Dr.Mohan Bairagi

Monday, August 22, 2022

अस्तित्व की तलाश और स्वयं से अनजाने हम...! लेखक :- डॉ. मोहन बैरागी

 


अस्तित्व की तलाश और स्वयं से अनजाने हम....!

लेखक :- डॉ.मोहन बैरागी

हम कौन है...? क्या हैं...? हमारा अस्तित्व क्या है....? मनुष्य के मन-मस्तिष्क में यह बात प्रारम्भ से ही बलवती रही है। क्या हमारे होने का कोई अर्थ है? किसने जीवन दिया।जीवन की सफलता और सार्थकता सभी के लिये अलग-अलग है। इस पहेली को खोजने के लिये कुछ लोग मानते है कि धर्म से जुड़ना ही जीवन का अर्थ है, कुछ लोग दान-पुण्य में तो कुछ सोचते है कि गरीबों की सेवा में तो कुछ शांति फैलाने,कुछ हिंसा में शांति ढूंढते है।यही अस्तित्ववाद है। मूलतः जिस तरह के काम करने में खुशी मिलती हो, वही जीवन का अर्थ है और वही अस्तित्ववाद है। पौराणिक कथानकों में भी मनुष्य की उत्पत्ति और विकास की धारणाओं के साथ-साथ उसके अस्तित्व विषयक आख्यान उल्लेखित है। प्रारम्भ में मनुष्य का मानना था कि जन्म से पहले ही सबकुछ तय हो जाता है। जीवन का उद्देश्य पूर्व से तय है, और यही बात कई यूनानी दार्शनिक और प्लेटो, अरस्तु जैसे दार्शनिक भी मानते रहे। 18वीं-19वीं सदी में इसके विपरीत नकारवाद की शुरुवात होने लगी। इस विचार को प्रस्तुत करने में निस्तशे का नाम प्रमुख है। एक और मनोवैज्ञानिक सार्त कहते है कि पैदा होने के बाद हमे अपने जीवन की रचना खुद करनी पड़ती है, इनका मानना है कि जन्म के बाद मनुष्य मकसद खोजने की दिशा में बढ़ता है। मूल्यों, गुणों-अवगुणों का निर्धारण मनुष्य अपने चयन या निर्णयों से कर आगे का रास्ता तय करता है। इसे एकसिस्टेन्स कहा जाता है,जबकि आम मनुष्य की दृष्टि में ये क्रांतिकारी विचारधारा रही है।

लेकिन आधुनिक युग में इस संकल्पना की अलग-अलग परिभाषायें या मान्यताएं मिलतीं है। विज्ञान के अनुसार धरती पर एक पारिस्थितिकी तंत्र काम करता है, जिसमें हर प्राणी अपने अस्तित्व को बनाएं रखने के लिए अपने से छोटे जीव का ग्रास करता है। पर बात तब भी प्रश्न रूप में ही सामने खड़ी होती है कि आखिर कोई किसी का भी ग्रास करें, जो अंतिम प्राणी भी छूट जाता है, वह कौन है ...? उसकी पहचान क्या है...? उसके स्वरूप या आकार-प्रकार जो भौतिक युग में है, का उद्देश्य क्या है..? उसको इस तरह, इस स्वरूप में किसने बनाया है..? क्या किसी...अलौकिक शक्ति ने बनाया है..? तो फिर वो अलौकिक शक्ति कौन है....उसको किसने बनाया....? सवाल कई हैं जिनके उत्तर समय-समय मनीषियों, चिंतकों तथा विचारकों ने दिये है।  

मुझे लगता है कि आधुनिक युग मे प्राणियों के मष्तिष्क में उत्पन्न विचार, जो भाषा के माध्यम से संप्रेषित होकर परस्पर अस्तित्व का निर्माण करते है वही अस्तित्व है।  आधुनिक युग में कई दार्शनिको ने अस्तित्व की अलग-अलग व्यख्या की और अस्तित्ववाद के सिद्धान्त दिए। 

एक धारणा है कि प्राणियों का संचालन नियति करती है। इस पर निस्तशे नामक महान दार्शनिक ने कहा कि नियति हमारा संचालन नही करती, बल्कि हमारे जीवन का संचालन हम स्वयं करते है। निस्तशे ने कहा कि इसके लिए जरूरी है कि खुद के हो जाओ,सेल्फ कंसंट्रेशन रखो या यूं कहें कि व्यक्तिवाद अपना लो। फ्रेंच फिलॉसफर अल्बेयर कामों सहित किरकेकार्थ,दोस्तोस्की जैसे कई विद्वान दार्शनिको ने अस्तित्ववाद के सिद्धान्त दिए, हालांकि ये सभी मनोवैज्ञानिक पूर्व से ही अस्तित्ववादी थे।

सार यह कि मस्त रहें, खुश रहें, खुशियां बांटे...तब आपके अस्तित्व का निर्माण स्वयं हो जाएगा।

©डॉ.मोहन बैरागी

Sunday, August 7, 2022

यथार्थ जीवन और अनसुलझे सपने लेखक - डॉ. मोहन बैरागी


यथार्थ जीवन और अनसुलझे सपने 

लेखक :- डॉ. मोहन बैरागी

रात के कोई दो-ढाई बज रहे थे, मैं ट्रेन से उतरकर घर जाने को स्टेश्न से निकला। नींद शरीर और आँखों को परेशान कर रही थी, लेकिन घर जाना ही था, सो स्टेशन के सामने बड़ी मुख्य सडक़ पर किनारे-किनारे पैदल ही चलना शुरू कर दिया। ताज्जुब हो रहा था, वातावरण देखकर, आधा सोया-आधा जागा सा। मैने देखा, रात के इस पहर में अब भी पिछली शाम की भीड द्वारा छोड़ दिये गये अवशेष, जो अक्सर किसी मेले, या उत्सव-त्यौहार के बाद लोग छोड़ जाते है। सोचा शहर में इतनी भीड़-भाड़ क्यो रही होगी? याद आया, कोई बड़ा त्यौहार था जिसमें शहर में चौबीस घंटे रौनक रहती है। खैर... मैं पैदल आगे बढऩे लगा... सडक़े के दोनों किनारो पर काफी मात्रा में संभवत: गाड़ोलिया समाज के अस्थायी डेरे दिखाई दे रहे थे, जो मेरे शहर से जाने से पहले यहाँ नहीं थे, ....इसी त्यौहार में हिस्सेदारी के लिए आए होंगे। ये डेरे सडक़ के दोनों और कतारबद्ध... देखकर थोड़ा आश्चर्य हुआ... और तो और... हर डेरे से बंधे हुए ऊँट.... इतने सारे ऊँट और कुछ जगह घोड़े साथ में दो हाथी भी सडक़ किनारे बंधे थे, जो मैनें पहले कभी एक साथ नही देखे। इधर साफ रहने वाली सडक़ पर यहाँ-वहाँ ऊँटों की विष्ठा बिखरी पड़ी दिखाई दे रही थी। थोड़ा और आगे चला तो देखता हँू कि एक ऊँट लगभग पगलाया सा दौड़ता हुआ कहीं से आया और सोते हुए गडरियों के डेरे में घुस गया। अगले ही पल पुरा डेरा अस्त-व्यस्त, पुरा तंबु उखड़ गया था। इसमें सो रहे महिला, बच्चे, पुरूष इधर उधर भागने लगे। कुछ देर के लिए अफरा-तफरी मच गई। पुरूष और महिला गडरियों ने जैसे-तैसे ऊँट को पकडक़र काबू में किया और उसे शांत कर किनारे पर लगे एक बिजली के खंभे से बांध दिया। इस ऊँट (पटांग) घटना को कुछ पल देख कर मैं आगे बढ़ गया, लेकिन मैं थकावट और नींद से पुरी तरह निढाल हो रहा था, सोचा मेन रोड़ से जाने की बजाय शार्ट रास्ता ले लुं, घर जाने के लिए मेन रोड़ से एक पुरानी मिल में से होकर कुछ पुराने मोहल्लों से होकर रास्ता मेरे घर को जाता है, यही रास्ता ठीक है, जल्दी घर पहँुचने के लिए। मैं चल दिया... मिल परिसर के बीच बने कच्चे पक्के रास्ते से....कुछ अंधेरा, कहीं हल्की रोशनी वाली जलती बुझतीं खंबे पर लगी टयुबलाईट के उजाले में... इधर बरसात का मौसम है, और रात का समय, तो वातावरण में वैसे भी ठंडक घुली हुई है, दुसरी तरफ यात्रा के कारण शरीर टुटन एक कदम भी आगे चलने से रोक रही है, लेकिन किया भी क्या जा सकता है.. पँहुचना तो है घर। 

अब में मिल परिसर के ऊँचें नीचे खुदे हुए मिट्टी के छोटे-मोटे टीलों को पार कर आगे पुरानी बसी कालोनी में इण्टर हो गया...थोड़ा आगे चला तो रोशनी दिखाई दी...और आगे चलने पर बैण्ड-बाजो की आवाज...शोर-शराबा.. मैं सही था..कोई त्योहार ही है, जो अब तक... इतनी रात तक उसका सुरूर लोगों  पर हैं...अब भीड़ दिखाई देने लगी, जैसे कोई सवारी निकल रही हो...यकायक मेरे सामने सैकड़ों लोगो की भीड़...हाँलाकि कालोनी का मार्ग संकरा था, और इसी मार्ग में यह सवारी आगे की और बढ़ रही थी...जैसे तैसे मैंं भीड़ को चीरने का प्रयास करता आगे की और बढऩे लगा...कुछ दुर चलकर रास्ता और संकरा हो गया...आगे बैण्ड तेज आवाज में...लोगों का हुजूम...जैसे इन दो तीन बैण्ड के पीछे लगभग कतार बनाकर चलते लोग...इससे आगे निकलना मुश्किल हो रहा था...सो...मैं भी कतार में लग गया.....जिस जगह मैं कतार में लगा...वहाँ भीड़ कम थी....कुछ कदम चलने के बाद मुझे अपने पीछे सरसराहट हुई...तुरंत अपना दाया हाथ पीछे की जेब की तरफ बढ़ाया...तभी अचानक मेरे हाथ ने दुसरा हाथ पकड ़लिया.. अचानक पटल कर पीछे देखा.... कोई बारह-पन्द्रह साल के दो बच्चे मेरे पीछे थे और उनमें से एक का हाथ मेरी जेब पर था, जिसे मैने पकड़ लिया था.. दोनों बच्चे मेरी तरफ देखने लगे..उनकी आँखों में ज़रा भी भय नहीं था कि मैने उनको देख लिया और सरेराह जेब काटते रंगे हाथ पकड़ लिया...वो साहस भरे स्वर में अरे यार..शीट्ट...कहकर दाएं-बाएं होने की मुद्रा में आ गये, मैं अपने आपको संभाल ही रहा था कि दोनो बच्चें आँखों से ओझल हो गये। अब मैं इस परिस्थिति से बाहर निकलने को व्याकुल था, जैसे-तैसे भीड़ को चीरते हुए जुलूस से आगे निकल गया... थोड़ा आगे जाकर इस पुरानी कॉलोनी के खत्म होते ही बाउंड्री वाल में बने एक छोटे से रास्ते से बाहर निकला और महसुस होने लगा की मैं शायद थकान और नींद की वजह से रास्ता भुल रहा हँू..? फिर भी आगे बढ़ा...देखा, फिर वहीं कच्चा ऊँचा-निचा रास्ता जो आगे चलकर शायद किसी मंदिर की और जा रहा था...चलते हुए मैं भी पँहुच गया.. मैं अब समझ गया था कि रास्ता भुल गया हँु... तभी कुछ जाने पहचाने चहरे दिखे... कोई पाँच-सात लोग बाहर निकल रहे थे... मुस्कूराते हुए मैने बाहर जाने का रास्ता पुछा... उनमें से एक ने हँसकर मुझे हाथ से इशारा कर एक दिशा में जाने को कहा... मुझे कि संभवत: मैं नहीं जानता इनमें से किसी को भी... खैर... मैं उस दिशा में चल दिया... आगे चलकर लगभग मैदान सी जगह... जिसके आगे कोई कॉलोनी दिखाई पड़ रही थी... इस मैदान से गुज़रते हुए मैने देखा.... कुछ दस-बारह युवकों की टोली मोटरसाईकिल खड़ी कर बतिया रही थी... हुलिये से बदमाश लग रहे थे... यकायका वे मेरी तरफ देखने लगे... मुझे लगा अब गए काम से शायद... क्या पता... मारपीट करें... लुट लें..? मैने अपनी चाल बढ़ाई और उनमें से कोई भी कोई हरकत करे, इससे पहले मैं उस जगह को पार कर गया और कॉलोनी के रास्ते पर आ गया.... यहाँ देखा फिर वहीं रौनक... घरों के ओटलों पर बच्चे-महिलाएं खड़े है... एक दुसरे से गपशप करते हुए ये लोग शायद इस त्यौहार की मस्ती में लग रहे थे..। हांलाकि इस रास्ते पर कोई जुलूस वगैरह नहीं था...तभी मैने एक घर के ओटले पर खड़ी एक महिला से पुछा....

ये आगर रोड़ का रास्ता किधर से है..? (आगर रोड़ वही रोड़ है, जिससे मैन स्टेशन से उतरकर चलना शुरू किया था, इस रोड़ से मेरा घर नज़दीक है।) 

महिला ने अचंभे भरे स्वर में कहा.... आगर रोड़..... कोनसा...? ये तो बैतुल है।

ये सुनकर मेरे पैरो से ज़मीन खिसक गई.... आश्यर्च से दिमाग घुमने लगा... सोच में पड़ गया....बैतुल.... बैतुल कैसे....?

थोड़ी ठंडी सांस लेकर मैने उसी महिला से पुछा... ये बस स्टेण्ड का रास्ता किधर से है.....

महिला ने कहा... थोड़ी ही दुर है... आप इस रास्ते को खतम करेंगे तो वहीं से कॉलोनी की दीवार के बीच एक रास्ता है...उसके बाहर बस स्टैण्ड है।

मेरी हालत अब हद से ज्य़ादा खराब थी....लेकिन इस जगह कर भी क्या सकता था....मैं थके पैरों से चल दिया और कुछ दुर जाकर ही दीवार के बीच बने रास्ते से बस स्टैण्ड पहँुच गया। 

अब मुझे अपने शहर के लिए बस की तलाश करना थी...सोच ही रहा था कि किससे पुछा जाय....।

त्यौहार की वजह से बस स्टैण्ड पर भी अच्छी-खासी भीड़ थी, लोग लाईन लगाकर कांउटर में अपने-अपने गंतव्य की टिकट ले रहे थे। मैं लाईन से अलग काउंटर पर पँहुचा और चेहरा झुकाकर खिड़की में बैठे बाबु से मेरे गंतव्य को जाने वाली बस के बारे में पुछ ही रहा था, दुसरी तरफ से शोर था की लाईन में लगकर टिकट लो... कि तभी, एक हाथ मेरे कंधे पर आया, मैं पलट कर देखता कि..... इतने में मेरी नींद खुल गई।

मैं बिस्तर पर दाएं-बाएं देखने लगा... उठकर मुंह पर हाथ फेरा... पास पड़े मोबाईल में टाईम देखा तो सुबह के साढे नो बज चुके थे। मन अब भी विचलित था। झटके से रजाई को हटाते हुए वाश बेसिन में जाकर मुंह पर पानी मारा... कुछ पल लगे नार्मल होने में... फिर आकर बिस्तर पर बैठ गया और सोचने लगा कि ये सब क्या था। सुबह के समय, ये कैसा सपना? खयाल आया, इसके बारे में थोड़ा पढ़ लू। एक दो किताब और इंटरनेट खंगाला, तो कुछ वैज्ञानिकों के कथन सामने आए। इटली के वैज्ञानिक एलसेंड्रो फोगली का मानना है कि सपने हमारी रोजमर्रा की जिंदगी से प्रभावित होते है। जैसे-अनिंद्रा, अवसाद, चिंता, दुख-सुख आदि। उक्त नकारात्मक स्थितियाँ और घटनाएं हमारे सपनो पर प्रतिकुल प्रभाव डालती है। मिस्र में एक अध्ययन में स्वप्न में आए दृश्यों का अर्थ समझने पर काफी परिश्रम हुआ। डिक्शनरी ऑफ ड्रीम्स में मिस्र के ऐसे अध्ययन का आश्चर्यजनक उल्लेख भी है। इसके मुल सिद्धांत भारतीय चिंतन से मिलते जुलते है। मनोवैज्ञानिक सिग्मन फ्राएड के अनुसार सारे सपने हमारी इच्छा का ही परिणाम है। भारतीय ग्रंथ अर्थववेद में काम देवता को स्वनसर्जक कहा गया है। एक और वैज्ञानिक डाक्टर चाल्र्स युंग के अनुसार सपने मानसिक प्रतिक्रिया है जो मुख्यत: अपने लक्ष्य सिद्धी के लिए होते है तो वहीं एक और वैज्ञानिक केल्विन एस हॉल ने सपनों का सिद्धांत दिया जिसमें बताया कि सपने विचार या विचार की श्रंखला है।

सार यह कि.... अवसाद से बचें, पुरी नींद लें, चिंता और दुख को अपने से दुर रखें, मस्त रहें, हंसते-मुस्कूराते।

आनंदमयी जीवन जियें।

© लेखक- डॉ. मोहन बैरागी

Thursday, August 4, 2022

गीत - समय, समय से घट जाए तो घट जाने दे.... लेखक - डॉ. मोहन बैरागी


 समय, समय से घट जाए तो घट जाने दे

मझधारों से लड़ माँझी तू नैया तट जाने दे


अँधियारो से लड़ तू दीप जलाकर मन का

फिर बरखा बरसेगी फिर महीना सावन का

भीतर के दुःख को सारे कहीं सिमट जाने दे

मझधारों से लड़ माँझी तू नैया तट जाने दे


छोड़ के दुनिया के वैभव की उलझन को

अब तोड़ दे सारे आभासी झूठे दर्पन को

उड़ते पंछी को घर के लिए पलट जाने दे

मझधारों से लड़ माँझी तू नैया तट जाने दे


असली नकली लोगो की रौनक खूब रिझाती

कभी कभी ये बुद्धि इतना अंतर ना कर पाती

भूलो वे साथ उन्ही के उनका कपट जाने दे

मझधारों से लड़ माँझी तू नैया तट जाने दे


ये माना कुछ पल चले गए हैं व्यर्थ सही

ज़िद कर तू ढूंढेगा जीवन के अर्थ सही

ख़ुद आएगी मंजिल, इसे लिपट जाने दे

मझधारों से लड़ मांझी तू नैया तट जाने दे

©डॉ. मोहन बैरागी


Saturday, July 30, 2022

पेरेंटिंग में क्लासिकल कंडीशनिंग लेखक :- डॉ. मोहन बैरागी


पेरेंटिंग में क्लासिकल कंडीशनिंग

लेखक :- डॉ. मोहन बैरागी

          मनोवैज्ञानिक जॉन बोल्बी ने विचलन पर एक अध्ययन में बताया कि माँ का सहज प्रेम न मिलने से बच्चे अपराधी बनते है, लगभग यही बात भारत मे महात्मा गांधी ने भी कही की मेरी परवरिश में मेरी माँ का हाथ है, और मेरी दो माँ है , एक पुतलीबाई और दूसरी गीता। इन्ही दोनों से संस्कार मुझे मीले है। और इन मिले संस्कारों से बालक मोहन दास आगे चलकर महात्मा गांधी हो गया, जिसे दुनिया मानती है।

           भारतीय परिवारों में पेरेंट्स लगभग प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से बच्चों को सिखाते है, प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में अपने पेरेंट्स या माता पिता एवं परिवार के आचार विचार, भाषा व क्रियात्मक गतिविधियों को बच्चे देखकर समय के साथ स्वाभाविक रूप से अपने मे धारण करते है।

            जैसे यदि परिवार के किसी बड़े सदस्य को किसी बात पर क्रोध आता तब वह सामान्य रूप से अनजाने में ही सही अपने क्रोध को बच्चों पर डाटते हुए निकालते है। मनोविज्ञान में एक शब्द आता है जिसे कहते है स्केप बोट। जिसका अर्थ होता है बली का बकरा, मतलब सामान्यतः बच्चे वो होते है जिन पर पेरेंट्स अपने गुस्से को निकालते है। बच्चों को सिखाने का सही तरीका है परोक्ष रूप से उनको संस्कार सिखाना, अर्थात जो गतिविधियां पेरेंट्स घर मे कर रहे है, बच्चे उनको देखकर सीखते है, और उन्ही चीजो को अपनाते है।

              जॉन बोन्दुरा नाम के वैज्ञानिक ने भी कहा कि बच्चे ऑब्जरवेशन से सीखते है। अर्थात क्लासिकल कंडीसीनिंग के अनुसार सिखते है, मतलब परिवेश को देखकर सीखते है। कुल मिलाकर परिवार के मूल्यों से बच्चों में संस्कार हस्तांतरित होते है। एक उम्र तक तो बच्चे परिवार से सीखते है लेकिन 13 से 19 साल के बीच की उम्र (मनोविज्ञान में इसको गैंग एज या पीयर ग्रुप कहा जाता है) में बच्चों पर बाहर का प्रभाव पड़ने लगता है और इसी उम्र में बच्चे लगभग परिवार से बाहर की दुनिया से भी प्रभावित होने लगते है। अथवा मित्र समूह का प्रभाव होता है। 0 से 3 की आयु में सम्पूर्ण प्रभाव पड़ता है तथा 3 से 12 वर्ष की आयु में महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। 20 वर्ष के बाद व्यवसायिक दुनिया का प्रभाव पड़ने लगता है। 20वी सदी के महान मनोवैज्ञानिक ऐरिक फ्रॉम ने अपनी किताब आर्ट ऑफ लविंग में प्रेम की विस्तृत विवेचना की, जिसमे प्रेम के विविध रूप बताए। इसिमें लिखा कि माँ का प्यार बच्चों के लिए अनकंडीशनल होता है, जबकि पिता का प्यार नही, और ऐसी स्थिति में वो अपने बच्चे के हित मे दूसरों के हितों से समझौता कर लेता है। महिलाएं बच्चों के लिए जुडिशियस नही होती है।अतः महिलाये अनकंडीशनल प्रेम करने में पुरुष या पिता से बहुत आगे होती है।

              सिगमंड फ्राईएड ने कहा कि महिलाये पुरुषों की तुलना में अपूर्ण है, जबकि उन्ही की एक शिष्या नैंसी कोडोरो ने कहा महिलाये पुरुषों की तुलना में पूर्ण होती है, वो जिंदगी भर भावनात्मक अवस्था मे सम रहती है। महिला परिवार के हर सदस्य के साथ सहज रहती है। फ्राईएड कहते है  कि जैसे बेटी पिता के लिए ज्यादा प्यारी होती है और बेटा माँ के लिए, जबकि नैंसी कोडोरो ने इसके उलट कहा कि बेटी हो या बेटा उनका पहला प्यार उनकी माँ है क्योकि हर स्थिति में बच्चों की आवश्यकताएं माँ ही पूरा करती है। जैसे छोटे बच्चे, चाहे वो लड़का हो या लड़की उसकी हर जरूरत माँ ही पूरा करती है।वह यह भी कहती है कि पुत्र सामान्यतः उम्र बढ़ने के साथ विद्रोही होते जाते है, और धीरे धीरे  एक उम्र के बाद वो बाहरी दुनिया मे ज्यादा रमते है वहाँ का आकर्षण उनमे ज्यादा होता है और सफलता को लताशते हे। देखा भी गया है सामान्यतः जो पुरुष बाहरी दुनिया मे सफल होते है वो घर मे भावनात्मक रूप से असफल होते है। हालांकि इसके पीछे उनकी परिस्थितियों का प्रभाव होता है। नैंसी कोडोरो ने इस फिनोमिना को द विल इनेक्सप्रेसिवेनेस नाम दिया। पुरुष सामान्यतयः अपनी भावनात्मक दृष्टि को प्रस्तुत नही कर पाता, जबकि महिलाओ में यह नही देखा जाता, महिलाओ के व्यक्तित्व में इमोशन तुरंत अपने केंद्र पर पहुच जाते है और वो एक्सप्रेस कर देती है, जिसे इन एक्सप्रेसिवन्स कहा।

               सार यह कि बच्चों को परोक्ष रूप से सीखाना सही होता है। अतः परिवार के सदस्यों का आचरण इस तरह हो कि बच्चे परोक्ष रूप से बड़ो को अवलोकन करके सीख सके।

©डॉ.मोहन बैरागी



Wednesday, July 20, 2022

आदर्श मूल्यों की वक्रता और मनुष्य, लेखक - डॉ. मोहन बैरागी

 



आदर्श मूल्यों की वक्रता और मनुष्य

लेखक - डॉ. मोहन बैरागी

वै नैतिक आदर्श जिन्हें कोई समाज अपनाना चाहता है। लेकिन दो अलग व्यक्तियों के मूल्य अलग अलग होते है। यह भी माना जाता है कि तर्क प्रक्रिया से मूल्य प्रभावित नही होते है तथा तर्कों को कोई मनुष्य विवेकपूर्ण स्वीकार करता है तब मूल्य स्थापना आसान हो जाती है। कह सकते है कि वे नैतिक आदर्श जिनकी प्राप्ति के लिए सेक्रिफाईज कर सकते है, वेल्यू या मूल्य कहलाते है।

एक दार्शनिक हुए थामस हॉप, जिनके अनुसार समाज पूर्व में ऐसा नही था जो आज है, पहले हर व्यक्ति को दूसरे से ख़तरा था। धीरे धीरे समाज मे एक दूसरे पर भरोसा स्थापित हुआ और नैतिक आदर्श मूल्य बनने लगे।

समाज अथवा मनुष्य में नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिये अलग अलग सिद्धान्त, नियम, प्रतिमान निर्धारित किये गए है जिनसे नैतिक मूल्यों की स्थापना में मदद मिलती है।

नीतिशास्त्र के अनुसार डायकोटमी या द्वैध मनोवृत्ति

वह वृत्ति है जो आमतौर बचपन से जो दिमाग मे बैठ जाती है, जिसका अर्थ है किसी भी वस्तु या व्यक्ति को दो हिस्सों में बाँटकर देखने की आदत। नीतिशास्त्र के ही  सिद्धान्त के अनुसार हम अच्छे और बुरे दोनों है। और व्यक्ति सामान्यतः इसमे से केवल एक अच्छे पक्ष को अपने लिए मानकर चलता है।

दूसरा सिद्धान्त सातत्य वादी दृष्टिकोण या कॉन्टिनम अप्रोच होता है जिसके अनुसार हर व्यक्ति अच्छा और बुरा दोनों होता है। अच्छाई से बुराई की यात्रा ही कॉन्टिनम अप्रोच होती है, अर्थात न कोई अच्छा है न कोई बुरा है, हर व्यक्ति कॉन्टिनम स्केल के पैमाने पर चलता है। 

नैतिक मूल्य वे है जो समाज के हित में हो लेकिन अस्तित्ववाद के एक दार्शनिक किरके गार्ज ने कहा कि महान से महान व्यक्ति का महान से महान निर्णय भी तब तक सही नही है जब तक कि उसने अपनी अंतर आत्मा से उसे पुष्ट न करवा लिया हो।

सिग्मंन फ्राइड के अनुसार भीतर की आवाज़ या अंतर आत्मा जो कहे वही सही है, जिसमे कोई अंतर्द्वंद न हो। उनके अनुसार सुपर ईगो या नैतिक मन या इड या स्वार्थी मन दूसरी तरफ खिंचता है।

लेकिन आम मनुष्य के लिए नैतिकता के पैमाने निश्चित करना थोड़ा कठिन है, कई बार वह तय नही कर पाता कि क्या सही है और क्या गलत। जैसे प्यास बुझाने के तत्व को जल कहे या पानी..? तो ऐसी स्थिति के लिए भाषा दार्शनिक क्वाईन ने कहा कि दुनिया मे कोई भी दो शब्द पर्यायवाची नही हो सकते। उनके अनुसार पूर्ण पर्याय तथा अपूर्ण पर्याय होता है। जब कोई शब्द अपने उद्भव से ही समान अर्थ रखता हो और नैतिक ढाँचों के द्वारा स्वीकार कर लिया गया हो वही सही है। समझना थोड़ा मुश्किल है लेकिन यहां भी व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुरूप तय कर लेता है कि क्या सही है।

वैल्यू या नैतिकता की तटस्थता किसी व्यक्ति में किस स्तर तक हो सकती है इसका उदाहरण सुकरात की कहानी से लिया जा सकता है। सुकरात के अपने मूल्य इस हद तक स्थापित थे और उनकी तटस्थता का स्तर उच्चतर था, यह इस बात से प्रमाणित होता है कि जब सुकरात ने ईश्वर के विषय मे कुछ विचार समाज के सामने रखे, जो समाज के कुछ लोगो को पसंद नहीं आये, जिस पर दंड स्वरूप सुकरात को मृतुदण्ड की सजा सुनाई गई। इस घटना के बाद सुकरात के शिष्य प्लेटो ने अपने गुरु को जेल से भागने की योजना बनाई और सुकरात से आग्रह किया। सुकरात ने इस पर प्लेटो से कहा कि "मौत के डर से मैं जेल से भागूंगा नहीं, यदि मैं भाग गया तो अपने शरीर को तो बचा लूंगा, लेकिन विचार मर जायेंगे, जबकि शरीर से ज्यादा विचार महत्वपूर्ण है। और इसके अगले दिन सुकरात ने स्वयं ही ज़हर का प्याला पी कर प्राण त्याग दिए। इस कथा से तातपर्य यह कि सुकरात की अपने जन्म से विकासक्रम के साथ बने नैतिक मूल्य व मोरालिटी की रक्षा की।

न्यूटन और गेलिलियो जैसे लोगों को भी समाज में ऐसी ही स्थितियों का सामना करना पड़ा और उन्होंने अपने अपने तरह से समाज को इसके जवाब दिए।

अंत मे कह सकते है कि सामाजिक ताना बाना एक व्यवस्था के अनुरूप बनता है, या यूं कहें कि कई सारी व्यवस्थाओं को मिलाकर एक व्यवस्था बनती है जिसको समाज सर्वमान्य रूप से मान लेता है। इसके लिए आवश्यक है कि कुछ आधारभूत मूल्य व आचरण, प्रतिमान सभी मे समान रूप से उपलब्ध हों। जब यह आधारभूत नैतिक मूल्य,आचरण व प्रतिमान अधिक मात्रा में उपलब्ध हों, तब यह सामाजिक व्यवस्था बनती है, लेकिन यह भी सच है कि कुछ हिस्सा ऐसा भी होता है जहां मूल्य व आचरण का सामंजस्य नही हो पाता। इसी असामनता व असंगत सामजंस्य के तानेबाने से समाज नामक संस्था का निर्माण होता है।

सार यह कि नैतिक जीवन के आदर्श से स्थापित प्रतिमानों को मानें और समाज निर्माण में अपनी भूमिका का निर्वहन करें।

©डॉ.मोहन बैरागी

20/7/2022

Wednesday, July 13, 2022

यथार्थ में आदर्श या आदर्श में यथार्थ लेखक :- डॉ. मोहन बैरागी


यथार्थ में आदर्श या आदर्श में यथार्थ

लेखक :- डॉ. मोहन बैरागी

मनुष्य के वर्तमान जीवन में यथार्थवाद की अधिकता है और आदर्श तथा मूल्य समाप्त होते जा रहे है।

सरल भाषा मे कहें तो मनुष्य जीवन के सच को यथार्थ कहा जा सकता है और यह सामाजिक, मनोवैज्ञानिक आदि कई प्रकार का हो सकता है। इसी यथार्थ से कभी कभी आदर्श की भी प्रतिस्थापना होती है। 

आधुनिक सोच तथा तात्कालिक मनःस्थिति में विवेकहीनता दिखाई पड़ रही है। साहित्य में भी आधुनिक काल के लेखकों ने आदर्श से ज्यादा यथार्थ को महत्व दिया है। ज्यादातर लेखकों ने रिश्तों में प्रेम का उल्लेख किया, और वो भी छायावाद के प्लेटोनिक प्रेम की तरह। इसी क्रम को जयशंकर प्रसाद तथा प्रेमचंद जैसे लेखकों ने भी लिखा, जिसमे संबंधों में प्रेम तो है, लेकिन अपर्याप्त या अप्राप्त..? यहां प्रेम के औदात्य या उसकी गरिमा को कुछ इस तरह दर्शाया या लिखा गया कि यह मनुष्य जीवन का हिस्सा तो है, पर पूर्णता नहीं है। कहा जा सकता है कि आधुनिक कहानियों में यथार्थवाद हावी है आदर्शवाद नही।

विचारणीय है कि मनुष्य की कहानी के यथार्थवाद महत्वपूर्ण है या यथार्थवाद की कहानियां।

आधुनिक काल में 1901 में माधवराव सप्रे की हिंदी साहित्य की पहली कहानी "एक टोकरी भर मिट्टी" थी, जिसमें यही असमंजस है।

थोड़ा और विचार करने पर लगता है कि लेखकों ने मनुष्य को उलझाए रखने या उसकी सोच या विवेक को सक्रिय बनाये रखने के लिए इस तरह के प्रयोग किये है, जबकि

रस के आस्वादन के समय कथा, कथानक, उद्देश्य के साथ उसके यथार्थ के साथ तादात्म्य बैठाने की कला मनुष्य में जन्मजात उपस्थित होती है।

यथार्थ और आदर्श की उलझन को समझने की दृष्टि से कई लेखकों ने इसका भी विवेचन किया। जैसे, मुक्तिबोध ने कहा कि यथार्थवादी कथ्य को प्रस्तुत करने के लिए शिल्प को कभी कभी गेर यथार्थवादी होना पड़ता है। कथ्य यथार्थवादी हो तो आवश्यक नही की शिल्प भी यथार्थवादी हो।  कुछ लेखक तो जीवन मूल्यों से इतर यथार्थ को प्रस्तुत करने की कोशिश में फंतासी तक पहुंच जाते है और पाठक या आम मनुष्य को रोचक ढंग से या नाटकीय ढंग से आदर्श... यथार्थ को दर्शाने के प्रयास में रहते है। एक और लैटिन लेखक गरसिया मारकॉज़ का मानना था कि यह मैजिकल रियलज़म है। अतिप्राकृतिक तत्वों का इस्तेमाल कर यथार्थ को उभारने के प्रयास को मैजिकल रियलज़म माना जाता है। वर्तमाम समय के लेखकों में उदय प्रकाश भी यही प्रयोग करते है।

यथार्थ और आदर्श को लेखकों ने समाज के सामने अपने अपने तरीके से प्रस्तुत किया है।आधुनिक समाज के मनुष्य ने अपनी धारणाये पूर्व प्रसंगों को आधार मानकर तय की हुई है। आदिकाल में जैसे वाल्मीकि रामायण में एक प्रसंग है जिसमे राम वनवास से लौटकर आते है, फिर अवध का राजपाठ संभाल लेते है और वशिष्ठ उनके गुरु है।

किसी एक दिन राम अपने गुरु वशिष्ठ से पूछते है कि राज्य में सबकुछ ठीक है या नही, वशिष्ठ जवाब देते है राजन, यह कार्य आप स्वयं राज्य में घूमकर देखें। तब राम अपने राज्य में घूमकर देखते है, उन्हें एक व्यक्ति तपस्या करते मिलता है, राम प्रसन्न होकर सोचते है कि उनके राज्य में सब सुख शांति है और लोग अपने जीवन कार्य के अलावा तपस्या और भक्ति भी करते है, वे पूछते है, तुम कौन हो...! जवाब मिलता है मेरा नाम शम्बूक है...!, किस वर्ण के हो...शुद्र हूँ..! यह सुनकर राम क्रोधित हो जाते है और तुरंत शम्बूक की गर्दन धड़ से अलग कर देते है, इस विचार से की शुद्र होकर तपस्या कैसे कर सकता है..?

इसी प्रसंग को तुलसीदास जी ने मानस में नही लिखा है...?  कुछ और ऐसे कुछ प्रसंग भवभूति ने अपनी राम कथा में लिखे जबकि तुलसी ने नही लिखे...?  

प्रश्न यह कि कथानक यथार्थवाद के कितने करीब....? 

उत्तर यह, संभवतः यथार्थवाद से ज्यादा आवश्यक आदर्शवाद की स्थापना है। समाज मे आदर्श स्थापित होंगे तभी मनुष्य आदर्श के आधार पर नैतिक जीवन जी सकेंगे।

सार यह कि नैतिक रहें, नैतिक बनें, और आदर्श जीवन जियें।

©डॉ. मोहन बैरागी

14/7/2022

Sunday, July 3, 2022

लय के वलय में घूमता मनुष्य !

 


लय के वलय में घूमता मनुष्य !

स्वांस के आरोह अवरोह से मनुष्य का जीवन चलता है तथा स्वांस के इसी गतिक्रम से मनुष्य जीवित रूप में समाज मे अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है।

अर्थात आरोह-अवरोह के क्रम को, जो लयबद्ध होकर निरंतर चलता है, जिससे मनुष्य के जीवित होने की अनुभूति स्वयं तथा दूसरों को होती है, जिससे लयात्मक होने का  प्रमाण मिलता है, यही लय है।

मनुष्य के मश्तिष्क की स्थिति यह होती है कि जब किसी खास क्रम में कोई चेतना उत्पन्न होती है तब वह किसी रिदम में अनुभूत होती है और यही रिदम या लय उसे आत्मसंतुष्टि की और लेकर जाती है और आत्मसंतुष्ट मनुष्य जीवन को मधुरम तल्लीनता के जीता है।

जीवन के कथानक और कथावस्तु में लय न हो तो जीवन नीरस हो जाता है। मनुष्य का जीवन प्रारम्भ से ही लयबद्ध रहा है। उत्पत्ति तथा विकास के क्रम अथवा उसके आदर्श व यथार्थ को तात्कालिक रूप से नजरअंदाज कर दें तो भी यह स्पष्ट है कि भौतिक वस्तु को नकार कर हम चेतना की तरफ दृष्टिगत होते है तब यही पाते है कि जीवन अथवा जैविक शरीर से संयोजित मनुष्य प्रत्येक चरण व स्तर पर लयबद्ध है। 

हिंदी साहित्य में भी लय को महत्वपूर्ण माना है। साहित्य का पद्य भाग तो लय के बिना अधूरा ही माना जाता है, कमाल यह कि परिभाषा के मान से व्याकरण के मानकों को भंग कर सृजित की गई रचना को पद्य (लयबद्ध) की श्रेणी में रखा जाता है, और व्याकरणगत फ्रेम में लिखी या कही गयी रचना गद्य का हिस्सा हो जाती है, जिसमे लय की अनुपलब्धता होती है। 

गहनता व गंभीरता से ध्यान दें तो हम पाते हैं कि हमारे वेद व पुराण तथा ऐतिहासिक/पौराणिक ग्रंथों से भी समझ आता है कि लय के बिना मानव जीवन की कल्पना ही व्यर्थ है। 

वेद की ऋचाओ से शुरू कर या वाल्मीकि से लेकर सुर, कबीर, मीरा तुलसी के साहित्य से जब दुनिया परिचित हुई या आधुनिक मनुष्य ने जब इनके कहे को जाना तब यह माना कि वाकई सबकुछ लयबद्ध है। रामचरित मानस से लेकर महाभारत में लयबद्धता दिखाई देती है, या कालिदास की शकुंतला से लेकर आधुनिक गद्य कविताएं भी जीवन के लय को प्रदर्शित करती है। इसी लय के तारतम्य में जीवन के बनने की कुंजी है।  मूलतः यह आज का यथार्थवाद भी है। इसी यथार्थ की वजह से दुनियां/ धरती की प्रत्येक वस्तु अपने लय में सुचारू रूप से संचलित हो रही है।

मनुष्य के जीवनक्रम में उसके जीवित रहने को आवश्यक यह लय उसके द्वारा बनाये रिश्तों अथवा जन्मजात प्राप्त रिश्तों में भी आवश्यक होती है। यह लय ही है जो रिश्तों को मधुरता प्रदान करती है तथा उन्हें जीवंत बनाती है। रिश्तों में यदि लय का तानाबाना बिगड़ता है तब लय भंग होती है और रिश्तें टूटन की और बढ़ने लगते है। आधुनिक समाज मे एक साहित्यकार द्वारा कहानी लिखी गयी जिसका नाम था "अलग्योझा" ।

इस कहानी के शीर्षक का तात्पर्य है रिश्तों का या परिवार या संयुक्त परिवार का टूट जाना ? वर्तमान दौर में आत्मनिष्ठ होने की चेष्ठा में हर व्यक्ति या परिवार एक दूसरे से तथा निकटतम रिश्तों से भी विलग होते जा रहे है। यह विलगता या टूटन से दूरियां इस तरह से तय हो रही है,जैसे मैं स्वयं सर्वश्रेष्ठ हूँ और बाकी रिश्ते और विचार मुझ पर अनावश्यक रूप से थोपे जा रहे हैं ? जुड़ाव की अपेक्षा टूटन ज्यादा दिखाई देती है ,और यह टूटन भी वर्तमान संदर्भ में लय के टूटने को दर्शाती है। स्पष्ट है कि प्रकृति में, चल-अचल में, संसार में या मनुष्य जीवन में लय भंग होगी तो गीत नही बनेगा, और जीवन एक सुरीले गीत का नाम है।

अंततः प्रयास हो, सुर, ताल और लय को साधकर सुरीले गीत सा जीवन हो।

©डॉ.मोहन बैरागी

Monday, May 30, 2022

नैपथ्य से आमुख की यात्रा लेखक :- डॉ. मोहन बैरागी



 नेपथ्य से प्रारंभ कर सम्मुख परिवेश में प्रविष्ट करता मनुष्य बाहरी आवरण पर युगीन भौतिक व रासायनिक सतहों से आच्छादित अपने प्राकट्य को प्रतिस्थापित करने की चेष्टा में प्रयत्नशील रहता है। 

मूलत: मनुष्य की वृत्ति का निर्मितिकरण इस प्रकार है कि वह ‘परा‘ से ‘परम‘ की प्रवृत्ति के केन्द्र पर आवृत होता है। जीवन के सारत्त्तवों को सूत्रों में समाविष्ट करने के निमित्त पल-प्रतिपल नवीन छवि को प्रस्तुत करना चेतना के केन्द्र में होता है।

सृष्टि में प्रत्येक वस्तु की तीन अवस्थाएं प्रदर्शित हैं-भूत,वर्तमान व भविष्य। इन्हीं तीनों प्रकारान्तर स्थितियों से सजीव व निर्जिव की यात्राएं संचालित होती है। जीवन के नाट्य में नेपथ्य का बड़ा महत्व है, जहां मनुष्य अपने मूल अस्तित्व में न होकर भी आवश्यक-अनावश्यक नये स्वांग रचने की भूमिका तैयार कर रहा होता है, किंतु हर क्षण बदलते अस्तित्व को विस्मृत कर नये क्षण के समावेशीकरण के मध्य उसका अशेष भाग बन रहा होता है।

विवेक के विचलन से उत्स्र्फूत इस नये विचार के साथ कि, उसने स्वयं को परिवॢतत कर नये स्वरूप में प्रस्तुत किया है, जबकि वह मूल प्रकृति के स्वाभाविक बदलाव का हिस्सा हो रहा होता है।

सूक्ष्म कोशिकीय ईकाई से लेकर भौतिक मनुष्य बनने तक कि प्रक्रिया में नेपथ्य से सम्मुख तक कि यात्रा मनुष्य तय करता है, तथा प्रत्येक नवीन आगमित क्षण अथवा समय पर पिछले चित्र व चरित्र की परिवर्धित छवि  अंकित करने का निर्मल प्रयास करता है।

दरअसल मनुष्य की भावना नैतिक संसार मे आदर्श और मूल्यों के आधार पर प्रतिमान स्थापित करने की सहज धारणा धारण कर स्वयं के चरित्र और चित्र को सकारात्मक दृष्टिकोण में अग्रेषित कर स्थापित करने की होती है। किन्तु समाज या समूह की भृकुटियां सदैव उर्ध्व पर आकृष्ट होती है। और वह समाज या समुच्चय में स्थापित प्रतिमान के बगैर कोई आदर्श या प्रतिमान को मान्यता नही देना चाहता।

विषय के मूल में यह है कि व्यक्ति चेष्टानुरूप सदैव प्रयास सकारात्मक पटल पर प्रक्षेपित समय व समाज अनुरूप छवि प्रस्तुत करना चाहता हैं,किन्तु समय के साथ तादात्म्य या साम्य स्थापित कर ही प्रदर्शित होगा,इसकी कोई गारण्टी नहीं..?

कहना यह है कि तीन विभिन्न स्थितियों के साथ यात्रा कर पल प्रतिपल बदलता मनुष्य चित्र व चरित्र से...? नेपथ्य से आमुख तक भरसक प्रयत्नशील होकर स्वच्छ व उत्कृष्ट आकृति प्रस्तुत करना चाहता है, जो समय के सापेक्ष होकर प्रतिमान कि स्थापना कर सके।

महान दार्शनिक अपने मूल या पूर्व के स्वरूप में अत्यंत कुरूप व अनाक्रष्ट किस्म के व्यक्ति की छवि प्रस्तुत करते है, तथापि अपने विचारों व दार्शनिक सिद्धान्तों से समाज में चिंतन की निर्मिति करने वाले प्रतिमान स्थापित कर गुजरते है, तो वहीं बुद्ध घर से निकलने से पूर्व अलग प्रकार का व्यक्तित्व समाज को दर्शित करवाते है तो वही बुद्ध होकर दुनिया को नया समाज, स्वरूप, सिद्धान्त,जीवन दर्शन देकर जाते है।

नेपथु से आमुख की इस यात्रा मैं हिन्दू धर्म व संस्कृति के संवाहक मर्यादा पुरुषोत्तम राम, राम से श्री राम होने तक कि यात्रा तय कर नए युग को नई मर्यादा के प्रतिमान देकर जाते है।

सार यह कि....नेपथ्य से आमुख की यात्रा तय करें....लेकिन आदर्श के साथ प्रतिमान स्थापित करते हुए।

तभी हो सकेगा...जीवन रूपी नाटक का सही मंचन।

शुभकामनाएं।

©डॉ. मोहन बैरागी

Friday, May 13, 2022

झांकते लोग..... लेखक : डॉ. मोहन बैरागी

 झांकते लोग.....

लेखक : डॉ. मोहन बैरागी

ताक-झाँक करना स्वभावतः मनुष्य के स्वभाव का हिस्सा बन चुकी आदत है।  जब अंतस्थ: अनसुलझी शरीर व मस्तिष्क की तंत्रिकाओं के साथ संवेदना को स्थान्तरित करने वाली तंत्रिकाएं अनासक्त अपेक्षा प्रदर्शित करती है तथा ज्ञात-अज्ञात वस्तु, स्थिति व ज्ञान के सापेक्ष सृष्टि के यथार्थ को दृष्टि के पृष्ठ पटल पर केंद्रित कर उसका अंकन करना चाहती है, जिससे हृदय के अनजाने भाग को कंपन की अनुभति होती है,जो मस्तिष्क समेत समस्त शरीर मे उत्स्फूर्त तरंगे पैदा करता है, जिससे तात्कालिक रूपेण सकारात्मक भाव पैदा होता है, जिसे खुशी कहते हैं, इसके परिणामस्वरूप आँखें सामान्य अनुपात से कुछ अधिक खुलती है तथा अधरों का भूगोल भाव-भंगिमाओं के साथ बदल जाता है, तथापि चेहरे के केंद्र पर अस्थाई किन्तु सूक्ष्म खिलखिलाहट प्रदर्शित होने लगती है।

यह स्थिति कई परिस्थितियों में उत्पन्न होती है और मनुष्य तब उत्फुल्लता की सीधी रेखा पर स्वयं को खड़ा पाता है।

झाँकने की यह वृत्ति वैज्ञानिक प्रक्रिया के निष्पादन स्वरूप स्वतः उत्पन्न क्रिया है।

संरचनात्मक सर्जना के पश्चात से तथा देह में सांस धारण के पश्चात से लेकर अंतिम सांस से कुछ अवधि पूर्व तक मनुष्य में झाँकने की कला का जन्म व विकास होकर उसका सोच व विचार के आधार पर परिवर्धन होता रहता है। मनुष्य शरीर के सैकड़ो,हज़ारो भावों में से यह एक विचार मनुष्य के मस्तिष्क में स्थायी निवासी होकर यात्रा करता है। झाँकने की वृत्ति सदैव नकारात्मक व पूर्व नियोजित नहीं होती, शिशु मातृ संबंध में शिशु माता को नेह भाव से भूख प्यास की अवस्था में झांकता है तो वहीं युवा मनुष्य भी तात्कालिक रूप से उत्पन्न त्वरित विचार की परिणति के रूप में अपने आस-पास के वातावरण व व्यक्तियों के जीवन मे झाँकता है।

आधुनिक दुनिया का मनुष्य झाँकने की कला को जैसे अपना संवैधानिक अधिकार ही समझता है। ब्रिटेन में 1354वी सदी के आसपास में एक शब्द आया मैग्नाकार्टा, जो आया तो व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों को लेकर था। (अधिकारों का घोषणापत्र)

कहना यह कि ... जैसे हर कोई मान के चलता है कि वह मैग्नाकार्टा (झाँकने का अधिकार) को अपने चेहरे पर ओढ़कर चलता है। और जब तब चेहरे को उघाड़ सकता है..?

झाँकने की क्रिया कई परिप्रेक्ष्य में संपादित होती है। सृष्टि के सृजन तथा मानव विकास से लेकर अब तक इसके लाखों-करोड़ों उदाहरण मिलते हैं, जिसमें अकारण अथवा सकारण झांका गया है। इस कला के संपादित होने पर कई ऐसी घटनायें कालजयी होकर इतिहास में दर्ज हैं।

सतयुग,त्रेता,द्वापर और कलयुग...हर युग में इस झाँकने की प्रवृति ने सभ्यता व मनुष्य संस्कृति को आहत कर ऐतिहासिक व पौराणिक किस्से-कहानियों को गढ़ा हैं।रामायण व महाभारत में कई ऐसे पात्र व उनकी कथाएं मौजूद हैं जिनके झाँकने से युद्ध की विभीषिका तक समय जा पहुंचा।आधुनिक सभ्यता के मनुष्य में स्वयं के छिद्रान्वेषण की 

वृत्ति (आदत) भीतर केंद्र में सामान्यतः नहीं रही, जिससे कि वह इस महीन कला से निवृत्ति के सोपान कभी पहुंच भी सके..?

चारित्रिक निर्मिति के असंख्य हिस्सो में से यह एक हिस्सा है। माना जाता है कि मनुष्य के वैचारिक दृष्टिकोण की निबद्धता से चारित्रिक निर्मिति समेत उसकी अस्मिता का स्थायी अथवा अस्थायी निर्माण होता है। प्रसिद्ध दार्शनिक फ्रायड का मानना है कि मनुष्य की अस्मिता स्थिर नहीं है तो वहीं एरिक ऐरिक्सन कहते हैं कि अस्मिता दो व्यक्तियों के बीच परस्पर पहचान एवं सामुदायिक संस्कृति से प्राप्त पहचान में निहित है।

व्यक्ति की चारित्रिक अस्मिता से विलग झाँकने की इस कला में निपूर्ण मानव वर्तमान, भविष्य तथा कालांतर में भी झाँकता है।

दुनिया मे प्रेम का स्थायी स्मारक दुनिया को देने वाले शाहजहां ने प्रेम के लिए ताजमहल बनवाया लेकिन शाहजहां अपनी उम्र के अंतिम समय मे 8 वर्ष तक अपने ही बेटे औरंगजेब की कैद में आगरा किले में रहा, और वहीं से ताजमहल को झाँकते था।

कुछ अलग तरह से वैश्विक स्तर पर एक और उदाहरण देखें तो....अमेरिका ने एक गलतफहमी के चलते (इस बात पर डिबेट है की स्पेन की वजह से अमेरिका के 200 से अधिक लोगो की मौत हो गयी थी।) स्पेन से बदला लेने के इरादे से अपनी सेना को भेजकर क्यूबा को स्पेन से आज़ाद करवाया।

क्यूबा के एक शहर गुवांतानामो बे को प्रिवेंटिव डिटेंशन सेंटर के नाम पर लगभग कब्जा किया,जबकि यह स्थान लीज पर अमेरिका ने क्यूबा को स्पेन से आज़ाद कराने के समय लिया था, और आज भी इस स्थान को अमेरिका न सिर्फ झांककर देखता है बल्कि इस स्थान पर अपना अधिकार ही जमा लिया है?

सरल शब्दों में कहना यह कि...अपने आस पास के वातावरण, दूसरों के जीवन, फेसबुक से लेकर व्हाट्सएप और ट्विटर, सभी जगह पर अनावश्यक न झाँके..? 

झाँकना ही है तो स्वयं में झाँके...की जीवन की इस यात्रा में हम कहाँ पहुँचे।

©डॉ.मोहन बैरागी

Tuesday, May 3, 2022

मोजड़ी में रेत लेखक - डॉ. मोहन बैरागी

 


जब जीवन की त्वरा तिर्यक रेखा पर तत्सम त्रिकोण बनाती हुई आगे बढ़ती है, तब त्वरित व तात्कालिक उत्पाद सफलता के चर्मोत्कर्ष पर स्वयं को देखना मनुष्य की असंतुलित कल्पना है, जो फलीभूत होने के केंद्र पर दृष्टिपात करती है, किन्तु सवाल सतह पर होता है...? उसके लिये प्रयास कितने मनोयोग से किये गए...? हर मनुष्य स्वयं को श्रेष्ठ तथा श्रेष्ठतम घोषित करने की दौड़ में है। 

शरीर संरचना निर्माण के बाद से संगत - असंगत परिस्थितियों के चलते मनुष्य जीवनपर्यंत उम्र के किसी भी हिस्से में तय नहीं कर पाता कि उसके निर्माण से पृकृति व अन्य पशु-पक्षियों, जानवरों,मनुष्यों अथवा सृष्टि को क्या मिला या उसने क्या दिया...? उसे लोभ सदैव पाने का होता है की हासिल क्या हुआ..? भौतिकी में न्यूटन का तीसरा सामान्य सिद्धान्त है कि यदि कोई गेंद किसी दीवार पर जिस बल से फेंकोगे, प्रतिक्रिया स्वरूप वह पुनः अपने बल से आपकी तरफ लौटेगी। सामान्यतः बुद्धियुक्त मनुष्य इस बात से अनभिज्ञ होता है एवं वह देह की आयु के सोपान को पूर्ण करने की चेस्टा में लगा रहता है। प्रमाणित है कि मनुष्य पर संस्कृति का प्रभाव होता है और संस्कृति के अनुरूप ही उसका विकास होता है।

अध्ययन से पता चलता है कि मोनोलिथिक संस्कृति (कोई एक संस्कृति जो दूसरी पर प्रभावी हो) में जब मनुष्य फंसता है तब चाहे अनचाहे उसे मोनोलिथिक संस्कृति को स्वीकार करने की मजबूरी होती है और उसी संस्कृति के अनुरूप उसके आचार-विचार व संस्कार का निष्पादन होता है। इसी संस्कृति के मनुष्य में निष्पत्ति स्वरूप अन्य से श्रेष्ठ न दिख पाने या प्रमाणित हो पाने की दशा में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष या भीतर कहीं आभासित चुभन या जलन का भाव पैदा हो जाता है। व्यक्ति सृष्टि के प्रारंभ से किन्ही भी संस्कृतियों से जन्मा हो अथवा देश काल परिस्थिति अनुरूप कोई भी संस्कृति से संस्कारित हुआ हो, या हृदय के नेपथ्य में सूक्ष्म सकारात्मक भाव से यदि मेल्टिंग पॉट कल्चर (गलन पात्र संस्कृति) के सिद्धान्त को अपनाकर उसमे शामिल हो भी जाता है। तब भी अन्य से एकात्म होने का भाव पैदा नहीं कर पाता। निर्माण प्रक्रिया के कोई भी कल्चर या किसी संस्कृति को हम ले लें, जैसे- सेलेड-बोल अथवा मोज़ैक कल्चर के देश भारत मे चुभन का फिर भी बड़ा ही महत्व है।

दूसरे से ईर्ष्या या उसके श्रेष्ठ होने की चुभन हमें उसके दर्शन किसी माफिया सदृश्य करवाती है।

माफिया (इटली से आयातित शब्द जिसके अपने भारतीय अर्थ है..?) अपनी चुभन का एहसास शरीर के स्नायुतंत्र को कष्टयुक्त तरंगे पैदा करने में करता है, जो मश्तिष्क के फ्रंटल, पेरिटल व ऑक्सीपिटल लोब को सूचना संप्रेषित कर दर्द के भाव को पैदा करता है और यही दर्द का भाव मनुष्य को विचलित करता है..?

संस्कृति ही है जो सभ्यता के साथ विकसित होती हुई मनुष्य में संस्कारों का निर्माण करती है। दुनिया की कोई संस्कृति व सभ्यता मनुष्य को मनुष्य से जलना नही सिखाती, वरन यह परिस्थितिवश उत्पन्न विचार है जो स्वयं को कुंठाग्रस्त करता है।

आँख में किरकिरी, शरीर मे सुई चुभना, पैर में कंकड़ चुभना, पिन चुभना आदि कई मुहावरे है जिनसे लेखको व साहित्यकारों ने इसको व्याख्यायित किया है। कई बार चाह कर तथा कई बार अनजाने में मनुष्य दूसरों की आँख की किरकिरी बन जाता है अथवा कई बार उसकी कमीज मेरी कमीज़ से सफेद कैसे का भाव हृदय के पृष्ठ भाग तथा चेहरे की सतह पर पाल लेता है। वह यह नहीं सोचता कि यदि मोजड़ी (पैर में जूती) पहन कर समुद्र किनारे जाएगा तो रेत उसकी मोजड़ी में फसेंगी ही, जो एक समय दर्द का एहसास देगी...? 

सिद्धान्ततः कई निर्बल मनुष्यों को स्वयं के बल का भान नहीं होता, तब ऐसी स्थिति में परिस्थिति व परिवेशजन्य बल उस पर भारित होता है।

हिंदी साहित्य के वरिष्ठ लघुकथकार संतोष सुपेकर की लघुकथा में एक पात्र छगनलाल को अपकेंद्रीय बल 

का आभास होता है।

अपकेंद्रीय बल के कारण किसी गतिशील वस्तु में केंद्र से दूर भागने की प्रवृत्ति होती है। यह वो आभासी बल है जो अभिकेंद्रीय बल के समान तथा विपरीत दिशा में कार्य करता है। 

सारांश यह कि अन्य चुभन से उत्पन्न दर्द से न कराहें, बल्कि स्वंय को चुभोते रहें, खुश रहने व खुश रखने के लिए।

मोजड़ी की रेत को हृदय व मष्तिष्क में न चुभने दें।

@डॉ.मोहन बैरागी

Tuesday, April 19, 2022

सफलतम असफल प्रेम

 




सफलतम असफल प्रेम
लेखक :- डॉ. मोहन बैरागी 

                   जॉर्ज बर्नाड शॉ ने कहा हैं, की दुनिया मे दो ही तरह के दुख हैं- एक तुम जो चाहो वह न मिले और दूसरा तुम जो चाहो वह मिल जाएं। जॉर्ज का मानना है कि दूसरा दुख पहले से बड़ा है..? 
मनुष्य में युग्म भावना सृष्टि के प्रारंभ से ही रही है। सांख्य दर्शन के अनुसार संसार प्रकृति व पुरुष की आबद्धता का ही खेल है। उपनिषदों के अनुसार प्रारंभ में ब्रम्हा जी अकेले ही थे,उनकी इच्छा हुई - "एको अहम बहुस्यायम प्राज्येय"। इसके बाद उन्होंने मानव सृष्टि को प्रारंभ किया, इसी के साथ हर्ष-विषाद तथा प्रेम का प्रस्फुटन भी हुआ तथा प्रेम मनुष्य की स्वाभाविक प्रकृति बन गया। सृष्टि के आदि पुरुषों में भी प्रेम के दर्शन होते है। ऋग्वेद में उर्वशी व पुरूखा की प्रेम कथा, महाभारत में अर्जुन सुभद्रा एवं दुष्यंत शकुंतला के अनेकों प्रेमाख्यान मिलते है। हिंदी साहित्य में भक्तिकाल में सूफी काव्यधारा के कवियों ने प्रेम तत्व को आधार बनाकर अनेकों काव्य रचना की। आधुनिककाल अथवा आजकल तो हरकोई युग्मदृश्य संजोकर प्रणय के स्वर्णिम लोक में विचरण करता है। अनेकों साहित्यकारों ने अलग अलग तरह से सफल तथा असफल प्रेमाख्यानों को लिखा है। यदि हम अन्यान्य कथाओं को पढ़ते है तो पाते है कि सर्वव्यापी और सर्वविदित कथानक लैला मजनू के किस्से में मजनू अंततः भ्रम में ही रहा कि उसे लैला मिल।गयी...? आत्मिक शांतिबोध और चेतन्यता के चर्मोत्कर्ष पर मजनू सफलतम असफल प्रेम के महान नायक कहे जा सकते हैं। ओशो के अनुसार वस्तुतः जो प्रेम सफल हो गए, उनके प्रेम भी असफल हो जाते हैं। संसार मे कोई भी चीज सफल हो ही नहीं सकती। बाहर की सभी यात्राएं असफल होने को आबद्ध हैं। क्योंकि जिसको तुम बाहर तलाश रहे हों, वह तो भीतर हैं। और तुम बाहर देखते हो, जब बाहर उसके पास पहुँचतें हो, तो वह खो जाता है मृग मरीचिका सा, जो केवल दूर से दिखाई पड़ता है। इस भ्रांति की और मनुष्य दौड़ता है, हर पल-हर घड़ी। यह सघन प्यास जो भ्रम पैदा करती है, उसके होने का बाहर, जो भीतर मौजूद है। तलाश में दौड़ खत्म न होती तब तक, जब तक कि वह समग्ररूपेण हार न जाएं..? और भीतर लौटने की स्मृति का भान नही रहता।
मूलतः मनुष्य स्वयं से प्रेम करता है...? किंतु भीतर की तुलना में वह स्मृति के बाहरी और बनावटी आवरण से आकंठ आबद्ध होता है, पर-प्रेम को पाने की आश्वस्ति में।
वह ढूंढता है भौतिक,सांसारिक, शारीरिक,मानसिक,भौगोलिक,आत्मिक, शुद्ध प्रेम..? तलाशता है, हृदय की महीन संवेदन ग्रंथियों के एकात्म रूप से मेल खाते मनुष्य को...?
मिलता भी है....?
ऊपरी आवरण से आच्छादित भौतिक देह, तात्कालिक आकर्षण, क्षणभर की मिठास और स्पंदन कलुयगी स्वेदग्रंथियो का।
ओर.....जन्म लेता है अनावश्यक वैचारिक सामंजस्य बैठाने का सिलसिला....? जो अनवरत सूक्ष्म भावनाओं के अभाव में अचानक थाम देता है बहते निर्मल जलधार को। और एकत्रित होने लगता है अवांछित अवसाद...?
इतिहास में सफल व असफल प्रेम के हज़ारों उदाहरण मौजूद है, किंतु वर्तमान भौगोलिक परिस्थितियों व सामाजिक, मानसिक स्थितियों के चलते असफ़ल प्रेम ही परिलक्षित हैं।
मूल कारण मनुष्य स्वयं से प्रेम न करते हुए, अन्यत्र इसकी तलाश में है...? यदि स्वयं के लिए समर्पित प्रेम है, तभी बाहर उसको तलाशना कुछ हद तक मुमकिन है। जो मनुष्य स्वयं से प्रेम नहीं करता, वह अन्य किसी से प्रेम नहीं कर सकता।
हज़ारों एकनिष्ठ, निष्ठा और निश्छल रूपी असफल प्रेम के उदाहरण मौजूद है, इसलिए क्योकि उनमें मंजिल से सरोकार न होकर भौतिक और तात्कालिक प्रेम की उम्मीदें सदैव मुहाने पर रहीं। 
हिंदी साहित्य की लेखिका/कवियत्री अपराजिता द्विवेदी की कविता है कि-
"सबसे अधिक वो प्रेम असफल हुआ जो एकनिष्ठ रहा..
सबसे अधिक वो भावनाएं छली गयी, जो निष्ठापूर्ण रही..
सबसे अधिक वो आंखें रोई जो आस में रहीं..
सबसे अधिक वो उम्मीदे ढहीं जो निश्चल रही..
निष्कर्षतः छलयुक्त प्रेम से बेहतर त्याज्य होना है!
इतिहास में सफलतम असफल प्रेम के अनगिनत उदाहरण उपलब्ध हैं जो यत्र तत्र उधृत किये जाते हैं। जैसे-
16वीं सदी  में भागमती और मुहम्मद कुली हुए जिनके वजूद पर ही कई लोग प्रश्न उठाते हैं? किस्सा यह है कि सुल्तान मुहम्मद कुली कुतुब शाह (1580-1612) पहली नज़र में भागमती को दिल दे बैठे थे, और सुल्तान ने उनके सम्मान में भागनगर नाम से एक शहर बसाया और यहीं भागनगर आज हैदराबाद के नाम से जाना जाता है। दूसरा किस्सा रानी रूपमती और बाज बहादुर (16वीं सदी) का हैं। मालवा के आखरी सुल्तान बाज बहादुर, रूपमती की खूबसूरती और गायकी पर फिदा थे, दोनों ने एक दूसरे से शादी की,इसी दौरान अकबर ने मालवा पर चढ़ाई कर दी, युद्ध मे बहादुर की हार हुई और रूपमती ने आत्महत्या कर ली, कुछ साल अकबर से युद्ध लड़ने के बाद बहादुर ने हार मानी और अकबर की सेना में शामिल हो गया।
एक अफ्रीकी गुलाम याकूत जिसे दिल्ली की पहली महिला शासक रजिया सुल्तान से मोहब्बत हुई, दोनों के प्यार के चलते विद्रोह हुआ और याकूत की मौत हुई. रजिया का निकाह जबरन मालिक अल्तुनिया से हुआ, उसके बाद अन्य विद्रोह में सुल्तान और अल्तुनिया दोनों की मौत हुई। 
यदि हम एक और प्रेम कहानी का ज़िक्र करें तो बाजीराव जो कभी जंग न हारने वाला योद्धा था और मस्तानी हिन्दू राजा और फ़ारसी मुस्लिम महिला की खूबसूरत बेटी थी, मां और बच्चों के विरोध के बावजूद बाजीराव ने मस्तानी को छोड़ने से इंकार दिया,लेकिन बाद में बाजीराव की मौत के बाद मस्तानी भी चल बसी।
सफलतम असफल प्रेम के आईने में हम देखें तो दिल्ली के राजा पृथ्वीराज और कन्नौज की रानी संयुक्ता की प्रेम कहानी भी बेहद दिलचस्प है, पृथ्वीराज और संयुक्ता एक दूसरे को बिना देखे ही प्यार करने लगे थे,पृथ्वीराज और संयुक्ता के पिता ने स्वयंवर से इनकार कर दिया। आखिरकार पृथ्वीराज ने संयुक्ता को भगाने का फैसला किया, इसके बाद अफगान आक्रमणकारी मोहम्मद गौरी से युद्ध मे हारने के बाद चौहान की हत्या हो गयी और संयुक्ता ने  पकड़े जाने से पहले आत्महत्या कर ली।
सफलतम असफल प्रेम की दुनिया से बाहर आने के लिए स्वयं से प्रेम करना जरूरी है।
स्वयं से प्रेम करें, खुश रहें।
©डॉ. मोहन बैरागी

Wednesday, April 13, 2022

कर्मण्येवाधिकारस्ते, कल्पना के रस्ते भूगर्भ से त्रिलोक की उड़ान

 


कर्मण्येवाधिकारस्ते, कल्पना के रस्ते

भूगर्भ से त्रिलोक की उड़ान।

लेखक :- डॉ.मोहन बैरागी

कोरे कथानक में स्वयं को मुख्य पात्र रख रिक्त कथा गढ़ता मनुष्य...औसत आयु के तीन चौथाई हिस्से में कल्पनाचित्रों के आसरे व्यतीत करता है शेष आयु...?

बाँचता है अनलिखे उपन्यास, कहानी, कविताएं और साम्य जीवन की परालौकिक गाथाएं....मष्तिष्क के शुक्ष्म हिस्से में...?

अनेको बार ....!

सभ्य समाज में कहा जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है...? और मनुष्य ही है, जो सोच,समझ,सही-गलत की तथा विरक्ति व आसक्ती की विचार शक्ति रखता है। किंतु......कल्पना के केंद्र में होता है एकात्म भाव...? स्वयं को उच्चस्थ पर प्रदर्शित व प्रचारित करने का...?

श्रीमद्भगवद गीता में एक मूल श्लोक कर्मण्येवाधिकारस्ते....का विवरण मिलता है, जिसका अर्थ है, कर्म पर तेरा अधिकार है, कर्म के फल पर नहीं...?

कल्पना करते-करते मनुष्य सामान्यतः कल्पनालोक (खयाली दुनिया) में दाखिल हो जाता है, (हालांकि यह जानते हुए की कल्पनालोक शब्द ही पुल्लिंग है।) और उसकी असीम उम्मीदों का प्रस्फुटन होने लगता है। मृगतृष्णा के विराट जंगल मे महीन धागे से घने वटवृक्ष को बांधने के प्रयास तथा पुष्प की नवांकुर नन्ही कली से लेकर सूर्य के रश्मिरथी तक को बांधने व अपने त्वरित उपजे विचारों से स्वयं को सदैव श्रेष्ठतम अथवा सफलतम व्यक्ति (कभी-कभी तो व्यवस्था को भी ) बताने में माहिर भौतिक मनुष्य इस आकाशीय जीवन मे अनेकों बार उड़ता है..?(हालांकि इस स्थिति में उसे यह तक भान नहीं रहता कि रात ज़्यादा हो गयी और अगले दिन सुबह नल (पानी) आएगा तो जल्दी उठ के पानी भरना है...? )

वह कल्पना के घोड़े भूगर्भ से त्रिलोक तक दौड़ाता है...? गर्भस्थ अवस्था से त्रिलोकी भ्रमाण्ड में पर फैलाकर नापता है दूरी....सदियों की क्षणों में...? एकाकार कर देता है सम्पूर्ण जगत को...? कोमल मन, सहज मानव स्वभाव व तीव्र उद्वेलित कल्पना उड़ान से...?

ज्ञान का भान न होने की दशा में उत्पन्न इस स्थिति में उत्कर्ष को उद्वेलित अनंत व्यापक किन्तु शुक्ष्म मन ना कल्पना के सिद्धान्त को समझता है और न उसके दर्शन को मानता है।

गीता का ज्ञान कर्मण्येवाधिकारस्ते... हो जिसमें स्पष्ट है कि केवल कर्म पर तुम्हारा अधिकार है...उसके फल पर नहीं। या आधुनिक युग के तमाम दार्शनिक जिनमें ह्यूम हो या कांट....जिन्होंने अत्यंत सरल भाषा में कल्पना की परिभाषा दी की....कल्पना केवल हमारी ज्ञानेन्द्रियों को बाह्य पदार्थ का ज्ञान भर है, या यह हमारे स्मृति पटल पर तीव्र इंद्रिय अनुभव भर है जो हमें मानसिक अनुभूति प्रदान करता है,जो इच्छा,अनिच्छा अथवा राग-द्वेष के रूप में प्रकट होता है।

मनुष्य यह सब मानने को तैयार नहीं, उसकी वैचारिक पराकष्ठा समाप्त होती है, स्वयं के विचार व मन अनुरूप दृष्यादर्शन पर….? वह अनंत व्योम में एकात्म व सार्वभौमिक विचार प्रदत्त व्यक्ति होता है इस स्थिति में, जब वह स्वयं के भौतिक शरीर से भी कुछ फर्लांग दूर ही हो...?

कल्पना मानव स्वभाव है तथा सहज प्रक्रिया है, किन्तु कल्पना के अनंत चरम पर विचार का केंद्र निश्चित नहीं होता और तब वह यथार्थ व भौतिक धरातल से दूर हो जाता है। 

अनिश्चित, असंगत, अव्याप्त, असहनीय व अ-अंकेक्षणिय कल्पना व्यर्थ है।

कल्पना यथार्थ के सामर्थ्य अनुरूप हो....।

कल्पना करें,जीवन सुखद हो..!

©डॉ.मोहन बैरागी

Saturday, April 9, 2022

वैभव से वैराग्य को आतुर अनहद मन

 


वैभव से वैराग्य को आतुर अनहद मन यह नही विचारता की दूर क्षितिज पार करने के मौन समय मे कितने तटबंध होंगे, वह तो उन्मुक्त हल्के सूखे पलाश के सूक्ष्म पत्तो सा निर्मल नीर की सतह पर निर्बाध बहने को आतुर है। एकाकी  आलिंगन कर सतह पर बहते पत्ते से और उर्ध्व पर अनंत आकाश....? 

हृदय में जुगुप्सा अनंत पार जाने की....? तभी प्रश्न खड़े करते आवरण के बाहर उपस्थित धरती, आकाश, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, जीव-जंतु, प्रकृति और अमिटता सा मनुष्य....? 

अ-सोचनीय विचारों व शब्दों के नुकीले, हृदय व आत्मा भेदी बाण या सवाल या प्रश्न....? कभी-कभी तो विचार व सिद्धान्तों को ठुकराकर तथा नकार कर तटस्थ हो जाते यक्ष प्रश्न...?

उत्तर सहज सरल....!

किन्तु द्वापर, त्रेता, सतयुग और इसके बाद कलयुग में जैसे मनुष्य पैदा ही हुआ है  विरोध के तूणीर पर असहमति का बाण रख लक्ष्य भेदने को...? 

विरोध हर पल ,हर क्षण....चौखट पर जूते छप्पल उतारने से लेकर बाथरूम में हाथ धोने को साबुत साबुन नहीं होने व मैले छोटे तौलिये से हाथ पोछने तथा डाइनिंग पर दाल में नमक कम से लेकर मिर्ची ज्यादा तक.....?

जाने क्यों आज के युग में हम सब को मिर्ची का एहसास कुछ ज़्यादा ही है...? भले हमको लगे...?....या जाने अनजाने हम किसी को लगाएं....?

बात तो मिर्ची की है....?

इस मिर्ची से हम उग्र और उद्वेलित इसलिये भी हैं क्योंकि हमारे इतिहास में अनहद आनंद को प्राप्त करने का ज़रिया स्वादिष्ट भोजन या फिर इतिहास में शबरी के मीठे बेर रहे है...कहीं मिर्ची से रिश्ते प्रगाढ़ हुए.....?, ऐसा तो साधारणतः प्रतीत नहीं होता। और जब ऐसा प्रतीत भी नहीं होता न ही सर्वव्यापी उदाहरण मौजूद है, तो इससे स्पष्ट है कि मनुष्य की भौतिक काया में मिर्च की ग्रीष्मता, उद्वेलन, अप्वाष्पीकृत भाप जो जिव्हा से वाष्पित होकर अश्रुनीर बहाने व धरती से छः उंगल ऊपर उछलने पर शारीरिक त्रन्त को विवश करती है, का मनुष्य के प्रकृति, पेड़ पौधे व मनुष्य तथा धरती के मूल संयोजन तथा पारस्परिक बेलेंस करने का सुझाव मात्र है।

बावजूद इसके हम अपने तथाकथित नैसर्गिक सौदंर्य, भाव, विचार, हैसियत से इतने बड़े हैं कि सहजता, सरलता, विरलता और लघुता हममें से वाष्पीकृत हो गई है...? 

भगवान शंकर की जटा में गंगा जब तक थी...? बंधन में थी...लेकीन जब शंकर ने प्रवाहमान होने का आशीष गंगा को दिया....तब वह उन्मुक्त होकर धरती की गोद मे फैल गयी...। 

जब पवनसुत ने सूरज अपने मुँह से बाहर निकाला तब, भ्रमाण्ड में फैला उजाला....।

अनहद को आनन्दित मन के खुले आकाश में विचरण के लिए आवश्यक है इसको विरक्त और विमुक्त करना।

प्रयास करें....और सीखें मन को विरक्त करना....।

यकीन मानिए....आनंद की अनुभूति होगी।

®डॉ.मोहन बैरागी

Tuesday, January 18, 2022

नेपाल यात्रा, भाग 1 6,7 और 8 जनवरी 2022 को काठमांडु, नेपाल यात्रा

 नेपाल यात्रा, भाग 1

6,7 और 8 जनवरी 2022 को काठमांडु, नेपाल यात्रा 







विषम परिस्थितियों और विषय समय में दिनांक 6,7 और 8 जनवरी 2022 को काठमांडु, नेपाल यात्रा का सुखद संयोग बन गया। एक तरफ जहाँ सारी दुनिया में कोरोना या ओमिक्राम को लेकर जहाँ स्थितियाँ चिंताजनक है वहीं दुसरी और इस तीसरी लहर के नुकसान कम होने के दावे भी किये जा रहे है। इस विपरित दौर और विपरित परिस्थिति में मैनें तो अपना मन बनाया और कोरोना प्रोटोकाल का पुरी तहर पालन कर भारत से जाने व नेपाल से लौटने के समय पर अपना आरटीपीसीआर टेस्ट करवाकर (दोनो ही टेस्ट निगेटिव) यात्रा की। ज्यादातर पहाड़ी इलाके में बसा नेपाल अपनी प्राकृतिक सुंदरता व ऐतिहासिक व पौराणिक संस्कृति व आख्यानों के लिए दुनियाभर में मशहुर है। मेरी इस साहित्यिक यात्रा के पिछे नेपाल में आगामी समय में आयोजित होने वाले साहित्यिक व सांस्कृतिक आयोजन के पुर्व संक्षिप्त अध्ययन व साहित्याकारों से भेंट सहित अन्य आयोजन में सहभागिता करना था।

यात्रा के पहले दिन पँहुच कर आराम ही करना था, कारण, शाम हो जाना और यात्रा की थकावट। यात्रा के दुसरे दिन काठमांडु के विभिन्न धार्मिक व ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण योजनानुसार बुद्धनाथ स्तुप, स्वयंभुनाथ तथा कुमारी देवी दर्शन स्थल को देखने का अवसर मिला। इसी दिन नेपाल के साहित्यकारों से भी भेंट करना थी और मुझे ही दो-तीन हिंदी/नेपाली साहित्यकारों के पास जाना था, जिसके लिए मैने पुर्व में समय ले लिया था, सभी से उनके कार्यालयों में सौजन्य भेंट करना थी। लेकिन दिनभर अलग-अलग जगहों पर घुमने में ही सारा दिन खत्म हो गया और अब शाम हो गई थी। मतलब साफ था कि अब मुलाकात का दौर अगले दिन आयेगा। लेकिन यहां एक नर्ही समस्या खड़ी हो गई थी, हमारे भारत में जैसे रविवार को शासकीय अवकाश होता है, उसी तरह नेपाल में शनिवार को शासकीय अवकाश होता है, इस दिन सभी सरकारी कार्यालयों के साथ-साथ आम बाजार भी लगभग बंद होता है। 

लेकिन सौभाग्य कि, अगले दिन यानी 7 जनवरी 2022, शुक्रवार को काठमांडु, नेपाल के बड़े पत्रकार व साहित्यकार तथा नेपाल सरकार के विद्युत विभाग से सेवानिवृत्त इंजिनियर श्री सच्चिदानंद मिश्र जी से भेंट का रहा।

श्री सच्चिदानंद मिश्र बेहद सरल, सहज व्यक्तित्व के धनी है, तथा उनकी सहदयता देखिये कि, वे स्वयं मेरे होटल पर मुलाकात के लिए पधार गये। हल्की ठंड और सर्द मौसम में चाय के प्याले के साथ श्री मिश्र जी भारत-नेपाल के साहित्य व हिन्दी की स्थिति पर चर्चा हुई। आगामी फरवरी 2022 में काठमांडू में होने वाले नेपाल भारत साहित्य महोत्सव पर भी आपसे चर्चा हुई। इस चर्चा में महामारी कोविड की वजह से बन सही विपरित परिस्थितियों में आयोजन के स्वरूप व भव्यता को लेकर श्री मिश्र जी के चेहरे पर चिंता दिखाई दी। हालांकि उन्होंने उम्मीद जताई की संभवत: तब तक सब ठीक होगा और आयोजन सफलतापुर्वक संपन्न होगा। भारत की ही तरह नेपाल में भी विपरित परिस्थितियों में हिंदी और नेपाली साहित्य व जनसंचार/पत्रकारिता के मुल को ध्यान में रखकर आप काठमांडू से हिमालिनी नामक पत्रिका का प्रकाशन करते है। और यह क्रम विगत चौबीस वर्ष से जारी है। चर्चा में श्री मिश्र ने बताया कि उनके पिता काठमांडू के विश्वविद्यालय में भाषा,साहित्य के प्राध्यापक थे, तथा उनको नेपाली व भारतीय साहित्य के साथ हिंदी से बड़ा लगाव था। चुंकि नेपाल में नेपाली साहित्य को ज्यादा तरजीह दी जाती है, लेकिन साहित्य सरहदों के पार जाता है। और श्री मिश्र के पिता भी हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य के विद्वान थे, उनसे ही साहित्य के संस्कार श्री सच्चिदानंद मिश्र जी को विरासत में मिले है। और अपने पिता की विरासत हिमालिनी को वे आज भी उनकी लगन व निष्ठा से प्रकाशित कर रहे हैं। इस पत्रिका के संपादन का कार्य डॉ. श्वेता दिप्ति जी देखती हैं। चर्चा करते-करते समय ज्यादा हो चला था, इसलिए अंत में श्री मिश्र जी के साथ कुछ चित्र लियें और विदा की बारी आ गई। अंत में श्री विजय पण्डित जी का जिक्र करना आवश्यक है, उन्होनें ही श्री मिश्र जी भेंट करवाई और वे हिमालिनी पत्रिका के भारत देश के ब्यूरो प्रमुख भी है। 

इस भाग में इतना ही....शेष अगले भाग में...


डॉ. मोहन बैरागी

संपादक

अक्षरवार्ता

भारत