कहानी
खाट
मोटे चश्में के पिछे बुढ़ाई आँखों से पलंग की निवार डोरी को अस्थी-पंजर के निढाल से शरीर से शेष बचे ज़ोर को लगाकर खिंचते ‘रतिराम‘ की स्मृति में कहानी तैर रही थी की किस तरह अपनी मेहनत और ईमानदारी के पैसो से उसनेे एक-एक पाई जोड़कर इस खाट नुमा पलंग को अस्सी रूपये में खरीदा था। टूटी खाट के इर्द-गिर्द जुड़ती स्मृति में कुछ दृश्य दिखाई देने लगे।
विद्या...अरे ओ...विद्या......‘‘सारे घर में कोना-कोना छान मारा....लेकिन इसका कहीं पता नहीं....! कहाँ चली जाती है...घर को सूना छोड़कर......? ये नहीं कि मरद नौकरी से थका हारा घर आयेगा....! उसके लिए कुछ चाय पानी वगै़रह की व्यवस्था करूँ बखत पर....! जब मालूम है....कि कहीं और नहीं जाता....रोज़ शाम को ये बखत घर ही आता है.....‘‘ विद्याआआआ....ओ विद्या....!
तभी एक पुरानी सी मटमैली साड़ी में लिपटी, कुछ उलझे कुछ सुलझे बालों वाली एकदम गोरीचिट्टी भरपुर यौवन लिए एक स्त्री की आवाज़ आई.....? आईईईई....जी.....‘‘पड़ोसन के घर गई थी, कुछ सुना आपने...? उस सावित्री को उसके मरद ने नई साड़ी लाकर दी, वही दिखा रही थी...हम्म.....,बड़ी इतरा-इतरा के दिखा रही थी....?‘‘ लेकिन मेरी ऐसी किस्मत कहाँ कि मेरा मरद मुझे साड़ी लाकर दे...? उसे तो बस घर की फिकर रहती है हरदम...? माना कि हम गरीब है....आपकी नौकरी से दो वक्त की रोटी मिलती है...गुज़ारा करते हैं जैसे-तैसे....? लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हमें अच्छे से रहने, खाने, ओढ़ने का हक नहीं है...? ‘‘ईमानदार जो ठहरे....वो क्या कहते है...? अपने सिद्धांतो से समझौता नहीं करते......? हम्म....चुल्हे मे जाये ऐसी ज़िंदगी....ये भी कोई ज़िंदगी है...? बड़बड़ाते हुए रसोईघर से रतिराम के लिए पानी का ग्लास लेने चली गई।
हाँ..हाँ..., तु बस दुसरों की खुशी देखकर दुखी हुआ कर... ‘विद्या‘...? अरे हमें क्या लेना-देना उनसे...हमको अपनी गृहस्थी देखनी है। और सावित्री के मरद की नौकरी ऐसी है कि उसको उपर की कमाई, मतलब रिश्वत मिलती है....और वो...लेने में ज़रा भी नहीं हिचकता......मैं तो सोच भी नहीं सकता ऐसे पाप का काम करने की। और देखा नहीं तुने....उसके घर में बस अच्छे कपड़े और नकली जे़वर ही हैं...जिनमें दोनो मरद-लुगाई लदे-पदे रहते है...? बाकी देखा घर.....? कैसा जर्जर सा हुआ पड़ा है....अरे...घर में कोई एक रिश्तेदार आ जाये तो बैठने को चटाई तक नहीं...बाकी और सब तो छोड़ो....? और गंदगी इतनी के कुत्ता भी न जाऐ उनके घर...। तु...वो सब छोड़....ला...पानी दे...ज़ोरो की प्यास लगी है....थक जाता हूँ दिनभर इतना काम है नौकरी में।
‘रतिराम‘ पानी पीकर दीवार के सहारे बिछी चटाई पर गहरी साँस लेकर लेटने की कोशिश करता है। और कोई डेढ़ फर्लांग दूर खड़ी ‘विद्या‘ की और देखते हुए सोचने लगता है....कि औरतें होती ही ऐसी है....या ‘विद्या‘ ही ऐसी है....?, जिसे घर-गृहस्थी से ज्यादा चिंता दिखावे का जीवन जीने की है...? हं...दिखावा स्थाई नहीं है....! लेकिन अब कौन समझाए इस मुरख को...? एकलौती, नाज़ो पली जो थी अपने माँ-बाप के यहाँ। पानी पीकर ‘रतिराम‘ इन खयालों में ही था कि फिर उसके कानों में किसी के बिनबिनाने की आवाज सुनाई देने लगी...!
‘‘दस बरस हो गए ब्याह को, ओर सात बरस तुम्हारी नौकरी को.....बस ये चार दिवारी ही बना पाएं हैं हम....ना कभी अच्छा खाया...ना ओढ़ा...! और घर बस बरतन-ठीकरे ही तो जमा किये...। कहां तो बड़े-बड़े सपने दिखाते हो...कि घर को पक्की छत से ढंकना है..., दीवारों को पक्का रंग रोगन करवाना है....अलमारी खरीदना है....खाट खरीदना है...? कहाँ है ये सब...? कब तक कच्ची मिट्टी में ज़मीन पर बिछोने में ही सोना पड़ेगा.....मेरी तो किस्मत ही फूट गई....? पड़ोसने देखों कैसी इतराती फिरती है.....और एक मैं हूँ..?‘‘
तभी गहरी लंबी सांस लेकर ‘रतिराम‘ बोला...., चुप कर मेरी माँ...अब कितनी बार समझाई तुझे....मेरी ईमानदारी और नैतिकता से जितना बन पड़ता है...मैं तेरे और घर के लिए ही तो करता हूँ...! अबके तारीख पर तनखा के अलावा भत्ता भी मिलेगा....तो सबसे पहले तेरे लिए खाट खरीदुंगा...फिर मेरी रानी, महारानी के जैसे खाट पर आराम करेगी....चल अब शांत रह.., और जा मेरे लिए खाना परास दे, बड़ी भुख भी लगी है, फिर आराम करूंगा...कल सुबह मुझे जल्दी दफ्तर जाना है, एक जरूरी फाईल का निरीक्षण कर अफसर को रिपोर्ट देना है।
‘विद्या‘ नाक-भौं सिकोड़ते हुए ‘रतिराम‘ के को खाना परोस कर दीवार के सहारे बिछे बिछोने पर सोने के लिए चली जाती है।
अगले दिन सुबह ‘रतिराम‘ जैसे ही दफ्तर पंहुचता है....तो देखता है कि दफ्तर में अफसर सभी कर्मचारियों की क्लास ले रहा है...गुस्से में एकदम लाल-पीला अफसर ज़ोर-ज़ोर से सभी कर्मचारियों को डांट रहा है....बताओ फाईल कहाँ गई......? एक कर्मचारी......जी बड़े बाबू ‘रतिराम‘ जी के पास निरिक्षण के लिए भेजी थी...अब वे ही कुछ बता सकते है..? तभी ‘रतिराम‘ अफसर के गुस्से से नावाकिफ सामने आता है....जी....जी...साब...वो फाईल तो मेरी टेबल पर ही थी.....आज निरीक्षण कर वापस सौंपना है आपको....।
कहाँ से सौपोंगे...फाईल है कहां अब तुम्हारी टेबल पर.....गायब है फाईल वहां से...? चोरी हो गई है फाईल.? दफ्तर के ही किसी कर्मचारी का हाथ मालूम पड़ता है इसमें....? लगता है पूलिस बुलाना पड़ेगी..? इतनी इंर्पोटेंट फाईल, आज आखरी निरीक्षण के बाद हेड क्वार्टर को रिपोर्ट और फाईल भेजना थी....? बताओ ‘रतिराम‘ ये तुम्हारी गैरी जिम्मेदारी है...? फाईल तुम्हारी जिम्मेदारी थी....तुम इतना ध्यान नहीं रख सकते सरकारी कागजों का....तुम्हें कोई हक नहीं नौकरी करने का....नौकरी से बरखास्त कर देना चाहिये तुमको तो..?, ‘रतिराम‘ के पसीने छूटने लगे....जिसकी ईमानदारी और नैतिकता की लोग मिसाल देते है...उसके लिए इतना बड़ा इल्जाम.....निरअपराधी होकर भी कटघरे में खड़ा जो किया जा रहा था ‘रतिराम‘ को...? अपनी सफाई में कुछ कहते न बना उससे...चुपचाप मुंह निचा कर सुनने के सिवा। तभी एक बार फिर अफसर के ज़ोर-ज़ोर से बोलने की आवाज़ आई.....और यह क्या..? इस बार अफसर कह रहा था....‘रतिराम‘ इस बार की तुम्हारी तनखा काट ली जायेगी....केवल भत्ता मिलेगा.....और ये वार्निंग है तुमको....किसी भी सुरत में अगले दो दिन में फाईल ढुंढकर दो नहीं तो तुमको नौकरी से बरखास्त कर दिया जायेगा।
उदास मन से ‘रतिराम‘ घर पहुँचता है...जैसे आज निराशा ने उसे चारों तरफ से घेल लिया हो...? सात साल की नौकरी में कभी ऐसा नहीं हुआ...अपने काम के लिए इतना पाबंद और सख्त की मजाल कोई एक कलम की भी ‘रतिराम‘ की मेज से इधर से उधर हो जाये....। लेकिन आज जाने क्या हुआ कि....नौकरी पर ही बन आई...?
विद्याआआ......ओ विद्या.....आवाज लगाते हुए आज जैसे ‘रतिराम के गले में जोर लग रहा था.....भीतर से कुंठा के भाव बलवती हो रहे थे....निरअपराध होकर भी। ऐ विद्या....कहाँ मर गई.....? एक पल सुकून से जीने न देगी ये औरत और ये नौकरी...।
हाँ, आ रही हूँ....क्यों हमेशा आसमान सर पर उठाये रहते हो.....कहीं न मरी.....घर में ही हूँ....तुम्हारे लिए खाना बना रही थी...! ठीक है.....तुम स्टोव न लाकर दो...तो भी इतने बरस से चुल्हे पर बन रहा है खाना....वहीं झोंक रहीं हूँ खुद को....! ये नहीं देखते कभी कि मुझे चुल्हा जलाने के लिए भी क्या-क्या जतन करना पड़ता है....? कहाँ-कहाँ से लकड़ी, कचरा, कागज़ इकट्ठा करके चुल्हा जलाती हूँ। आज ही कितनी मुश्किल से चुल्हा जला है....तुम क्या जानो..?
जान न खा..? जब देखो...बड़बड़ाती रहती है....? दो घड़ी का सुकून नहीं...! घर में औरत, दफ्तर में अफसर...तुम लोगों ने ठान रखी है मेरी जान लेने की...मुझे जीने दोगे या नहीं...? जला तुझे जैसे चूल्हा जलाना है जला....लेकिन मुझे मत जला..? वैसे ही परेशान हूँ, तु और परेशान न कर..?
हाय राम..! क्या हुआ, मैने ऐसा क्या कह दिया....? अब घर की बातें तुमसे न कहूँ तो किससे कहूँ..?
अच्छा, माफ करो.... और जल्दी से हाथ मुहँ धो लो....आज मै तुम्हारे लिए सुजी का हलवा बना रही हूँ...थोड़ी देर हो गई...चूल्हा नहीं जल रहा था....लेकिन मैने भी बिना लकड़ियों के चूल्हा जलाने का इंतजाम कर लिया....? जाओ तुम जल्दी हाथ मुँह धो लोकृ। मैं गरम गरम सुजी का हलवा लेकर आती हूँ।
‘रतिराम‘ का मन ठीक न था...उसे नौकरी और फाईल की चिंता खाये जा रही थी....‘‘रहने दे, मन नहीं हैं कुछ खाने का‘‘। ‘‘अरे, एैसे कैसे मन नहीं है....इतने प्यार से बनाया है मैने.....जानते हो...आज चुल्हा जलाने के लिए लकड़ नहीं थी...पड़ोसन से भी पुछा...लेकिन वो स्टोव वाले जो ठहरे...! तो मैने...आपके बिछोने के पास एक मोटी सी कागज की पुरानी सी फाईल पड़ी थी...सोचा बहुत पुरानी है, कोई काम की न होगी...और कागज से चुल्हा जलाकर तुम्हारे लिए इतने प्यार से हलवा बनाया है...? हूँ न मैं समझदार...?
‘रतिराम‘ को समझते देर न लगी...यह तो वही फाईल थी...जिसके लिए दफ्तर में इतना बवाल हुआ और जिसके लिए अफसर से इतनी डांट सुनी. यही वो फाईल थी जिसे वो कुछ दिन पहले सुरक्षित रखने के कारण घर ले आया था और बिछौने के पास रखकर भूल गया था। अब गुस्से के मारे ‘रतिराम‘ के चेहरे और हाथ की नसे हरी होने लगी थी.....खुन हवा कि गति से नसों में दौड़ रहा था.....आँखे लाल होकर बड़ी हो रही थी....कि तभी चट्ट कर आवाज आती है और रस्सी टूट जाती है....‘रतिराम‘ पीछे की ओर गिर पड़ता है, अगले ही पल ‘रतिराम‘ वापस अपनी खाट के पास था, टूटी रस्सी के दोनो सिरों को फिर जोड़ने की कोशिश कर रहा था।
कहानी- खाट
लेखक - डाॅ. मोहन बैरागी
बहुत ही खूब
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