक याद आ जाती है, जो उन्होनें बरगद का पौधा लगाते हुए कही थी....की ये बरगद हमे आक्सीजन देता है...।

 

कहानी- आक्सीजन

लेखक - डाॅ. मोहन बैरागी



कहानी - इंजेक्शन

 कहानी  

इंजेक्शन

(1)

‘नवीन‘ आज फिर अस्पताल से दो इंजेक्शन चुरा कर ले आया और अस्पताल के बाहर वाली दवाई की दुकान पर ऊँचे दाम में बेच दिये। उसकी इस करतूत को अस्पताल के बाहर मेन गेट के पास बैठी एक भिखारिन अपने बारह वर्ष के बेटे के साथ देख रही थी, क्योंकि यह ‘नवीन‘ का रोज का किस्सा है। वह सरकारी अस्पताल में कंपाउंडर के पद पर नौकरी करता है और अच्छी खासी तन्खाह उसे मिलती है, लेकिन ज्यादा धन की लालच में वह अस्पताल से दवाईयों की चोरी कर ऊँचे दाम में बेच देता है, उसके अंदर की मानवता कुंठित होकर शायद कहीं भीतर ही दब सी गई है। घर में एक छोटी बहन ‘रचना‘ है, जिसे वह अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करता है, उसका सपना है कि बहन कि शादी किसी अमीर डाक्टर से करेगा। लेकिन बहन एक पैर से पोलियोग्रस्त है, शरीर से एकदम दुबली-पतली बहन अक्सर बीमार रहती है..? भाई कंपाउंडर है तो गाहे-बगाहे बहन पर अपनी डाक्टरी झाड़ लेता है, बहन ठीक भी हो जाती है, नवीन को इस बात का अभिमान है कि वह ऐसी परिस्थितियों को भी आसानी से हेंडल कर लेता है। ‘नवीन‘ की सक्रीयता और अस्पताल में भर्ती मरीजों की अच्छी-खासी तीमारदारी की वजह से पुरा अस्पताल प्रशासन उसे ही ज्यादातर कामों की जिम्मेदारी देता है। अस्पताल में आज एक नए डाक्टर की पोस्टिंग भी हुई है..! मुख्य प्रशासनिक अधिकारी ने नवीन को बुलाया....‘नवीन‘......देखों, आज से नये डाक्टर साहब...डाॅ. विकास की पोस्टिंग हमारे अस्पताल में हुई है, अब तुम इन्हीं के अंडर में काम करोगे...आओ...तुमको ‘डाॅ. विकास‘ से मिलाये देते है..!

नमस्कार डाॅ. विकास....कैसे हैं आप...? मैं इस अस्पताल का चीफ एडमिनिस्ट्रेटिव आफिसर हँू.....और ये है ‘नवीन‘...कंपाउंडर। अब से यही आपको असिस्ट करेगा।

आईये....आईये...मैं ठीक हँू...! आप कैसे है.....और ‘नवीन‘ तुम कैसे हो....।

डाक्टर ‘विकास‘ की कुर्सी के पास पड़ी बेसाखी देख.....‘नवीन‘ कुछ पलों के लिए गुम सा हो गया और फिर संभलते हुए बोला.....मैं ठीक हँू सर....। आप कैसे हैं...? पुछते हुए उसकी निगाह डाॅक्टर ‘विकास के पैरो की तरफ दौड़ गई....! उसे एक पैर कुछ पतली लकड़ी जैसा दिखा.....‘नवीन‘ से रहा न गया और, आँखों में तैरते सवाल को उसने ‘डाॅ. विकास‘ तरफ उछाल ही दिया....? सर..., ये बेसाखी....?

हाँ....‘नवीन‘......, ‘पोलियोमाईलाईटीस‘..? तुम तो जानते ही हो इस बीमारी को....जो ज़िंदगीभर के लिए टीस देती है...! ‘पोलियो....‘।, मैं ऐसा डाक्टर हँू जो दुसरों को बीमारी से निजात दिलाकर दौड़ता कर देता हूँ और खुद इस बेसाखी के सहारे चलता हूँ?(कुर्सी के पास पड़ी बेसाखी को हाथ लगाकर)। अगले ही पल खुद को मजबुत करते हुए ‘डाॅक्टर विकास‘ ने कहा- छोड़ो ये सब, तुम मुझे मेरे वार्ड में भर्ती मरीजो की फाईलें बताओं...कितने मरीज भर्ती हैं और क्या बीमारी है इनकी....ज़रा देख लूं....और लग जाएं सेवा में...।

‘नवीन‘ कहीं खो-सा गया था....उसे अपनी बहन के लिए जैसे दुल्हा मिल गया मानो....उसके दिमाग में इस समय और कुछ नहीं, बस अपनी बहन के सुनहले भविष्य के सपने पलने लगे थे जैसे....। तभी वह अचानक चैंका...जैसे उसे किसी ने आवाज लगाई हो....‘नवीन‘.....‘नवीन‘....कहां खो गए भाई.....लाओ फाईलें लाओ सब...। जी, अभी लाया डाक्टर साहब....। वार्ड भी भर्ती मरीजों की सभी फाईलें डाॅक्टर को दिखाने के बाद निर्देशानुसार मरीजों को दवाई देकर उसकी ड्यूटी खत्म कर घर पँहुचे ही....,कहाँ हैं मेरी प्यारी बहना.....रचनाआआ....ओ रचनाआ...., जी आई भय्याआआ....बेखासी के सहारे लंगड़ाते हुए ‘रचना‘....क्या बात है...? आज बड़े खुश दिखाई दे रहे हो.....? हाँ, आज मुझे तेरे उजले भविष्य के लिए उम्मीद की किरण दिखाई दी। इसलिए आज खुश हँू.....भगवान करे, तेरा घर बस जाएं.....तु दुल्हन बने.....तेरी डोली सजे....मैं खुब नाँचू-गाऊ..!, पगली.....तेरे ब्याह के ख़याल से खुश हूँ। एक बहुत अच्छा लड़का देखकर जल्दी तेरी शादी कर दूंगा। आज तो अस्पताल में लगा, जैसे मेरी ये इच्छा जल्दी ही पुरी हो जायेगी।

हाँ.. हाँ.., मैं बोझ जो हूँ आप पर....लंगड़ी, बेसाखी घसीटकर चलने वाली....बीमार रहने वाली....कौन नहीं चाहेगा ऐसे इंसान से छूटकारा..? आँखें छलकाते बोल पड़ी।

अरे...नहीं पगली.....हर भाई का सपना होता है....उसकी बहन की शादी किसी अच्छे लड़के से हो....वो महलों में जाये....राज करें....और फिर मैं तूझे ऐसे थोड़ी कहीं भी ब्याह दूंगा.....किसी अच्छे राजकुमार से ब्याहुंगा....तु मझसे दूर नहीं होगी....पगली....मैं हँू न तेरे साथ....चल अब खाना लगा दे...बहुत भूख लगी है। दोनो भाई बहन खाना खाकर अपने अपने कमरे में सोने चले जाते है...लेकिन ‘नवीन‘ की आँखों में बहन के ब्याह कि चिंता से तो ‘रचना‘ की आँखों में भाई की परेशानी की वजह से रातभर नींद नहीं आती। आँखों ही आँखों में रात गुज़र जाती है।

(2)

अगले दिन सुबह रोज़ की तरह ‘नवीन‘ डाक्टर के चार्ट के हिसाब से वार्ड के सभी मरीजों को दवाईयां देकर पेशेंट शीट में इंट्री करने के बाद दवाइयों के स्टोर रूम में जाकर सबसे नज़रे चुराते हुए चुपके से कुछ महंगे इंजेक्शन जेब से रूमाल निकालकर उसमें पोटली बनाकर वापस जेब में ठंूस देता है, मेहनती और लगनशील होने की वजह से उसका अस्पताल के हर हिस्से में आना जाना आसान है, कोई उस पर शक नहीं करता...? वह अस्पताल के कंपाउंड से बाहर जा रहा ही होता है कि उस भिखारिन की नज़र फिर ‘नवीन‘ पर पड़ती है....आज ‘नवीन‘ की शारीरिक मुद्रा में कुछ अजीब सी बैचेनी झलक रही है, मेने गेट से बाहर निकल ही रहा होता है कि अचानक उसके मोबाईल की घण्टी बज उठती है.....टननटनन......टननटनन....हड़बड़ाहट में जेब में हाथ डालकर मोबाईल निकालता है......तभी जेब में रखी इंजेक्शन की पोटली नीचे जमीन पर गिर जाती है....‘नवीन‘ को इसका ध्यान नहीं रहता......हेलो....हेलो......दुसरी तरफ से......‘नवीन‘...‘नवीन‘....सुनो.....तुम्हारी बहन को हमारे अस्पताल में एडमिट किया है....उसे हार्ट अटेक आया है.....उसकी हालत ज्यादा सीरियस है...हमने ‘डाॅ. विकास‘ को काॅल किया है...वो आ रहे हैं.....तुम जल्दी आओ वार्ड में....? यह सुनकर ‘नवीन‘ के पैरो तले जैसे जमीन खिसक गई....एक पल के लिए जैसे उसकी दुनिया ही लुट गई...अगले ही पल होश संभालते हुए....दौड़कर वार्ड में जाता है......रचना.....रचना......मेरी बहन....क्या हुआ तुझे....? तु चिंता मत कर सब ठीक हो जायेगा.....मैं हूँ ना यहाँ......तुझे कुछ नहीं होगा मेरी बहन....। तभी डाॅक्टर विकास आकर ‘रचना‘ को देखते हैं....अपना आला लगाकर ‘रचना‘ की धड़कने चेक करते हुए......‘नवीन‘ जल्दी से आईसीयू में ले चलो....वेंटीलेटर पल लेना होगा....हालत ज्यादा खराब लगती है...सीवियर अटेक हुआ लगता है.......डाॅ. साहब, ये मेरी छोटी बहन है....इसे बचा लिजिये...मैं आपके हाथ जोड़ता हूँ...प्लीज....! हाँ...हाँ...सब ठीक होगा, तुम जल्दी करो...पेशेंट को आईसीयू में शिफ्ट करो....कुछ इंजेक्शन लिखता हँू...इन्हें जल्दी से अस्पताल के दवाई स्टोर से लेकर आओ, तुरंत लगाना होंगे...! ‘नवीन‘ रचना को आईसीयू में शिफ्ट कर अस्पताल के दवाई स्टोर में इंजेक्शन लेने भागता है, वहाँ पंहूचकर देखता है कि डाॅक्टर के इंजेक्शन स्टोर में नहीं है.....हड़बड़ाहट में उसे कुछ समझ नहीं आता...., वह तुरंत इंजेक्शन के लिए अस्पताल के बाहर के मेडिकल स्टोर की तरफ भागता है.......मेने गेट सामने जैसे ही पहँूचता है......सामने वह भिखारिन हाथ में रूमाल की पोटली लिये खड़ी है....जिसमें वहीं इंजेक्शन है...जो डाक्टर ने ‘रचना‘ को लगाने के लिए लिखे थे। भिखारिन उसे बिना कुछ कहे पोटली दे देती है.....! ‘नवीन‘ आईसीयू में आकर नर्स को इंजेक्शन देते हुए ग्लानि से दहाड़े मारकर रोने लगता है।


कहानी- इंजेक्शन

लेखक - डाॅ. मोहन बैरागी


कहानी - गड्ढा

 कहानी  

गड्ढा


तुफान सिंह बेहद गरीब परिवार का एकलौता लड़का है, घर में माँ और एक बहन है। पुरा मजदुरी कर अपना गुजर बसर करता है। तुफान सिंह को शराब की लत है। हर रात को शराब के नशे में धुत्त रहता है तो दिन में मजदुरी करते हुए भी शराब का सेवन कर लेता है। तुफान सिंह की गरीबी उसकी टुटी बिखरी छप्पर वाली छत, जो सिर्फ सर ढंकती है और कच्ची दीवारों वाला एक कमरे का घर बयां करती है। तुफान सिंह करीब तीस साल का नौजवान है। घर का खर्चा पुरे परिवार की कमाई से चलता है। परिवार की स्थिति अत्यंत दयनिय है, गरीब बस्ती में सड़क के आखरी में किनारे पर बना घर, जो तुफान सिंह के पिता ने बनाया था, इसी में पुरा परिवार रहता है। पिछले हफ्तेभर से तुफान सिंह काम पर नही गया है, उसकी बुढ़ी माँ और बहन मिलकर घर खर्च चला रहे है। माँ की इच्छा है कि उसकी लड़की की शादी किसी कमाने-धमाने वाले नेक लड़के से हो जाये। आज भी माँ और बहन फटे उघड़-ढके चिथडे़नुमा कपड़ो में मजदुरी कर घर जैसे ही आये हैं, उन्हें तुफान सिंह जमीन पर पड़ा बड़बड़ाते मिलता है.....! 

आज भी तुने दारू पी है....कितना पियेगा....पी...पी...के मर जायेगा....? (तुफान सिंह की माँ)

पीना हहहहह....है तो पीना हहहहह...ह....है...लाला....ला...लाला...ला....मरने से कोन डरता है...? (तुफान सिंह)

पी....नास पिटे......पी और मर जा...बाप के जैसा....? मुझे भी मर मर के ही तो जीना है.....छोटी की शादी करना है.....बड़ी मुश्किल से मजूरी कर कर के पैसे जमा कर रही हूँ, के कोई अच्छा मेहनत करने वाला लड़का देख के इसके हाथ पिले कर दूं। तु तो बस दारू में ही मर.....तेरी कोई जिम्मेवारी नहीं है, छोटी के लिए....?

क्या.....तु.....पैसे जमा कर रही है.....हरामखोर....? मेरे उपर इतना कर्जा है.....कलाली वाले का....बीड़ी-तंबाकू वाले का....? और तु छुपा-छुपा के पैसे जमा कर रही है...? कर देंगे छोटी की शादी भी....मुझे भी फिकर है....मेने देखे भी है...एक दो लड़के इसके लिए.....कल ही शाम को विक्रम के साथ उसका दोस्त आया था कलाली पे...बड़ा अच्छा लड़का है....मैं सब कर दूंगा....? (तुफान सिंह)

तभी बीच में छोटी बोल पड़ी....माँ थक गये.....अभी रोटी भी बनानी है....तुम दोनो क्यो लड़ रहे हो....हो जायेगी शादी-वादी...! रोज़-रोज़ तुम दोनो लड़ते हो....देखना मैं खुद भाग जाऊंगी किसी के साथ....?

पड़ा रहने दो इसको दारू के नसे में....? मैं जा के रोटी बनाती हँू।....मर...तू ऐसे ही.....तुफान सिंह की तरफ गुस्से से देखते हुए कोने में चार ईंट के बने चुल्हे के पास जाकर चुल्हा जलाने की तैयारी करने लगती है।

नास पिटे ने जिंदगी नास कर दी....ना खुद जीता है....न दुसरों को चेन से जीने देता है....? (तुफान सिंह की माँ)

तुफान सिंह नशे की हालत में लड़खड़ाते हुए उठने की कोशिश करता है....और ......बता...पैसे कां छुपाऐ.....बता....नई तो माड् डालूंगा...बता. लड़खड़ाते हुए अपनी माँ की तरफ बढ़ता है कि उसकी माँ उसे एक हाथ आगे कर धक्का देती है, अगले ही पल तुफान सिंह फिर जमीन पर गिर जाता है....और बड़बड़ाते हुए....माआआआ....ड् डालूंगा..?

इधर तुफान सिंह की छोटी बहन ईट के बने चुल्हे में कुछ लकड़िया सुलगाकर चुल्हा जलाकर रोटी बनाने के लिए आटा मसते हुए उसमें मिलाने के लिए डिब्बों में नमक ढूंढने लगती है....नमक का डिब्बा खाली है.....माँ नमक नहीं है....खाली पड़ा है डिब्बा....?

चार दिन पहले तो लाई थी चार नमक की थैली.....लगता हैं वो भी इस नास पिटे हराम के पिल्ले ने बेच दी होगी...! बिना नमक के बना ले.....चेहरे पर परेशाली और झल्लाहट के भाव लिये तुफान सिंह की माँ ने कहा...। थोड़ी देर बाद दोनों माँ-बेटी बिना नमक की रोटी मिर्ची के साथ खाकर एक चटाई पर पास-पास सो जाते है। अगले दिन सुबह......

तुफान सिंह की माँ जैसे ही उठती है....देखती हैं कि.....उसकी बेटी भी नहीं है....और तुफान सिंह भी गायब है..? एक कमरे का घ बिखरा पड़ा है....? वह तुरंत उठकर छप्पर की तरफ देखती है.....कच्चे छप्पर में नीचे से बनाए एक गड्डे नुमा जगह से मिट्टी सरक कर निचे गिर रही है.....वह चैंक जाती है....उसके मुँह से निकलता हैं....हे राम....मेरे पैसे...मेरे पैसे.....?

वो तुरंत उठकर देखती है....उस गड्डे में अपना हाथ डालकर चारो तरफ घुमाती है...गड्डा खाली....उसके आँसू निकलने लगते है और मुंह से गालियां...। हरामी.....कुत्ता.....नास पिटा.....दारू पिने के वास्ते मेरे सारे पैसे चुरा ले गया, बड़ी मुस्किल से थोड़ा-थोड़ा जमा कर बेटी की शादी के लिए दस हजार रूपे एकट्टठा किये थे.....? तुफान सिंह की माँ अपनी फटी साड़ी का पल्लू कांधे पर डालकर, बिखरे बाल और मलिन जैसी हालत में ही घर के बाहर दौड़ लगा देती है......और भागकर बस्ती के बाहर कोेेेई सो मीटर दुर सड़क किनारे कलाली पहँुचती है....सुबह का वक्त है....कलाली पर शराबियों की भीड़ और पास ही खुले अहाते में कई लोग दारू पीने में मस्त हैं...एक-एक कर सब पर नज़र दौड़ाती है..... तभी एक किनारे पर कोने में मिट्टी से लथपथ लेटा तुफान सिंह का दोस्त विक्रम दिखाई दे जाता है.....क्यों रे...विक्रम....नास पिटे....कां है...तुफान.....तुने सब नास मार दिया मेरे छोरे का......कां हैं.....तुफान बता....?

तुफान दारू पिने आया था.....कलाली पे.....उधार चुकता करके...उसने खुब दारू पी......और मेरे दोस्त को जान से मारने के लिए ढूंढने गया है......मुझे भी मारा.......मैं छोडुंगा नही तुफान को.........तेरी छोरी.....मेरे दोस्त के साथ भाग गई है.......? (विक्रम सिंह)

सुनते ही तुफान सिंह की माँ के पैरों तले ज़मीन खिसक गई.....? दहाड़े मार कर रोने लगी.....ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगी.....मैं मर गयी....बरबाद हो गई......कहीं का नहीं छोड़ा इन दोनों भाई-बहन ने.....? और रोते-रोते.....वापस अपनी छोपड़ी नुमा कच्चे मकान में आकर एक कोने मैं गुमसुम सी बैठकर....छप्पर के नीचे बने बस गड्ढे को निहारने लगी.....जिसमें बेटी की शादी के लिए पैसे जमा कर रखे थे।


कहानी- गड्ढा

लेखक - डाॅ. मोहन बैरागी


कहानी - चिड़िया

 कहानी  

चिड़िया


पंछीयों के चहचहाने की आवाज़ चारो और से ज़ोर ज़ोर से आ रही है....चैं....चैं...चैं......पी......पी......पी.....पीईईई......! घर के भीतर चारो और कुछ पछंी इधर उधर चहचहाते आवाज़ करते हुए उड़ रहे है। तभी..............आहहहह......ये किसने फेंका ग्लास.....कितनी ज़ोर से लगी हैं...? चश्मा टूट गया। आहहह.... ना जाने क्या है इस घर में....हर कोई चीज़े उठा-उठाकर फेंकता रहता है.......विद्याआआआआ.......अरे ओ विद्याआआ.....देखो माथे में कपाल के कोने से खुन निकलने लगा... स्यअआआआ....घुम्मा उठ गया, चश्मा अलग टूट गया....? विद्याआआआ....अअआआआहहहह.....विद्या........मैं यहाँ दर्द के मारे मरा जा रहा हूँ......कहाँ हो तुम..? लखीराम शर्मा ने दर्द सहते हुए.........एक हाथ से टूटे चश्मे को जोड़ने की कोशिश करते हुए, दुसरा हाथ चोट पर प्रेशर से रखकर अपनी पत्नी को फिर आवाज़ दी....! विद्या....कहाँ हो....लाओ ज़रा कपड़ा और काॅटन दो....अअआआआहहह....और कितने दर्द सहना है...इस उम्र में अब....?

क्या हुआआआ.....पंछियों से बचते हुए, उन्हें श्श्शशशशश.....फुर्रर्रर्र.....आवाज़ के साथ हाथ का इशारा कर भगाते हुए दौड़कर विद्या कमरे मंे दाखिल होती है। अरे....क्या हुआ......? मैं किचन में थी.....! ये चोट कैसे लगी आपको.....देखू तो.......है भगवान....इसमें से तो खून निकल रहा है....! तुरंत अपनी साड़ी का पल्लू उठाकर कोने को इकट्ठा कर एक पोटली बनाई और लखीराम के माथे पर रखते हुए........साड़ी के उस पोटली वाले कोने को फाड़कर....लो पकड़ो इसको...ज़ोर से दबाकर रखो.....मै क्रीम पट्टी लेकर आती हूँ....! तुरंत भागकर पट्टी क्रीम हाथ में लेकर लौटी और क्रीम लगाते हुए.......ये अरूण को पानी देने में ज़रा देर क्या हुई...चीज़े फंेकना शुरू कर देता है....? हे भगवान कैसा नसीब दिया है....शादी के आठ साल बाद एक बेटा दिया वो भी बीमार.....? तीस साल का होने को आया...अभी तक....बीमारी नहीं गई....कब बड़ा होगा ये....कब ठीक होगा......आँखें नम करते हुए.....ऐसी ज़िंदगी भी ज़िंदगी है.....जिसे हम दोनों के बुढ़ापे का सहारा बनना चाहिये....उसे अब तक हमारे सहारे की ज़रूरत है...? तभी दुसरे कमरे से आवाज़ आई.......

मम्मीमीईईई.....मम्मी......मम्मीमीमीईईई.......पानीनीईईई.....पानी पीना है...प्यास लगी है....टीशर्ट पायजामा पहने हल्की दाढ़ी बिखरे हुए बाल, आँखों पर मोटा चश्मा, गोरे रंग का दिखने वाले दिवार से सटे पलंग पर बैठे अरूण ने फिर आवाज़ लगाई....। मम्मीमीईईई.......पानीनीईईई......!

लखीराम के सर पर पट्टी बांधकर.....लो.....बंध गई पट्टी.....वहाँ अलमारी में दर्द की टेबलेट पड़ी है उसमें से आप टेबलेट ले लो, उससे दर्द नहीं होगा....और शाम को जाकर डाक्टर से टिटेनस का इंजेक्शन भी लगवा आना। मैं देखती हँू...अरूण पानी के लिए चिल्ला रहा है....ऊपर से ये चिड़ियों का शोर....पुरे घर को जंगल बना के रखा है आपने....? विद्या तुरंत अरूण के कमरे में जाकर उसे पीने का पानी देते हुए गुस्से से कहती है.....क्यो रे........तु हमारी जान लेकर ही मानेगा क्या....देखा तुने......सर फोड़ दिया तुने पापा का.....कितना बड़ा घुम्मा सा हो गया.....चश्मा टूटा सो अलग......तंग आ गए हैं तेरी हरकतो ंसे....चीजे़ उठाकर तोड़ने का शौक हैं न.....आँखें चैड़ी करते हुए डांटते हुए....एक हाथ से अरूण का पानी पिला दुसरे हाथ को माथे पर फेरते....स्वर बदलते हुए.....बेटा अब तु बडा हो गया है....काबू क्यों नही रखता खुद पर.....? क्यों इतना गुस्सा करता है....? इसी गुस्से की वजह से बार बार बेहोश हो जाता है....? लड़खड़ाकर चलता है....कितना ईलाज करवा चुके है तेरा....बड़े-बड़े नामी डाक्टरों को दिख दिया....फिर भी तेरी मानसिक, शारीरिक हालत ठीक नहीं होती....? बेटा अपने अंदर आत्मविश्वास पैदा कर....तु ठीक है....खुद को एैसा समझ....तेरी ऐसी हालत से हम दोनो पति-पत्नी पर क्या गुज़रती है....सोचा कभी.....? अच्छा चल....मैं चाय बनाकर लाती हूँ....पलंग के बगल में पड़ी टेबल पर पानी का ग्लास रखते हुए.....दुसरे हाथ में साड़ी के पल्लु से नम आँखों को पोछते हुए विद्या चली जाती है। 

उधर लखीराम शर्मा टूटे चश्में को हाथ में लिए सोचने लगते हैं........पुरे जीवन कोई बुरा काम नहीं किया....ईश्वर की उपासना की.....सात्विक जीवन जीया.....पर्यावरण विभाग में रहते पशु-पक्षियों से इतना प्रेम किया कि रिटायरमेंट के बाद आज भी पुरे घर आँगन में पक्षी चहचहाते हैं....रोज़ इनको दाना पानी देता हुँ....गाय को चारा खिलाता हँु......जीवन में एक पैसे का दाग़ नहीं.....विभाग के लोग आज भी मुझे याद करते हैं कि कोई अफसर था हमारा भी......! अपने सर को ऊँचा कर....जैसे ऊपर वाले से भरे मन से सवाल हो....हे भगवान....ये कैसी ज़िंदगी दी है.....एक बेटा दिया.....वो भी......? कम से कम इसकी बेहोशी को तो ठीक कर दे...? एक बार बेहोश पर चैबीस-चैबीस घण्टे तक होश नहीं आता...? 

हिम्मत हार चुके हारे हुए एक पिता की तरह......आँखंे बंद कर गहरी साँस लेते हुए.....खैर......जो प्रभु इच्छा....! पंछियों को दाना-पानी देने का समय हो गया है.....बेचारे भूखे होंगे....? दे आंऊ। लखीराम शर्मा आंगन में आकर मुख्य द्वार पर दरवाजे़ की चैखट के ऊपर फर्शी पर पानी के एक छोटे टब में पंछियों के लिए पानी भरकर वहीं पास में कुछ दाना बिखेर कर...आंगन में एक कोने में नीचे भी पंछियों के लिए दाना बिखेर कर लौट आता है। लखीराम शर्मा के कोई दो दर्जन से ज्यादा पक्षी दरवाजे़े की मुंडेर पर....खिड़की के कोने में, दिवार के सहारे लगे पाईप के ऊपरी कोने में तो आंगन में लगे पेड़-पौधो पर मंडराते रहते है। इनमें से कई पक्षी घर के भीतर भी कमरों में यहाँ-वहाँ उड़ते रहते है। लखीराम की पत्नी इनसे काफी परेशान है। एक बार वह दरवाजे़ की चैखट के ऊपर बने घोंसले को कचरा समझ फेंक भी आई थी......?, जिसमें चिड़िया के अंडे थे, जिनसे बच्चे निकलने वाले थे। विद्या को वह घटना आज भी कहीं न कहीं भीतर से परेशान करती है।

दिनभर की रूटीन के बाद शाम को खाना बनाकर पति और बेटे को खिलाकर विद्या आराम करने चली जाती है.....लेकिन उसे देर रात तक नींद नहीं आती....अजीब सी बैचेनी मन में है....कुछ अजीब घटना होने के संकेत जैसे मिल रहे हों....? 

अगले दिन सुबह......विद्या आज उठने में लेट हो गई, आँख खुलते ही....अलसाई सी उठकर कमरे से बाहर आकर देखती है, लेखीराम चिड़ियों को दाना डाल रहे हैं......! ‘आज जल्दी उठ गये क्या आप....?‘, नहीं आज तुम देर से उठी हो....! मैं नहाकर, पुजा पाठ करके पौधों को पानी दे चुका हँू, बस अब पक्षियों को दाना डालकर अखबार पढ़ना है...तब तक तुम ज़रा चाय बना लाओ....!

विद्या अपनी साड़ी ठीक करते हुए किचन की तरफ चली जाती है। तभी आवाज़ आती है......मम्मीमी...च...चायय....!

अरूण लड़खड़ाते हुए पलंग से उठता है और चलने की कोशिश करने लगता है.....आंशिक विकलांगता के कारण लंगड़ाते-लड़खड़ाते हुए दिवार से टकराते जैसे-तैसे बाहर की तरफ बढ़ता है....!

अरे.....अरूण बेटा...तुम क्यो उठे पलंग से.....तुम्हारी मम्मी चाय बनाकर ला रही है....हम दोनो साथ पियेंगे...! कहते हुए लखीराम दरवाजे पर अरूण का सहारा देने लगते हैं.....अरूण दरवाजे से बाहर निकलने की मुद्रा में खुद को खींचकर बाहर करना चाहता है। अच्छा...अच्छा...चलो...आंगन में बैठकर चाय पियेंगे...। जैसे.....दोनो दरवाजे़ की चैखट के बाहर होते हैं....अरूण यकायक जमीन पर गिरकर बेहोश हो जाता है। अरे....बेटा....बेटा......अरूण....गाल पर थपकी मारते हुए...जगाने का प्रयास करते लखीराम......!

सु...न...सुनो......सुनो....विद्या.....देखो, अरूण फिर बेहोश हो गया....जल्दी आओ.....?

क्या हुआ......भागते हुए विद्या दरवाजे़ पर पहँूची....अरे....आँख में आँसू लिए.....अरूण...बेटा अरूण.....हे भगवान.....ये क्या हो रहा है....सारी विपदा हम पर ही क्यों आन पड़ी......उठो बेटा.....देखो मैं चाय बना लाई तुम्हारे लिए......अरूण....सुनो, लगता है फिर अरूण को अस्पताल ले जना पड़ेगा।

लखीराम और विद्या आपस में बात कर ही रहे होते हैं कि तभी अचालक चिड़ियों का शोर सुनाई देता है....? ऊपर चिड़ियों का एक झुण्ड इकट्ठा हो जाता है और ज़ोर ज़ोर से चहचहाने की आवाज़ आने लगती है.....विद्या को उनकी आवाज़ कर्कश लगती है ओर ऊपर की और देखते हुए हाथ से झुण्ड को भगाने का प्रयास करती है, फिर अरूण की तरफ उसका ध्यान जाता है......कुछ पल बाद देखती है ऊपर से पानी की धार गिर रही है....जो अरूण के चेहरे पर गिरती है.....विद्या और लेखीराम अरूण को झूंझलाते हुए होश में लाने का प्रयास कर रहे होतेे है, तभी अरूण हाथ पैर हिलाने लगता है.....और चेहरे पर गिर रहे पानी से चेहरे को बचाने का प्रयास करता है। यह देखकर विद्या और लेखीराम अचानक से खुश होने लगते है, जैसे उन्हें मनचाहा वरदान मिल गया हो... उनका बेटा अरूण जो होश में आ गया था। 

विद्या को समझते देर न लगती है...कि ऊपर से पानी कहाँ से आया.....वह तुरंत उठकर देखती है....दरवाजे के चैखट के ऊपर चिड़ियों के जल पात्र को आड़ा पड़ा देखती है...उसके आस-पास काफी सारी चिड़िया बैठी है.....उसे ग्लानि होने लगती है....और याद आता है....वह घोंसला जिसे विद्या ने कचरा समझकर फंेक दिया था और उसमें चिड़िया के अण्डे थे।


कहानी- चिड़िया

लेखक - डाॅ. मोहन बैरागी


कहानी - अंतिम तर्पण आनलाईन

 कहानी  

अंतिम तर्पण आनलाईन

शमशान घाट के हर चबुतरे पर लाशें जल रही हैं, कुछ लाशें खाली पड़ी जगहों पर जल रहीं हैं तो कुछ के अंतिम संस्कार की तैयारी चल रही है,  घाट पर खडे लोग इंतज़ार में हैं कि कुछ चबुतरे खाली हो तो दुसरी लाशों का अंतिम संस्कार हो सके। विडंबना कि मरने के बाद भी सुकून से जलना नसीब नहीं इन लाशों को....? शहर के हर शमशान की यही हालत हैं....भरे पड़े हैं लाशों से...? लाशों से उठते धुएं से आसमान भर गया और आँखों में धुंध सा धुंआ लेकर भीषण गर्मी में माथे पर सफेद कपड़ा लपेटे बनियान व धोती पहने मुख्य शमशान घाट में एक चबुतरे पर बिखरी पड़ी राख में अस्थियां ढुंढते हुए विजय की आँखों से अकस्मात आँसू झरने लगे, भीतर की संवेदना उमड़कर बाहर आ रही है, मस्तिष्क में विचारों का समंदर तैर रहा है, जैसे दुनिया सिर्फ गारे, मिट्टी की और अंतिम सत्य यही है, क्यूं न मैं भी इसमें समा जाऊ..? यह चबुतरे की राख और मैं एकाकार होकर सदैव साथ रहें। शरीर बिल्कूल सुस्त सा....! मानो सिर्फ हाड़-मांस का पिंजड़ा हो..? कुछ इस तरह की हालत में एक-एक कर छोटी अस्थियों को स्टील के लोटे में डालते हुए उसके मन को पहाड़ सी पीड़ा घेर रखा था, हो भी क्यों न...? ये अस्थियां उसकी स्वर्गवासी माँ की थी, जिसकों गुज़रे अभी तीन दिन ही हुए थे। सबसे बड़ा बेटा होने के नाते विजय ने ही माँ की चिता को मुखाग्नि दी थी। कोई दो सप्ताह अस्पताल में बीमारी से जंग लड़ने के बाद माँ की मौत महामारी की वजह से हुई थी। विजय का दुःख तब और बड़ा हो गया जब रह रह कर बार-बार उसके ज़हन में ख्याल आ रहा था कि किस तरह अस्पताल में पलंग उपलब्ध नहीं था, शहर के सारे अस्पताल मरीजों से भरे पड़े थे..? तब अपने प्रभाव और पहचान का इस्तेमाल करते हुए मिनिस्टर के फोन लगाने पर अस्पताल में एक अदद पंलग मिल पाया था। प्रकृति का मज़ाक या प्रकृति से किये मज़ाक का परिणाम है कि सारी दुनिया इस समय महामारी की चपेट में....और हालत इतनी भयावह कि अस्पतालों में मरीजों के लिए जगह नहीं, मौतें इतनी की शमशान में अंतिम संस्कार के लिए जगह नहीं.....इस विकट समय में झुझते हुए इससे लड़ने के सिवा करें भी तो क्या...? पास खड़े दो छोटे भाई और साथ आये चाचा भी रूंवासे से चबुतरे के पास आकर अस्थियां बिनने में विजय की मदद करते हुए कहने लगे...बस....बस...कुछ खास अस्थियां ही चुनना है....बाकी राख समेटकर नदी में प्रवाहित करना पड़ेगी....जल्दी करों.....और लोग खड़े है....कितनी लाशे पड़ी हैं अंतिम संस्कार के लिए....? चलो, पंडित जी इंतज़ार कर रहे हैं घाट पर पिण्डदान और दुसरी अंतिम क्रिया करना है! विजय एक हाथ से लोटे को पकड़े अपनी धोती संभालते हुए चबुतरे से विलग होने की मुद्रा में होता है....लेकिन अंतरआत्मा उसे बार-बार कह रही हो जैसे कि अपनी माँ को यूँ छोड़कर न जा...? अगले पल खुद को संभालते हुए वह कहता है...चलो....और क्या सामान चाहिये पंडित जी को सब लाये हैं न...?, आटा...नारियल.....तेल...पत्ते....दीपक...अगरबत्ती...और जो भी लगना है...? विजय अपने दोनो छोटे भाई और चाचा के साथ शमशान घाट से नदी किनारे दुसरे घाट की और चल दिये कि तभी विजय के मोबाईल की घंटी बजती है। ट्रिन...ट्रिन....ट्रिन...ट्रिन... हेलो...., हाँ कौन....?, ‘‘मैं पंडित अनिल त्रिवेदी बोल रहा हूँ....यजमान आपकी माताजी का तर्पण नदी के घाट पर नहीं किया जा सकता....? कलेक्टर साहब के नये आदेश आए हैं.....सभी पंंिडतों को घाट पर कोई भी क्रियाविधी करने को मना किया गया है...? महामारी का हवाला देकर घरों से निकलने को रोका जा रहा हैं..? घाटों पर पुलिस का पहरा लगा दिया है...अब आप ही बताएं यजमान.....क्या किया जाये...?‘‘, ‘‘विजय चैंककर बोला.., क्या इसका कोई उपाय नहीं...?‘‘, ‘‘पंडित अनिल त्रिवेदी ने जवाब दिया.....क्या कलेक्टर और सरकार के फरमान का उल्लंघन करंेगे यजमान...?‘‘ देखा नहीं...? पुलिस घाट से पंडितों को उठा-उठाकर कैसे अपराधियों जैसे गाड़ी में ठूंसकर जेल भेज रही है.....? यजमान...ये तो जीते जी, हमारे तर्पण हो जाने जैसी स्थिति हो गई है.....? कुछ चिंता के भाव लेकर फिर बोला....आप चिंता न किजिये....पहले आप यहाँ आईये तो....! फिर कोई विचार कर रास्ता निकालते है। तभी विजय के छोटा भाई बोल पड़ा...रास्त क्या निकालेंगे.....माँ का तर्पण करना है...ये कोई तानाशाही है क्या...? हम अपनी माँ के तर्पण की क्रिया मुख्य घाट पर ही करेंगे...जहाँ करते हैं..! विजय भैय्या....देखो तो...ये भी कोई बात हुई..? विजय के मन में तो जैसे विरक्ति ने वास कर लिया था...? एक तो माँ से अत्यधिक लगाव और उस पर मौत के बाद की परेशानियाँ, मुश्किल भरा अंतिम संस्कार और अब तर्पण की क्रिया के लिए भी मनाही...? उदास मन से छोटे भाई को प्रतिक्रिया देते हुए....तु रूक मैं बात करता हँू कलेक्टर साहब से...। तर्पण करने वाले घाट की और जाते हुए चलते-चलते विजय के एक हाथ में लोटे मंे माँ की अस्थियाँ तो दुसरे हाथ से मोबाईल निकालकर कलेक्टर को काॅल लगाने कि कोशिश.....! ट्रिन....ट्रिन, ट्रिन...ट्रिन....

साथ चल रहे....चाचा और दोनों छोटे भाईयों ने कुछ गुस्से से पुछा.....?, क्या हुआ....कलेक्टर साहब मोबाईल नहीं उठा रहे....? उनका गुस्सा स्वाभाविक भी था। लेकिन सरकारी फरमान मानना भी जरूरी था....! महामारी भी एैसी फैली कि....न ठीक से जीने दे रही और न मरने के बाद सुकून ही नसीब...? तभी नासमझी का पर्दा आँखों से हटाते हुए चाचा ने कहा....विजय मंत्री जी को फोन लगाओ.....उन्हीं से कहो....माँ के अंतिम तर्पण की क्रिया करना है.....तो क्या करें...? विजय ने भी हाँ में अपना मुँह हिलाते हुए कहा...हम्म्म...! और दुसरा नंबर मंत्री जो डायल किया.....। ट्रिन...ट्रिन, ट्रिन....ट्रिन....उधर से मंत्री जी के पीए ने फोन उठाया....।

हैलो.....कौन....?

मैं विजय बोल रहा हँ...मंत्री जी से बात करवा दो अर्जेंट है...?

हां....एक मिनट, मंत्री जी दुसरे फोन पर हैं...अभी करवाता हँू...तभी मंत्री जी का मूंह अपने पीए की तरफ होता है और पुछते हैं...कौन है...?

जी....विजय जी है....आपसे अर्जेंट बात करना चाहते है....? 

लाओ.....मंत्री जी ने हाथ में मोबाईल लेकर.....हाँ, हेलो....बोलो विजय....क्या बात है.....

भैय्या....वो...माँ के तर्पण कि क्रिया करना है और महामारी की वजह से नदी के सभी घाट पर प्रतिबंध लगाया हुआ कलेक्टर साहब ने....प्लिज आप उनको बोल दिजिये......बस दस मिनट की क्रिया करना हैं....भैय्या कम से कम मरने के बाद कि ये क्रिया तो पुरी होना चाहिये....?

मंत्री जी,......ओह....क्या करें....महामारी ही ऐसी आई है...कि सभी जगह कई सारे प्रतिबंध लगाये गये है....फिर भी मैं एक बार कलेक्टर से बात करता हँू। 

जी भैय्या...।

उधर मंत्री जी ने कलेक्टर को फोन लगाया और......हैलो......कलेक्टर साहब....मंत्री बोल रहा हँू.....

ये मेरे परिवार के हैं विजय जी....इनकी माँ का देहावसान हुआ है और तर्पण वाली प्रक्रिया करना है.....घाट पर इन्हें रोका जा रहा है....क्या कोई प्रतिबंध लगाया हैं आपने...?

जी सर, एक्चुअली.....सरकारी आदेश है....मंत्रालय से नाटीफिकेशन सभी जिलों के कलेक्टर्स को पालनार्थ आएं है.....महामारी एक्ट के अंतर्गत.....एैसी सभी गतिविधियां बद कर दी जायें, जहां लोग एकत्रित होते हैं....इसलिए प्रतिबंध लगाया है सभी घाटों पर....।

मंत्री जी...., ओह....तो अब इसका क्या उपाय....मरने के बाद व्यक्ति इस क्रिया से भी वंचित रहेगा क्या...?

कलेक्टर...., नहीं...मंत्री जी आप उन्हें कहें कि ज्यादा भीड़ इकट्ठी न करें और ज्यादा गंदगी भी न करें...कम से कम आवश्यक सामग्री का ही उपयोग करें....और पंडित आनलाईन यह प्रक्रिया करवा सकता है...?

मंत्री जी..., ठीक है...नमस्कारकृ।

कलेक्टर का फोन बंद होते ही मंत्री जी ने अपने पीए को विजय को फोन लगाने को कहा।

हेलो....विजय भैय्या....मंत्री जी बात करेंगे....! 

हाँ, विजय....मैने कलेक्टर से बात की....हालत गंभीर हैं और मंत्रालय के आदेश हैं....महामारी की वजह से किसी को भी ऐसी किसी भी गतिविधी के लिए अनुमति नहीं दी जा रही है....तुम एक काम करों...पंिडत से कहो.....की मोबाईल पर विडियो काॅल से आनलाईन सारी प्रक्रिया करवा दे..?

विजय...., जी भैय्या....!

विजय तुरंत फोन कट करता है और पंडित को फोन लगाकर आनलाईन विडियों काॅल से प्रक्रिया करवाने को कहता हैं....। लेकिन उसके मन में हज़ार सवाल खड़े होने लगते हैं.....क्या एैसे आनलाईन तर्पण करने से किसी को मुक्ति मिलती है...? जब व्यक्ति आनलाईन पैदा भी नहीं होता....आनलाईन मरता भी नहीं....तो आनलाईन तर्पण से मुक्ति कैसे...?

विजय अपने छोटे भाईयों और चाचा के साथ चुपचाप घाट की और चल पड़ता है यह सोचते हुए कि ईश्वर किसी को ऐसी मौत न दे...? जन्म देने वाली माँ को ही जब मुक्ति नहीं दे सकते तो फिर हमकों कैसे मुक्ति मिलेगी।


कहानी- अंतिम तर्पण आनलाईन

लेखक - डाॅ. मोहन बैरागी