भाग्य से जीतना क्यो कठिन हो रहा
लिखने वाला कथानक कहीं सो रहा
जगाओ उसको कहो नींद से
देख लो पीर बढ़ती मेरी जा रही
झांकते रोज़ आंसू आंख की कोर से
लड़ते जीवन से हर दिन रहे भोर से
हारना जीतना जैसे जानते भी नहीं
कुछ न कुछ छूटता रोज़ हर और से
अपेक्षाएं मुझसे लड़ती मेरी जा रही
देख लो पीर बढ़ती......
हो विधाता या तुम फिर मदारी कोई
क्या लिखा डोर खिंचति हमारी कोई
ना सपन ही मिले झिलमिलाहट लिए
मुस्कुराहट मिली ना कोई आहट लिए
परछाई मुझसे पीछड़ती मेरी जा रही
देख लो पीर बढ़ती.....
हिमशिखर कई गढ़े रात दिन एक कर
था पता पिघलेंगे सारे सूर्य को देखकर
थे प्रयासों में हम इनसे घर को बनाना
जो कहानी में कर्तव्य थे सब निभाना
योजना मुझसे बिगड़ती मेरी जा रही
देख लो पीर बढ़ती.....
जब बनाती रही धूप जीवन के चित्र
बन के साया खड़ा साथ में हो गया
मूल आकार से कुछ अलग सा दिखा
तब अचानक से मैं सोचने फिर लगा
मैं नहीं आकृति जो गढ़ती मेरी जा रही
देख लो पीर बढ़ती.....
©डॉ. मोहन बैरागी/14 अप्रैल 18
लिखने वाला कथानक कहीं सो रहा
जगाओ उसको कहो नींद से
देख लो पीर बढ़ती मेरी जा रही
झांकते रोज़ आंसू आंख की कोर से
लड़ते जीवन से हर दिन रहे भोर से
हारना जीतना जैसे जानते भी नहीं
कुछ न कुछ छूटता रोज़ हर और से
अपेक्षाएं मुझसे लड़ती मेरी जा रही
देख लो पीर बढ़ती......
हो विधाता या तुम फिर मदारी कोई
क्या लिखा डोर खिंचति हमारी कोई
ना सपन ही मिले झिलमिलाहट लिए
मुस्कुराहट मिली ना कोई आहट लिए
परछाई मुझसे पीछड़ती मेरी जा रही
देख लो पीर बढ़ती.....
हिमशिखर कई गढ़े रात दिन एक कर
था पता पिघलेंगे सारे सूर्य को देखकर
थे प्रयासों में हम इनसे घर को बनाना
जो कहानी में कर्तव्य थे सब निभाना
योजना मुझसे बिगड़ती मेरी जा रही
देख लो पीर बढ़ती.....
जब बनाती रही धूप जीवन के चित्र
बन के साया खड़ा साथ में हो गया
मूल आकार से कुछ अलग सा दिखा
तब अचानक से मैं सोचने फिर लगा
मैं नहीं आकृति जो गढ़ती मेरी जा रही
देख लो पीर बढ़ती.....
©डॉ. मोहन बैरागी/14 अप्रैल 18