Dr.Mohan Bairagi

Friday, October 13, 2023

मीत मिलता ही नहीं है, मीत मिलता ही नहीं

 मीत मिलता ही नहीं है, मीत मिलता ही नहीं


प्रेम में गर सिक्त है तो 

प्रेम में ही रिक्त बंधु

झोंकना खुद को पड़ेगा

तुझकों भी अतिरिक्त बंधु

बाद उपवन के उजड़ऩे, पुष्प खिलता ही नही

मीत मिलता ही नहीं है, मीत मिलता ही नही


चाँदनी जो ये धवल है

स्वप्र नैनों में नवल है

मन की मछली फडफ़ड़ाती

डुब जाने को विकल है

आवरण अखरोट दुनिया का यहां छिलता नही

मीत मिलता ही नहीं है, मीत मिलता ही नही


हमने नापा पग पगों से

प्रेम की तिरछी गली को

रोंदते है हमने देखा

प्रीत की नन्ही कली को

प्रेम का फटता जो कपड़ा फिर ये सिलता ही नही

मीत मिलता ही नहीं है, मीत मिलता ही नही

@डॉ.मोहन बैरागी

Monday, August 22, 2022

अस्तित्व की तलाश और स्वयं से अनजाने हम...! लेखक :- डॉ. मोहन बैरागी

 


अस्तित्व की तलाश और स्वयं से अनजाने हम....!

लेखक :- डॉ.मोहन बैरागी

हम कौन है...? क्या हैं...? हमारा अस्तित्व क्या है....? मनुष्य के मन-मस्तिष्क में यह बात प्रारम्भ से ही बलवती रही है। क्या हमारे होने का कोई अर्थ है? किसने जीवन दिया।जीवन की सफलता और सार्थकता सभी के लिये अलग-अलग है। इस पहेली को खोजने के लिये कुछ लोग मानते है कि धर्म से जुड़ना ही जीवन का अर्थ है, कुछ लोग दान-पुण्य में तो कुछ सोचते है कि गरीबों की सेवा में तो कुछ शांति फैलाने,कुछ हिंसा में शांति ढूंढते है।यही अस्तित्ववाद है। मूलतः जिस तरह के काम करने में खुशी मिलती हो, वही जीवन का अर्थ है और वही अस्तित्ववाद है। पौराणिक कथानकों में भी मनुष्य की उत्पत्ति और विकास की धारणाओं के साथ-साथ उसके अस्तित्व विषयक आख्यान उल्लेखित है। प्रारम्भ में मनुष्य का मानना था कि जन्म से पहले ही सबकुछ तय हो जाता है। जीवन का उद्देश्य पूर्व से तय है, और यही बात कई यूनानी दार्शनिक और प्लेटो, अरस्तु जैसे दार्शनिक भी मानते रहे। 18वीं-19वीं सदी में इसके विपरीत नकारवाद की शुरुवात होने लगी। इस विचार को प्रस्तुत करने में निस्तशे का नाम प्रमुख है। एक और मनोवैज्ञानिक सार्त कहते है कि पैदा होने के बाद हमे अपने जीवन की रचना खुद करनी पड़ती है, इनका मानना है कि जन्म के बाद मनुष्य मकसद खोजने की दिशा में बढ़ता है। मूल्यों, गुणों-अवगुणों का निर्धारण मनुष्य अपने चयन या निर्णयों से कर आगे का रास्ता तय करता है। इसे एकसिस्टेन्स कहा जाता है,जबकि आम मनुष्य की दृष्टि में ये क्रांतिकारी विचारधारा रही है।

लेकिन आधुनिक युग में इस संकल्पना की अलग-अलग परिभाषायें या मान्यताएं मिलतीं है। विज्ञान के अनुसार धरती पर एक पारिस्थितिकी तंत्र काम करता है, जिसमें हर प्राणी अपने अस्तित्व को बनाएं रखने के लिए अपने से छोटे जीव का ग्रास करता है। पर बात तब भी प्रश्न रूप में ही सामने खड़ी होती है कि आखिर कोई किसी का भी ग्रास करें, जो अंतिम प्राणी भी छूट जाता है, वह कौन है ...? उसकी पहचान क्या है...? उसके स्वरूप या आकार-प्रकार जो भौतिक युग में है, का उद्देश्य क्या है..? उसको इस तरह, इस स्वरूप में किसने बनाया है..? क्या किसी...अलौकिक शक्ति ने बनाया है..? तो फिर वो अलौकिक शक्ति कौन है....उसको किसने बनाया....? सवाल कई हैं जिनके उत्तर समय-समय मनीषियों, चिंतकों तथा विचारकों ने दिये है।  

मुझे लगता है कि आधुनिक युग मे प्राणियों के मष्तिष्क में उत्पन्न विचार, जो भाषा के माध्यम से संप्रेषित होकर परस्पर अस्तित्व का निर्माण करते है वही अस्तित्व है।  आधुनिक युग में कई दार्शनिको ने अस्तित्व की अलग-अलग व्यख्या की और अस्तित्ववाद के सिद्धान्त दिए। 

एक धारणा है कि प्राणियों का संचालन नियति करती है। इस पर निस्तशे नामक महान दार्शनिक ने कहा कि नियति हमारा संचालन नही करती, बल्कि हमारे जीवन का संचालन हम स्वयं करते है। निस्तशे ने कहा कि इसके लिए जरूरी है कि खुद के हो जाओ,सेल्फ कंसंट्रेशन रखो या यूं कहें कि व्यक्तिवाद अपना लो। फ्रेंच फिलॉसफर अल्बेयर कामों सहित किरकेकार्थ,दोस्तोस्की जैसे कई विद्वान दार्शनिको ने अस्तित्ववाद के सिद्धान्त दिए, हालांकि ये सभी मनोवैज्ञानिक पूर्व से ही अस्तित्ववादी थे।

सार यह कि मस्त रहें, खुश रहें, खुशियां बांटे...तब आपके अस्तित्व का निर्माण स्वयं हो जाएगा।

©डॉ.मोहन बैरागी

Sunday, August 7, 2022

यथार्थ जीवन और अनसुलझे सपने लेखक - डॉ. मोहन बैरागी


यथार्थ जीवन और अनसुलझे सपने 

लेखक :- डॉ. मोहन बैरागी

रात के कोई दो-ढाई बज रहे थे, मैं ट्रेन से उतरकर घर जाने को स्टेश्न से निकला। नींद शरीर और आँखों को परेशान कर रही थी, लेकिन घर जाना ही था, सो स्टेशन के सामने बड़ी मुख्य सडक़ पर किनारे-किनारे पैदल ही चलना शुरू कर दिया। ताज्जुब हो रहा था, वातावरण देखकर, आधा सोया-आधा जागा सा। मैने देखा, रात के इस पहर में अब भी पिछली शाम की भीड द्वारा छोड़ दिये गये अवशेष, जो अक्सर किसी मेले, या उत्सव-त्यौहार के बाद लोग छोड़ जाते है। सोचा शहर में इतनी भीड़-भाड़ क्यो रही होगी? याद आया, कोई बड़ा त्यौहार था जिसमें शहर में चौबीस घंटे रौनक रहती है। खैर... मैं पैदल आगे बढऩे लगा... सडक़े के दोनों किनारो पर काफी मात्रा में संभवत: गाड़ोलिया समाज के अस्थायी डेरे दिखाई दे रहे थे, जो मेरे शहर से जाने से पहले यहाँ नहीं थे, ....इसी त्यौहार में हिस्सेदारी के लिए आए होंगे। ये डेरे सडक़ के दोनों और कतारबद्ध... देखकर थोड़ा आश्चर्य हुआ... और तो और... हर डेरे से बंधे हुए ऊँट.... इतने सारे ऊँट और कुछ जगह घोड़े साथ में दो हाथी भी सडक़ किनारे बंधे थे, जो मैनें पहले कभी एक साथ नही देखे। इधर साफ रहने वाली सडक़ पर यहाँ-वहाँ ऊँटों की विष्ठा बिखरी पड़ी दिखाई दे रही थी। थोड़ा और आगे चला तो देखता हँू कि एक ऊँट लगभग पगलाया सा दौड़ता हुआ कहीं से आया और सोते हुए गडरियों के डेरे में घुस गया। अगले ही पल पुरा डेरा अस्त-व्यस्त, पुरा तंबु उखड़ गया था। इसमें सो रहे महिला, बच्चे, पुरूष इधर उधर भागने लगे। कुछ देर के लिए अफरा-तफरी मच गई। पुरूष और महिला गडरियों ने जैसे-तैसे ऊँट को पकडक़र काबू में किया और उसे शांत कर किनारे पर लगे एक बिजली के खंभे से बांध दिया। इस ऊँट (पटांग) घटना को कुछ पल देख कर मैं आगे बढ़ गया, लेकिन मैं थकावट और नींद से पुरी तरह निढाल हो रहा था, सोचा मेन रोड़ से जाने की बजाय शार्ट रास्ता ले लुं, घर जाने के लिए मेन रोड़ से एक पुरानी मिल में से होकर कुछ पुराने मोहल्लों से होकर रास्ता मेरे घर को जाता है, यही रास्ता ठीक है, जल्दी घर पहँुचने के लिए। मैं चल दिया... मिल परिसर के बीच बने कच्चे पक्के रास्ते से....कुछ अंधेरा, कहीं हल्की रोशनी वाली जलती बुझतीं खंबे पर लगी टयुबलाईट के उजाले में... इधर बरसात का मौसम है, और रात का समय, तो वातावरण में वैसे भी ठंडक घुली हुई है, दुसरी तरफ यात्रा के कारण शरीर टुटन एक कदम भी आगे चलने से रोक रही है, लेकिन किया भी क्या जा सकता है.. पँहुचना तो है घर। 

अब में मिल परिसर के ऊँचें नीचे खुदे हुए मिट्टी के छोटे-मोटे टीलों को पार कर आगे पुरानी बसी कालोनी में इण्टर हो गया...थोड़ा आगे चला तो रोशनी दिखाई दी...और आगे चलने पर बैण्ड-बाजो की आवाज...शोर-शराबा.. मैं सही था..कोई त्योहार ही है, जो अब तक... इतनी रात तक उसका सुरूर लोगों  पर हैं...अब भीड़ दिखाई देने लगी, जैसे कोई सवारी निकल रही हो...यकायक मेरे सामने सैकड़ों लोगो की भीड़...हाँलाकि कालोनी का मार्ग संकरा था, और इसी मार्ग में यह सवारी आगे की और बढ़ रही थी...जैसे तैसे मैंं भीड़ को चीरने का प्रयास करता आगे की और बढऩे लगा...कुछ दुर चलकर रास्ता और संकरा हो गया...आगे बैण्ड तेज आवाज में...लोगों का हुजूम...जैसे इन दो तीन बैण्ड के पीछे लगभग कतार बनाकर चलते लोग...इससे आगे निकलना मुश्किल हो रहा था...सो...मैं भी कतार में लग गया.....जिस जगह मैं कतार में लगा...वहाँ भीड़ कम थी....कुछ कदम चलने के बाद मुझे अपने पीछे सरसराहट हुई...तुरंत अपना दाया हाथ पीछे की जेब की तरफ बढ़ाया...तभी अचानक मेरे हाथ ने दुसरा हाथ पकड ़लिया.. अचानक पटल कर पीछे देखा.... कोई बारह-पन्द्रह साल के दो बच्चे मेरे पीछे थे और उनमें से एक का हाथ मेरी जेब पर था, जिसे मैने पकड़ लिया था.. दोनों बच्चे मेरी तरफ देखने लगे..उनकी आँखों में ज़रा भी भय नहीं था कि मैने उनको देख लिया और सरेराह जेब काटते रंगे हाथ पकड़ लिया...वो साहस भरे स्वर में अरे यार..शीट्ट...कहकर दाएं-बाएं होने की मुद्रा में आ गये, मैं अपने आपको संभाल ही रहा था कि दोनो बच्चें आँखों से ओझल हो गये। अब मैं इस परिस्थिति से बाहर निकलने को व्याकुल था, जैसे-तैसे भीड़ को चीरते हुए जुलूस से आगे निकल गया... थोड़ा आगे जाकर इस पुरानी कॉलोनी के खत्म होते ही बाउंड्री वाल में बने एक छोटे से रास्ते से बाहर निकला और महसुस होने लगा की मैं शायद थकान और नींद की वजह से रास्ता भुल रहा हँू..? फिर भी आगे बढ़ा...देखा, फिर वहीं कच्चा ऊँचा-निचा रास्ता जो आगे चलकर शायद किसी मंदिर की और जा रहा था...चलते हुए मैं भी पँहुच गया.. मैं अब समझ गया था कि रास्ता भुल गया हँु... तभी कुछ जाने पहचाने चहरे दिखे... कोई पाँच-सात लोग बाहर निकल रहे थे... मुस्कूराते हुए मैने बाहर जाने का रास्ता पुछा... उनमें से एक ने हँसकर मुझे हाथ से इशारा कर एक दिशा में जाने को कहा... मुझे कि संभवत: मैं नहीं जानता इनमें से किसी को भी... खैर... मैं उस दिशा में चल दिया... आगे चलकर लगभग मैदान सी जगह... जिसके आगे कोई कॉलोनी दिखाई पड़ रही थी... इस मैदान से गुज़रते हुए मैने देखा.... कुछ दस-बारह युवकों की टोली मोटरसाईकिल खड़ी कर बतिया रही थी... हुलिये से बदमाश लग रहे थे... यकायका वे मेरी तरफ देखने लगे... मुझे लगा अब गए काम से शायद... क्या पता... मारपीट करें... लुट लें..? मैने अपनी चाल बढ़ाई और उनमें से कोई भी कोई हरकत करे, इससे पहले मैं उस जगह को पार कर गया और कॉलोनी के रास्ते पर आ गया.... यहाँ देखा फिर वहीं रौनक... घरों के ओटलों पर बच्चे-महिलाएं खड़े है... एक दुसरे से गपशप करते हुए ये लोग शायद इस त्यौहार की मस्ती में लग रहे थे..। हांलाकि इस रास्ते पर कोई जुलूस वगैरह नहीं था...तभी मैने एक घर के ओटले पर खड़ी एक महिला से पुछा....

ये आगर रोड़ का रास्ता किधर से है..? (आगर रोड़ वही रोड़ है, जिससे मैन स्टेशन से उतरकर चलना शुरू किया था, इस रोड़ से मेरा घर नज़दीक है।) 

महिला ने अचंभे भरे स्वर में कहा.... आगर रोड़..... कोनसा...? ये तो बैतुल है।

ये सुनकर मेरे पैरो से ज़मीन खिसक गई.... आश्यर्च से दिमाग घुमने लगा... सोच में पड़ गया....बैतुल.... बैतुल कैसे....?

थोड़ी ठंडी सांस लेकर मैने उसी महिला से पुछा... ये बस स्टेण्ड का रास्ता किधर से है.....

महिला ने कहा... थोड़ी ही दुर है... आप इस रास्ते को खतम करेंगे तो वहीं से कॉलोनी की दीवार के बीच एक रास्ता है...उसके बाहर बस स्टैण्ड है।

मेरी हालत अब हद से ज्य़ादा खराब थी....लेकिन इस जगह कर भी क्या सकता था....मैं थके पैरों से चल दिया और कुछ दुर जाकर ही दीवार के बीच बने रास्ते से बस स्टैण्ड पहँुच गया। 

अब मुझे अपने शहर के लिए बस की तलाश करना थी...सोच ही रहा था कि किससे पुछा जाय....।

त्यौहार की वजह से बस स्टैण्ड पर भी अच्छी-खासी भीड़ थी, लोग लाईन लगाकर कांउटर में अपने-अपने गंतव्य की टिकट ले रहे थे। मैं लाईन से अलग काउंटर पर पँहुचा और चेहरा झुकाकर खिड़की में बैठे बाबु से मेरे गंतव्य को जाने वाली बस के बारे में पुछ ही रहा था, दुसरी तरफ से शोर था की लाईन में लगकर टिकट लो... कि तभी, एक हाथ मेरे कंधे पर आया, मैं पलट कर देखता कि..... इतने में मेरी नींद खुल गई।

मैं बिस्तर पर दाएं-बाएं देखने लगा... उठकर मुंह पर हाथ फेरा... पास पड़े मोबाईल में टाईम देखा तो सुबह के साढे नो बज चुके थे। मन अब भी विचलित था। झटके से रजाई को हटाते हुए वाश बेसिन में जाकर मुंह पर पानी मारा... कुछ पल लगे नार्मल होने में... फिर आकर बिस्तर पर बैठ गया और सोचने लगा कि ये सब क्या था। सुबह के समय, ये कैसा सपना? खयाल आया, इसके बारे में थोड़ा पढ़ लू। एक दो किताब और इंटरनेट खंगाला, तो कुछ वैज्ञानिकों के कथन सामने आए। इटली के वैज्ञानिक एलसेंड्रो फोगली का मानना है कि सपने हमारी रोजमर्रा की जिंदगी से प्रभावित होते है। जैसे-अनिंद्रा, अवसाद, चिंता, दुख-सुख आदि। उक्त नकारात्मक स्थितियाँ और घटनाएं हमारे सपनो पर प्रतिकुल प्रभाव डालती है। मिस्र में एक अध्ययन में स्वप्न में आए दृश्यों का अर्थ समझने पर काफी परिश्रम हुआ। डिक्शनरी ऑफ ड्रीम्स में मिस्र के ऐसे अध्ययन का आश्चर्यजनक उल्लेख भी है। इसके मुल सिद्धांत भारतीय चिंतन से मिलते जुलते है। मनोवैज्ञानिक सिग्मन फ्राएड के अनुसार सारे सपने हमारी इच्छा का ही परिणाम है। भारतीय ग्रंथ अर्थववेद में काम देवता को स्वनसर्जक कहा गया है। एक और वैज्ञानिक डाक्टर चाल्र्स युंग के अनुसार सपने मानसिक प्रतिक्रिया है जो मुख्यत: अपने लक्ष्य सिद्धी के लिए होते है तो वहीं एक और वैज्ञानिक केल्विन एस हॉल ने सपनों का सिद्धांत दिया जिसमें बताया कि सपने विचार या विचार की श्रंखला है।

सार यह कि.... अवसाद से बचें, पुरी नींद लें, चिंता और दुख को अपने से दुर रखें, मस्त रहें, हंसते-मुस्कूराते।

आनंदमयी जीवन जियें।

© लेखक- डॉ. मोहन बैरागी

Thursday, August 4, 2022

गीत - समय, समय से घट जाए तो घट जाने दे.... लेखक - डॉ. मोहन बैरागी


 समय, समय से घट जाए तो घट जाने दे

मझधारों से लड़ माँझी तू नैया तट जाने दे


अँधियारो से लड़ तू दीप जलाकर मन का

फिर बरखा बरसेगी फिर महीना सावन का

भीतर के दुःख को सारे कहीं सिमट जाने दे

मझधारों से लड़ माँझी तू नैया तट जाने दे


छोड़ के दुनिया के वैभव की उलझन को

अब तोड़ दे सारे आभासी झूठे दर्पन को

उड़ते पंछी को घर के लिए पलट जाने दे

मझधारों से लड़ माँझी तू नैया तट जाने दे


असली नकली लोगो की रौनक खूब रिझाती

कभी कभी ये बुद्धि इतना अंतर ना कर पाती

भूलो वे साथ उन्ही के उनका कपट जाने दे

मझधारों से लड़ माँझी तू नैया तट जाने दे


ये माना कुछ पल चले गए हैं व्यर्थ सही

ज़िद कर तू ढूंढेगा जीवन के अर्थ सही

ख़ुद आएगी मंजिल, इसे लिपट जाने दे

मझधारों से लड़ मांझी तू नैया तट जाने दे

©डॉ. मोहन बैरागी


Saturday, July 30, 2022

पेरेंटिंग में क्लासिकल कंडीशनिंग लेखक :- डॉ. मोहन बैरागी


पेरेंटिंग में क्लासिकल कंडीशनिंग

लेखक :- डॉ. मोहन बैरागी

          मनोवैज्ञानिक जॉन बोल्बी ने विचलन पर एक अध्ययन में बताया कि माँ का सहज प्रेम न मिलने से बच्चे अपराधी बनते है, लगभग यही बात भारत मे महात्मा गांधी ने भी कही की मेरी परवरिश में मेरी माँ का हाथ है, और मेरी दो माँ है , एक पुतलीबाई और दूसरी गीता। इन्ही दोनों से संस्कार मुझे मीले है। और इन मिले संस्कारों से बालक मोहन दास आगे चलकर महात्मा गांधी हो गया, जिसे दुनिया मानती है।

           भारतीय परिवारों में पेरेंट्स लगभग प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से बच्चों को सिखाते है, प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में अपने पेरेंट्स या माता पिता एवं परिवार के आचार विचार, भाषा व क्रियात्मक गतिविधियों को बच्चे देखकर समय के साथ स्वाभाविक रूप से अपने मे धारण करते है।

            जैसे यदि परिवार के किसी बड़े सदस्य को किसी बात पर क्रोध आता तब वह सामान्य रूप से अनजाने में ही सही अपने क्रोध को बच्चों पर डाटते हुए निकालते है। मनोविज्ञान में एक शब्द आता है जिसे कहते है स्केप बोट। जिसका अर्थ होता है बली का बकरा, मतलब सामान्यतः बच्चे वो होते है जिन पर पेरेंट्स अपने गुस्से को निकालते है। बच्चों को सिखाने का सही तरीका है परोक्ष रूप से उनको संस्कार सिखाना, अर्थात जो गतिविधियां पेरेंट्स घर मे कर रहे है, बच्चे उनको देखकर सीखते है, और उन्ही चीजो को अपनाते है।

              जॉन बोन्दुरा नाम के वैज्ञानिक ने भी कहा कि बच्चे ऑब्जरवेशन से सीखते है। अर्थात क्लासिकल कंडीसीनिंग के अनुसार सिखते है, मतलब परिवेश को देखकर सीखते है। कुल मिलाकर परिवार के मूल्यों से बच्चों में संस्कार हस्तांतरित होते है। एक उम्र तक तो बच्चे परिवार से सीखते है लेकिन 13 से 19 साल के बीच की उम्र (मनोविज्ञान में इसको गैंग एज या पीयर ग्रुप कहा जाता है) में बच्चों पर बाहर का प्रभाव पड़ने लगता है और इसी उम्र में बच्चे लगभग परिवार से बाहर की दुनिया से भी प्रभावित होने लगते है। अथवा मित्र समूह का प्रभाव होता है। 0 से 3 की आयु में सम्पूर्ण प्रभाव पड़ता है तथा 3 से 12 वर्ष की आयु में महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। 20 वर्ष के बाद व्यवसायिक दुनिया का प्रभाव पड़ने लगता है। 20वी सदी के महान मनोवैज्ञानिक ऐरिक फ्रॉम ने अपनी किताब आर्ट ऑफ लविंग में प्रेम की विस्तृत विवेचना की, जिसमे प्रेम के विविध रूप बताए। इसिमें लिखा कि माँ का प्यार बच्चों के लिए अनकंडीशनल होता है, जबकि पिता का प्यार नही, और ऐसी स्थिति में वो अपने बच्चे के हित मे दूसरों के हितों से समझौता कर लेता है। महिलाएं बच्चों के लिए जुडिशियस नही होती है।अतः महिलाये अनकंडीशनल प्रेम करने में पुरुष या पिता से बहुत आगे होती है।

              सिगमंड फ्राईएड ने कहा कि महिलाये पुरुषों की तुलना में अपूर्ण है, जबकि उन्ही की एक शिष्या नैंसी कोडोरो ने कहा महिलाये पुरुषों की तुलना में पूर्ण होती है, वो जिंदगी भर भावनात्मक अवस्था मे सम रहती है। महिला परिवार के हर सदस्य के साथ सहज रहती है। फ्राईएड कहते है  कि जैसे बेटी पिता के लिए ज्यादा प्यारी होती है और बेटा माँ के लिए, जबकि नैंसी कोडोरो ने इसके उलट कहा कि बेटी हो या बेटा उनका पहला प्यार उनकी माँ है क्योकि हर स्थिति में बच्चों की आवश्यकताएं माँ ही पूरा करती है। जैसे छोटे बच्चे, चाहे वो लड़का हो या लड़की उसकी हर जरूरत माँ ही पूरा करती है।वह यह भी कहती है कि पुत्र सामान्यतः उम्र बढ़ने के साथ विद्रोही होते जाते है, और धीरे धीरे  एक उम्र के बाद वो बाहरी दुनिया मे ज्यादा रमते है वहाँ का आकर्षण उनमे ज्यादा होता है और सफलता को लताशते हे। देखा भी गया है सामान्यतः जो पुरुष बाहरी दुनिया मे सफल होते है वो घर मे भावनात्मक रूप से असफल होते है। हालांकि इसके पीछे उनकी परिस्थितियों का प्रभाव होता है। नैंसी कोडोरो ने इस फिनोमिना को द विल इनेक्सप्रेसिवेनेस नाम दिया। पुरुष सामान्यतयः अपनी भावनात्मक दृष्टि को प्रस्तुत नही कर पाता, जबकि महिलाओ में यह नही देखा जाता, महिलाओ के व्यक्तित्व में इमोशन तुरंत अपने केंद्र पर पहुच जाते है और वो एक्सप्रेस कर देती है, जिसे इन एक्सप्रेसिवन्स कहा।

               सार यह कि बच्चों को परोक्ष रूप से सीखाना सही होता है। अतः परिवार के सदस्यों का आचरण इस तरह हो कि बच्चे परोक्ष रूप से बड़ो को अवलोकन करके सीख सके।

©डॉ.मोहन बैरागी



Wednesday, July 20, 2022

आदर्श मूल्यों की वक्रता और मनुष्य, लेखक - डॉ. मोहन बैरागी

 



आदर्श मूल्यों की वक्रता और मनुष्य

लेखक - डॉ. मोहन बैरागी

वै नैतिक आदर्श जिन्हें कोई समाज अपनाना चाहता है। लेकिन दो अलग व्यक्तियों के मूल्य अलग अलग होते है। यह भी माना जाता है कि तर्क प्रक्रिया से मूल्य प्रभावित नही होते है तथा तर्कों को कोई मनुष्य विवेकपूर्ण स्वीकार करता है तब मूल्य स्थापना आसान हो जाती है। कह सकते है कि वे नैतिक आदर्श जिनकी प्राप्ति के लिए सेक्रिफाईज कर सकते है, वेल्यू या मूल्य कहलाते है।

एक दार्शनिक हुए थामस हॉप, जिनके अनुसार समाज पूर्व में ऐसा नही था जो आज है, पहले हर व्यक्ति को दूसरे से ख़तरा था। धीरे धीरे समाज मे एक दूसरे पर भरोसा स्थापित हुआ और नैतिक आदर्श मूल्य बनने लगे।

समाज अथवा मनुष्य में नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिये अलग अलग सिद्धान्त, नियम, प्रतिमान निर्धारित किये गए है जिनसे नैतिक मूल्यों की स्थापना में मदद मिलती है।

नीतिशास्त्र के अनुसार डायकोटमी या द्वैध मनोवृत्ति

वह वृत्ति है जो आमतौर बचपन से जो दिमाग मे बैठ जाती है, जिसका अर्थ है किसी भी वस्तु या व्यक्ति को दो हिस्सों में बाँटकर देखने की आदत। नीतिशास्त्र के ही  सिद्धान्त के अनुसार हम अच्छे और बुरे दोनों है। और व्यक्ति सामान्यतः इसमे से केवल एक अच्छे पक्ष को अपने लिए मानकर चलता है।

दूसरा सिद्धान्त सातत्य वादी दृष्टिकोण या कॉन्टिनम अप्रोच होता है जिसके अनुसार हर व्यक्ति अच्छा और बुरा दोनों होता है। अच्छाई से बुराई की यात्रा ही कॉन्टिनम अप्रोच होती है, अर्थात न कोई अच्छा है न कोई बुरा है, हर व्यक्ति कॉन्टिनम स्केल के पैमाने पर चलता है। 

नैतिक मूल्य वे है जो समाज के हित में हो लेकिन अस्तित्ववाद के एक दार्शनिक किरके गार्ज ने कहा कि महान से महान व्यक्ति का महान से महान निर्णय भी तब तक सही नही है जब तक कि उसने अपनी अंतर आत्मा से उसे पुष्ट न करवा लिया हो।

सिग्मंन फ्राइड के अनुसार भीतर की आवाज़ या अंतर आत्मा जो कहे वही सही है, जिसमे कोई अंतर्द्वंद न हो। उनके अनुसार सुपर ईगो या नैतिक मन या इड या स्वार्थी मन दूसरी तरफ खिंचता है।

लेकिन आम मनुष्य के लिए नैतिकता के पैमाने निश्चित करना थोड़ा कठिन है, कई बार वह तय नही कर पाता कि क्या सही है और क्या गलत। जैसे प्यास बुझाने के तत्व को जल कहे या पानी..? तो ऐसी स्थिति के लिए भाषा दार्शनिक क्वाईन ने कहा कि दुनिया मे कोई भी दो शब्द पर्यायवाची नही हो सकते। उनके अनुसार पूर्ण पर्याय तथा अपूर्ण पर्याय होता है। जब कोई शब्द अपने उद्भव से ही समान अर्थ रखता हो और नैतिक ढाँचों के द्वारा स्वीकार कर लिया गया हो वही सही है। समझना थोड़ा मुश्किल है लेकिन यहां भी व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुरूप तय कर लेता है कि क्या सही है।

वैल्यू या नैतिकता की तटस्थता किसी व्यक्ति में किस स्तर तक हो सकती है इसका उदाहरण सुकरात की कहानी से लिया जा सकता है। सुकरात के अपने मूल्य इस हद तक स्थापित थे और उनकी तटस्थता का स्तर उच्चतर था, यह इस बात से प्रमाणित होता है कि जब सुकरात ने ईश्वर के विषय मे कुछ विचार समाज के सामने रखे, जो समाज के कुछ लोगो को पसंद नहीं आये, जिस पर दंड स्वरूप सुकरात को मृतुदण्ड की सजा सुनाई गई। इस घटना के बाद सुकरात के शिष्य प्लेटो ने अपने गुरु को जेल से भागने की योजना बनाई और सुकरात से आग्रह किया। सुकरात ने इस पर प्लेटो से कहा कि "मौत के डर से मैं जेल से भागूंगा नहीं, यदि मैं भाग गया तो अपने शरीर को तो बचा लूंगा, लेकिन विचार मर जायेंगे, जबकि शरीर से ज्यादा विचार महत्वपूर्ण है। और इसके अगले दिन सुकरात ने स्वयं ही ज़हर का प्याला पी कर प्राण त्याग दिए। इस कथा से तातपर्य यह कि सुकरात की अपने जन्म से विकासक्रम के साथ बने नैतिक मूल्य व मोरालिटी की रक्षा की।

न्यूटन और गेलिलियो जैसे लोगों को भी समाज में ऐसी ही स्थितियों का सामना करना पड़ा और उन्होंने अपने अपने तरह से समाज को इसके जवाब दिए।

अंत मे कह सकते है कि सामाजिक ताना बाना एक व्यवस्था के अनुरूप बनता है, या यूं कहें कि कई सारी व्यवस्थाओं को मिलाकर एक व्यवस्था बनती है जिसको समाज सर्वमान्य रूप से मान लेता है। इसके लिए आवश्यक है कि कुछ आधारभूत मूल्य व आचरण, प्रतिमान सभी मे समान रूप से उपलब्ध हों। जब यह आधारभूत नैतिक मूल्य,आचरण व प्रतिमान अधिक मात्रा में उपलब्ध हों, तब यह सामाजिक व्यवस्था बनती है, लेकिन यह भी सच है कि कुछ हिस्सा ऐसा भी होता है जहां मूल्य व आचरण का सामंजस्य नही हो पाता। इसी असामनता व असंगत सामजंस्य के तानेबाने से समाज नामक संस्था का निर्माण होता है।

सार यह कि नैतिक जीवन के आदर्श से स्थापित प्रतिमानों को मानें और समाज निर्माण में अपनी भूमिका का निर्वहन करें।

©डॉ.मोहन बैरागी

20/7/2022