Dr.Mohan Bairagi

Saturday, July 30, 2022

पेरेंटिंग में क्लासिकल कंडीशनिंग लेखक :- डॉ. मोहन बैरागी


पेरेंटिंग में क्लासिकल कंडीशनिंग

लेखक :- डॉ. मोहन बैरागी

          मनोवैज्ञानिक जॉन बोल्बी ने विचलन पर एक अध्ययन में बताया कि माँ का सहज प्रेम न मिलने से बच्चे अपराधी बनते है, लगभग यही बात भारत मे महात्मा गांधी ने भी कही की मेरी परवरिश में मेरी माँ का हाथ है, और मेरी दो माँ है , एक पुतलीबाई और दूसरी गीता। इन्ही दोनों से संस्कार मुझे मीले है। और इन मिले संस्कारों से बालक मोहन दास आगे चलकर महात्मा गांधी हो गया, जिसे दुनिया मानती है।

           भारतीय परिवारों में पेरेंट्स लगभग प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से बच्चों को सिखाते है, प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में अपने पेरेंट्स या माता पिता एवं परिवार के आचार विचार, भाषा व क्रियात्मक गतिविधियों को बच्चे देखकर समय के साथ स्वाभाविक रूप से अपने मे धारण करते है।

            जैसे यदि परिवार के किसी बड़े सदस्य को किसी बात पर क्रोध आता तब वह सामान्य रूप से अनजाने में ही सही अपने क्रोध को बच्चों पर डाटते हुए निकालते है। मनोविज्ञान में एक शब्द आता है जिसे कहते है स्केप बोट। जिसका अर्थ होता है बली का बकरा, मतलब सामान्यतः बच्चे वो होते है जिन पर पेरेंट्स अपने गुस्से को निकालते है। बच्चों को सिखाने का सही तरीका है परोक्ष रूप से उनको संस्कार सिखाना, अर्थात जो गतिविधियां पेरेंट्स घर मे कर रहे है, बच्चे उनको देखकर सीखते है, और उन्ही चीजो को अपनाते है।

              जॉन बोन्दुरा नाम के वैज्ञानिक ने भी कहा कि बच्चे ऑब्जरवेशन से सीखते है। अर्थात क्लासिकल कंडीसीनिंग के अनुसार सिखते है, मतलब परिवेश को देखकर सीखते है। कुल मिलाकर परिवार के मूल्यों से बच्चों में संस्कार हस्तांतरित होते है। एक उम्र तक तो बच्चे परिवार से सीखते है लेकिन 13 से 19 साल के बीच की उम्र (मनोविज्ञान में इसको गैंग एज या पीयर ग्रुप कहा जाता है) में बच्चों पर बाहर का प्रभाव पड़ने लगता है और इसी उम्र में बच्चे लगभग परिवार से बाहर की दुनिया से भी प्रभावित होने लगते है। अथवा मित्र समूह का प्रभाव होता है। 0 से 3 की आयु में सम्पूर्ण प्रभाव पड़ता है तथा 3 से 12 वर्ष की आयु में महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। 20 वर्ष के बाद व्यवसायिक दुनिया का प्रभाव पड़ने लगता है। 20वी सदी के महान मनोवैज्ञानिक ऐरिक फ्रॉम ने अपनी किताब आर्ट ऑफ लविंग में प्रेम की विस्तृत विवेचना की, जिसमे प्रेम के विविध रूप बताए। इसिमें लिखा कि माँ का प्यार बच्चों के लिए अनकंडीशनल होता है, जबकि पिता का प्यार नही, और ऐसी स्थिति में वो अपने बच्चे के हित मे दूसरों के हितों से समझौता कर लेता है। महिलाएं बच्चों के लिए जुडिशियस नही होती है।अतः महिलाये अनकंडीशनल प्रेम करने में पुरुष या पिता से बहुत आगे होती है।

              सिगमंड फ्राईएड ने कहा कि महिलाये पुरुषों की तुलना में अपूर्ण है, जबकि उन्ही की एक शिष्या नैंसी कोडोरो ने कहा महिलाये पुरुषों की तुलना में पूर्ण होती है, वो जिंदगी भर भावनात्मक अवस्था मे सम रहती है। महिला परिवार के हर सदस्य के साथ सहज रहती है। फ्राईएड कहते है  कि जैसे बेटी पिता के लिए ज्यादा प्यारी होती है और बेटा माँ के लिए, जबकि नैंसी कोडोरो ने इसके उलट कहा कि बेटी हो या बेटा उनका पहला प्यार उनकी माँ है क्योकि हर स्थिति में बच्चों की आवश्यकताएं माँ ही पूरा करती है। जैसे छोटे बच्चे, चाहे वो लड़का हो या लड़की उसकी हर जरूरत माँ ही पूरा करती है।वह यह भी कहती है कि पुत्र सामान्यतः उम्र बढ़ने के साथ विद्रोही होते जाते है, और धीरे धीरे  एक उम्र के बाद वो बाहरी दुनिया मे ज्यादा रमते है वहाँ का आकर्षण उनमे ज्यादा होता है और सफलता को लताशते हे। देखा भी गया है सामान्यतः जो पुरुष बाहरी दुनिया मे सफल होते है वो घर मे भावनात्मक रूप से असफल होते है। हालांकि इसके पीछे उनकी परिस्थितियों का प्रभाव होता है। नैंसी कोडोरो ने इस फिनोमिना को द विल इनेक्सप्रेसिवेनेस नाम दिया। पुरुष सामान्यतयः अपनी भावनात्मक दृष्टि को प्रस्तुत नही कर पाता, जबकि महिलाओ में यह नही देखा जाता, महिलाओ के व्यक्तित्व में इमोशन तुरंत अपने केंद्र पर पहुच जाते है और वो एक्सप्रेस कर देती है, जिसे इन एक्सप्रेसिवन्स कहा।

               सार यह कि बच्चों को परोक्ष रूप से सीखाना सही होता है। अतः परिवार के सदस्यों का आचरण इस तरह हो कि बच्चे परोक्ष रूप से बड़ो को अवलोकन करके सीख सके।

©डॉ.मोहन बैरागी



Wednesday, July 20, 2022

आदर्श मूल्यों की वक्रता और मनुष्य, लेखक - डॉ. मोहन बैरागी

 



आदर्श मूल्यों की वक्रता और मनुष्य

लेखक - डॉ. मोहन बैरागी

वै नैतिक आदर्श जिन्हें कोई समाज अपनाना चाहता है। लेकिन दो अलग व्यक्तियों के मूल्य अलग अलग होते है। यह भी माना जाता है कि तर्क प्रक्रिया से मूल्य प्रभावित नही होते है तथा तर्कों को कोई मनुष्य विवेकपूर्ण स्वीकार करता है तब मूल्य स्थापना आसान हो जाती है। कह सकते है कि वे नैतिक आदर्श जिनकी प्राप्ति के लिए सेक्रिफाईज कर सकते है, वेल्यू या मूल्य कहलाते है।

एक दार्शनिक हुए थामस हॉप, जिनके अनुसार समाज पूर्व में ऐसा नही था जो आज है, पहले हर व्यक्ति को दूसरे से ख़तरा था। धीरे धीरे समाज मे एक दूसरे पर भरोसा स्थापित हुआ और नैतिक आदर्श मूल्य बनने लगे।

समाज अथवा मनुष्य में नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिये अलग अलग सिद्धान्त, नियम, प्रतिमान निर्धारित किये गए है जिनसे नैतिक मूल्यों की स्थापना में मदद मिलती है।

नीतिशास्त्र के अनुसार डायकोटमी या द्वैध मनोवृत्ति

वह वृत्ति है जो आमतौर बचपन से जो दिमाग मे बैठ जाती है, जिसका अर्थ है किसी भी वस्तु या व्यक्ति को दो हिस्सों में बाँटकर देखने की आदत। नीतिशास्त्र के ही  सिद्धान्त के अनुसार हम अच्छे और बुरे दोनों है। और व्यक्ति सामान्यतः इसमे से केवल एक अच्छे पक्ष को अपने लिए मानकर चलता है।

दूसरा सिद्धान्त सातत्य वादी दृष्टिकोण या कॉन्टिनम अप्रोच होता है जिसके अनुसार हर व्यक्ति अच्छा और बुरा दोनों होता है। अच्छाई से बुराई की यात्रा ही कॉन्टिनम अप्रोच होती है, अर्थात न कोई अच्छा है न कोई बुरा है, हर व्यक्ति कॉन्टिनम स्केल के पैमाने पर चलता है। 

नैतिक मूल्य वे है जो समाज के हित में हो लेकिन अस्तित्ववाद के एक दार्शनिक किरके गार्ज ने कहा कि महान से महान व्यक्ति का महान से महान निर्णय भी तब तक सही नही है जब तक कि उसने अपनी अंतर आत्मा से उसे पुष्ट न करवा लिया हो।

सिग्मंन फ्राइड के अनुसार भीतर की आवाज़ या अंतर आत्मा जो कहे वही सही है, जिसमे कोई अंतर्द्वंद न हो। उनके अनुसार सुपर ईगो या नैतिक मन या इड या स्वार्थी मन दूसरी तरफ खिंचता है।

लेकिन आम मनुष्य के लिए नैतिकता के पैमाने निश्चित करना थोड़ा कठिन है, कई बार वह तय नही कर पाता कि क्या सही है और क्या गलत। जैसे प्यास बुझाने के तत्व को जल कहे या पानी..? तो ऐसी स्थिति के लिए भाषा दार्शनिक क्वाईन ने कहा कि दुनिया मे कोई भी दो शब्द पर्यायवाची नही हो सकते। उनके अनुसार पूर्ण पर्याय तथा अपूर्ण पर्याय होता है। जब कोई शब्द अपने उद्भव से ही समान अर्थ रखता हो और नैतिक ढाँचों के द्वारा स्वीकार कर लिया गया हो वही सही है। समझना थोड़ा मुश्किल है लेकिन यहां भी व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुरूप तय कर लेता है कि क्या सही है।

वैल्यू या नैतिकता की तटस्थता किसी व्यक्ति में किस स्तर तक हो सकती है इसका उदाहरण सुकरात की कहानी से लिया जा सकता है। सुकरात के अपने मूल्य इस हद तक स्थापित थे और उनकी तटस्थता का स्तर उच्चतर था, यह इस बात से प्रमाणित होता है कि जब सुकरात ने ईश्वर के विषय मे कुछ विचार समाज के सामने रखे, जो समाज के कुछ लोगो को पसंद नहीं आये, जिस पर दंड स्वरूप सुकरात को मृतुदण्ड की सजा सुनाई गई। इस घटना के बाद सुकरात के शिष्य प्लेटो ने अपने गुरु को जेल से भागने की योजना बनाई और सुकरात से आग्रह किया। सुकरात ने इस पर प्लेटो से कहा कि "मौत के डर से मैं जेल से भागूंगा नहीं, यदि मैं भाग गया तो अपने शरीर को तो बचा लूंगा, लेकिन विचार मर जायेंगे, जबकि शरीर से ज्यादा विचार महत्वपूर्ण है। और इसके अगले दिन सुकरात ने स्वयं ही ज़हर का प्याला पी कर प्राण त्याग दिए। इस कथा से तातपर्य यह कि सुकरात की अपने जन्म से विकासक्रम के साथ बने नैतिक मूल्य व मोरालिटी की रक्षा की।

न्यूटन और गेलिलियो जैसे लोगों को भी समाज में ऐसी ही स्थितियों का सामना करना पड़ा और उन्होंने अपने अपने तरह से समाज को इसके जवाब दिए।

अंत मे कह सकते है कि सामाजिक ताना बाना एक व्यवस्था के अनुरूप बनता है, या यूं कहें कि कई सारी व्यवस्थाओं को मिलाकर एक व्यवस्था बनती है जिसको समाज सर्वमान्य रूप से मान लेता है। इसके लिए आवश्यक है कि कुछ आधारभूत मूल्य व आचरण, प्रतिमान सभी मे समान रूप से उपलब्ध हों। जब यह आधारभूत नैतिक मूल्य,आचरण व प्रतिमान अधिक मात्रा में उपलब्ध हों, तब यह सामाजिक व्यवस्था बनती है, लेकिन यह भी सच है कि कुछ हिस्सा ऐसा भी होता है जहां मूल्य व आचरण का सामंजस्य नही हो पाता। इसी असामनता व असंगत सामजंस्य के तानेबाने से समाज नामक संस्था का निर्माण होता है।

सार यह कि नैतिक जीवन के आदर्श से स्थापित प्रतिमानों को मानें और समाज निर्माण में अपनी भूमिका का निर्वहन करें।

©डॉ.मोहन बैरागी

20/7/2022

Wednesday, July 13, 2022

यथार्थ में आदर्श या आदर्श में यथार्थ लेखक :- डॉ. मोहन बैरागी


यथार्थ में आदर्श या आदर्श में यथार्थ

लेखक :- डॉ. मोहन बैरागी

मनुष्य के वर्तमान जीवन में यथार्थवाद की अधिकता है और आदर्श तथा मूल्य समाप्त होते जा रहे है।

सरल भाषा मे कहें तो मनुष्य जीवन के सच को यथार्थ कहा जा सकता है और यह सामाजिक, मनोवैज्ञानिक आदि कई प्रकार का हो सकता है। इसी यथार्थ से कभी कभी आदर्श की भी प्रतिस्थापना होती है। 

आधुनिक सोच तथा तात्कालिक मनःस्थिति में विवेकहीनता दिखाई पड़ रही है। साहित्य में भी आधुनिक काल के लेखकों ने आदर्श से ज्यादा यथार्थ को महत्व दिया है। ज्यादातर लेखकों ने रिश्तों में प्रेम का उल्लेख किया, और वो भी छायावाद के प्लेटोनिक प्रेम की तरह। इसी क्रम को जयशंकर प्रसाद तथा प्रेमचंद जैसे लेखकों ने भी लिखा, जिसमे संबंधों में प्रेम तो है, लेकिन अपर्याप्त या अप्राप्त..? यहां प्रेम के औदात्य या उसकी गरिमा को कुछ इस तरह दर्शाया या लिखा गया कि यह मनुष्य जीवन का हिस्सा तो है, पर पूर्णता नहीं है। कहा जा सकता है कि आधुनिक कहानियों में यथार्थवाद हावी है आदर्शवाद नही।

विचारणीय है कि मनुष्य की कहानी के यथार्थवाद महत्वपूर्ण है या यथार्थवाद की कहानियां।

आधुनिक काल में 1901 में माधवराव सप्रे की हिंदी साहित्य की पहली कहानी "एक टोकरी भर मिट्टी" थी, जिसमें यही असमंजस है।

थोड़ा और विचार करने पर लगता है कि लेखकों ने मनुष्य को उलझाए रखने या उसकी सोच या विवेक को सक्रिय बनाये रखने के लिए इस तरह के प्रयोग किये है, जबकि

रस के आस्वादन के समय कथा, कथानक, उद्देश्य के साथ उसके यथार्थ के साथ तादात्म्य बैठाने की कला मनुष्य में जन्मजात उपस्थित होती है।

यथार्थ और आदर्श की उलझन को समझने की दृष्टि से कई लेखकों ने इसका भी विवेचन किया। जैसे, मुक्तिबोध ने कहा कि यथार्थवादी कथ्य को प्रस्तुत करने के लिए शिल्प को कभी कभी गेर यथार्थवादी होना पड़ता है। कथ्य यथार्थवादी हो तो आवश्यक नही की शिल्प भी यथार्थवादी हो।  कुछ लेखक तो जीवन मूल्यों से इतर यथार्थ को प्रस्तुत करने की कोशिश में फंतासी तक पहुंच जाते है और पाठक या आम मनुष्य को रोचक ढंग से या नाटकीय ढंग से आदर्श... यथार्थ को दर्शाने के प्रयास में रहते है। एक और लैटिन लेखक गरसिया मारकॉज़ का मानना था कि यह मैजिकल रियलज़म है। अतिप्राकृतिक तत्वों का इस्तेमाल कर यथार्थ को उभारने के प्रयास को मैजिकल रियलज़म माना जाता है। वर्तमाम समय के लेखकों में उदय प्रकाश भी यही प्रयोग करते है।

यथार्थ और आदर्श को लेखकों ने समाज के सामने अपने अपने तरीके से प्रस्तुत किया है।आधुनिक समाज के मनुष्य ने अपनी धारणाये पूर्व प्रसंगों को आधार मानकर तय की हुई है। आदिकाल में जैसे वाल्मीकि रामायण में एक प्रसंग है जिसमे राम वनवास से लौटकर आते है, फिर अवध का राजपाठ संभाल लेते है और वशिष्ठ उनके गुरु है।

किसी एक दिन राम अपने गुरु वशिष्ठ से पूछते है कि राज्य में सबकुछ ठीक है या नही, वशिष्ठ जवाब देते है राजन, यह कार्य आप स्वयं राज्य में घूमकर देखें। तब राम अपने राज्य में घूमकर देखते है, उन्हें एक व्यक्ति तपस्या करते मिलता है, राम प्रसन्न होकर सोचते है कि उनके राज्य में सब सुख शांति है और लोग अपने जीवन कार्य के अलावा तपस्या और भक्ति भी करते है, वे पूछते है, तुम कौन हो...! जवाब मिलता है मेरा नाम शम्बूक है...!, किस वर्ण के हो...शुद्र हूँ..! यह सुनकर राम क्रोधित हो जाते है और तुरंत शम्बूक की गर्दन धड़ से अलग कर देते है, इस विचार से की शुद्र होकर तपस्या कैसे कर सकता है..?

इसी प्रसंग को तुलसीदास जी ने मानस में नही लिखा है...?  कुछ और ऐसे कुछ प्रसंग भवभूति ने अपनी राम कथा में लिखे जबकि तुलसी ने नही लिखे...?  

प्रश्न यह कि कथानक यथार्थवाद के कितने करीब....? 

उत्तर यह, संभवतः यथार्थवाद से ज्यादा आवश्यक आदर्शवाद की स्थापना है। समाज मे आदर्श स्थापित होंगे तभी मनुष्य आदर्श के आधार पर नैतिक जीवन जी सकेंगे।

सार यह कि नैतिक रहें, नैतिक बनें, और आदर्श जीवन जियें।

©डॉ. मोहन बैरागी

14/7/2022

Sunday, July 3, 2022

लय के वलय में घूमता मनुष्य !

 


लय के वलय में घूमता मनुष्य !

स्वांस के आरोह अवरोह से मनुष्य का जीवन चलता है तथा स्वांस के इसी गतिक्रम से मनुष्य जीवित रूप में समाज मे अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है।

अर्थात आरोह-अवरोह के क्रम को, जो लयबद्ध होकर निरंतर चलता है, जिससे मनुष्य के जीवित होने की अनुभूति स्वयं तथा दूसरों को होती है, जिससे लयात्मक होने का  प्रमाण मिलता है, यही लय है।

मनुष्य के मश्तिष्क की स्थिति यह होती है कि जब किसी खास क्रम में कोई चेतना उत्पन्न होती है तब वह किसी रिदम में अनुभूत होती है और यही रिदम या लय उसे आत्मसंतुष्टि की और लेकर जाती है और आत्मसंतुष्ट मनुष्य जीवन को मधुरम तल्लीनता के जीता है।

जीवन के कथानक और कथावस्तु में लय न हो तो जीवन नीरस हो जाता है। मनुष्य का जीवन प्रारम्भ से ही लयबद्ध रहा है। उत्पत्ति तथा विकास के क्रम अथवा उसके आदर्श व यथार्थ को तात्कालिक रूप से नजरअंदाज कर दें तो भी यह स्पष्ट है कि भौतिक वस्तु को नकार कर हम चेतना की तरफ दृष्टिगत होते है तब यही पाते है कि जीवन अथवा जैविक शरीर से संयोजित मनुष्य प्रत्येक चरण व स्तर पर लयबद्ध है। 

हिंदी साहित्य में भी लय को महत्वपूर्ण माना है। साहित्य का पद्य भाग तो लय के बिना अधूरा ही माना जाता है, कमाल यह कि परिभाषा के मान से व्याकरण के मानकों को भंग कर सृजित की गई रचना को पद्य (लयबद्ध) की श्रेणी में रखा जाता है, और व्याकरणगत फ्रेम में लिखी या कही गयी रचना गद्य का हिस्सा हो जाती है, जिसमे लय की अनुपलब्धता होती है। 

गहनता व गंभीरता से ध्यान दें तो हम पाते हैं कि हमारे वेद व पुराण तथा ऐतिहासिक/पौराणिक ग्रंथों से भी समझ आता है कि लय के बिना मानव जीवन की कल्पना ही व्यर्थ है। 

वेद की ऋचाओ से शुरू कर या वाल्मीकि से लेकर सुर, कबीर, मीरा तुलसी के साहित्य से जब दुनिया परिचित हुई या आधुनिक मनुष्य ने जब इनके कहे को जाना तब यह माना कि वाकई सबकुछ लयबद्ध है। रामचरित मानस से लेकर महाभारत में लयबद्धता दिखाई देती है, या कालिदास की शकुंतला से लेकर आधुनिक गद्य कविताएं भी जीवन के लय को प्रदर्शित करती है। इसी लय के तारतम्य में जीवन के बनने की कुंजी है।  मूलतः यह आज का यथार्थवाद भी है। इसी यथार्थ की वजह से दुनियां/ धरती की प्रत्येक वस्तु अपने लय में सुचारू रूप से संचलित हो रही है।

मनुष्य के जीवनक्रम में उसके जीवित रहने को आवश्यक यह लय उसके द्वारा बनाये रिश्तों अथवा जन्मजात प्राप्त रिश्तों में भी आवश्यक होती है। यह लय ही है जो रिश्तों को मधुरता प्रदान करती है तथा उन्हें जीवंत बनाती है। रिश्तों में यदि लय का तानाबाना बिगड़ता है तब लय भंग होती है और रिश्तें टूटन की और बढ़ने लगते है। आधुनिक समाज मे एक साहित्यकार द्वारा कहानी लिखी गयी जिसका नाम था "अलग्योझा" ।

इस कहानी के शीर्षक का तात्पर्य है रिश्तों का या परिवार या संयुक्त परिवार का टूट जाना ? वर्तमान दौर में आत्मनिष्ठ होने की चेष्ठा में हर व्यक्ति या परिवार एक दूसरे से तथा निकटतम रिश्तों से भी विलग होते जा रहे है। यह विलगता या टूटन से दूरियां इस तरह से तय हो रही है,जैसे मैं स्वयं सर्वश्रेष्ठ हूँ और बाकी रिश्ते और विचार मुझ पर अनावश्यक रूप से थोपे जा रहे हैं ? जुड़ाव की अपेक्षा टूटन ज्यादा दिखाई देती है ,और यह टूटन भी वर्तमान संदर्भ में लय के टूटने को दर्शाती है। स्पष्ट है कि प्रकृति में, चल-अचल में, संसार में या मनुष्य जीवन में लय भंग होगी तो गीत नही बनेगा, और जीवन एक सुरीले गीत का नाम है।

अंततः प्रयास हो, सुर, ताल और लय को साधकर सुरीले गीत सा जीवन हो।

©डॉ.मोहन बैरागी