Dr.Mohan Bairagi

Sunday, September 3, 2017

दो घड़ी बैठकर हमसे बाते करो
ज़िन्दगी जा रही है बेकार में
बन गए है खबर के जो ना पढ़ी
जा रही हो किसी भी अखबार में

पक्ष सारे तुम्हारे बड़े हो गए
दक्ष होकर भी हम तुच्छ से ही रहे
टिमटिमाते रहे चाँद तारे सभी
फूल महके नहीं पुष्पगुच्छ ऐसे रहे
हमको पा लो कभी,तुमको पा ले अभी
बात इतनी बची है स्वीकार में
ज़िन्दगी जा रही.....

बात हमने कही जो कभी न सुनी
तुमने अक्सर हमें उस किनारे रखा
पृष्ठ खोलो कभी तुम हृदय के प्रिये
पंक्ति कोई पढ़ो प्रीत ही बस लिखा
स्वर में हाँ भी नहीं,स्वर में ना भी नहीं
तुमने मांगा नहीं मुझको इंकार में
ज़िन्दगी जा रही...

घर के आंगन मेरे याद बचपन करो
कितनी कोयल यहाँ आती जाती रही
खुशबू तेरे ज़हन की वहीं अब भी है
द्वार खिड़की में तुम मुस्कुराती रही
छत की मुंडेर से देखती थी मुझे
तुम बसी हो मेरे घर की दीवार में
ज़िन्दगी जा रही....
©डॉ. मोहन बैरागी,03/9/17