Dr.Mohan Bairagi

Sunday, September 3, 2017

दो घड़ी बैठकर हमसे बाते करो
ज़िन्दगी जा रही है बेकार में
बन गए है खबर के जो ना पढ़ी
जा रही हो किसी भी अखबार में

पक्ष सारे तुम्हारे बड़े हो गए
दक्ष होकर भी हम तुच्छ से ही रहे
टिमटिमाते रहे चाँद तारे सभी
फूल महके नहीं पुष्पगुच्छ ऐसे रहे
हमको पा लो कभी,तुमको पा ले अभी
बात इतनी बची है स्वीकार में
ज़िन्दगी जा रही.....

बात हमने कही जो कभी न सुनी
तुमने अक्सर हमें उस किनारे रखा
पृष्ठ खोलो कभी तुम हृदय के प्रिये
पंक्ति कोई पढ़ो प्रीत ही बस लिखा
स्वर में हाँ भी नहीं,स्वर में ना भी नहीं
तुमने मांगा नहीं मुझको इंकार में
ज़िन्दगी जा रही...

घर के आंगन मेरे याद बचपन करो
कितनी कोयल यहाँ आती जाती रही
खुशबू तेरे ज़हन की वहीं अब भी है
द्वार खिड़की में तुम मुस्कुराती रही
छत की मुंडेर से देखती थी मुझे
तुम बसी हो मेरे घर की दीवार में
ज़िन्दगी जा रही....
©डॉ. मोहन बैरागी,03/9/17

Wednesday, March 29, 2017

होता नहीं है सांसो का, जीवन से अनुबंध
रह जाए कुछ रोशनी,एैसा करो प्रबंध
सब एक जैसे धरा पर गगन में सितारें है
खुशबू,फूल,पवन,हवा,नदी किनारे हैं
और आईने टुटते नहीं खुद चटक कर के
वो जो दिल तोड़ते है वो अपने हमारे है
- मोहन बैरागी

Tuesday, March 7, 2017

वैश्विक परिप्रेक्ष्य में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक परिवर्तन पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठी का सम्पन्न
उज्जैन। कृष्णा बसन्ती संस्था द्वारा महर्षि पाणिनि संस्कृत और वैदिक विश्वविद्यालय के सहयोग से दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठी उज्जैन में सम्पन्न हुई। यह संगोष्ठी  वैश्विक परिप्रेक्ष्य में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक परिवर्तन: चुनौतियां और सम्भावनाएँ विषय पर केंद्रित थी। संगोष्ठी के समापन सत्र के मुख्य अतिथि ओरिएण्टल यूनिवर्सिटी के चांसलर डॉ के एल  ठकराल थे। अध्यक्षता पूर्व कमिश्नर एवं महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ मोहन गुप्त ने की। संगोष्ठी की उपलब्धियों पर विक्रम विश्वविद्यालय के कुलानुशासक प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने प्रकाश डाला।

श्री ठकराल ने अपने उद्बोधन में कहा कि दुनिया को आज बड़ी संख्या में भारत की युवा प्रतिभाओं की जरूरत है। भारतीय इतिहास में महात्मा गांधी ने अपने मन, वचन और कर्म की एकता से नया मोड़ उपस्थित किया। आज इस देश को उनसे प्रेरणा लेने की जरूरत है।

डॉ मोहन गुप्त ने अपने उद्बोधन में कहा कि परिवार समाज की कोशिका है। बगैर परस्पर अवलम्ब के पारिवारिक जीवन नहीं चल सकता है। पीढ़ियों का टकराव आज नई चुनौतियाँ दे रहा है।

प्रो शैलेंद्रकुमार शर्मा ने कहा कि विकास के नए प्रतिमान हमारी शाश्वत मूल्य दृष्टि और पर्यावरणीय सरोकारों को बेदखल कर रहे हैं। एक समय प्रकृति के साथ मनुष्य का सहज संबंध बना हुआ था। वह अब तेजी से निस्तेज हो रहा है। नवपूंजीवाद, उदारवाद और उपभोक्तावाद के रहते आज सब कुछ भौतिकता की तराजू पर तोला जा रहा है। ऐसे में मानवीय संबंधों के सामने कई चुनौतियां हैं। यह समस्या जितनी आर्थिक है, उससे अधिक मनोवैज्ञानिक और मूल्यपरक है।

संस्थाध्यक्ष डॉ मोहन बैरागी ने प्रारम्भ में स्वागत भाषण दिया। श्री ठकराल को इस अवसर पर शिक्षा एवं समाज के क्षेत्र में किए गए कार्यों के लिए अक्षर वार्ता सारस्वत सम्मान 2017 से अलंकृत किया गया।

संगोष्ठी के तीसरे और चौथे सत्र में मॉरीशस के विद्वान श्री लीलाधर हीरालाल, डॉ शिव चौरसिया, डॉ प्रेमलता चुटैल, डॉ गीता नायक, डॉ बालकृष्ण शर्मा, डॉ जगदीश शर्मा, डॉ मायाप्रकाश पांडे आदि सहित अनेक विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किये। अतिथियों का स्वागत श्री कृष्णदास बैरागी, डॉ शुभम शर्मा,  डॉ रत्ना कुशवाह, नन्दकिशोर शर्मा, डॉ अखिलेश द्विवेदी, डॉ शुभम शर्मा,  डॉ भेरूलाल मालवीय, डॉ संकल्प मिश्र, डॉ पराक्रम सिंह, रूपाली सारये, श्वेता पंड्या आदि ने किया। संगोष्ठी में विभिन्न विषयों से जुड़े विद्वान एवं शोधार्थीगण ने भाग लिया।

संगोष्ठी के सत्रों में साहित्य, लोक साहित्य, समाज, इतिहास, नैतिकता, कला, पर्यावरण, आदिवासी चेतना, वाणिज्य, अर्थशास्त्र, भाषा, संचार आदि विभिन्न क्षेत्रों में उपस्थित परिवर्तनों पर आलेख वाचन एवं विमर्श किया गया।
इस अवसर पर 5 मार्च की रात्रि को कालिदास अकादेमी संकुल में अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया।

Monday, February 20, 2017

सुन ज़रा ऐ चितेरे,
खिंच रेखाये मन की मेरे
अक्स सच का ही बिम्बित जहां हो
हों वहाँ दृश्य अपने ही तेरे

शब्द कहते नहीं हो जहाँ पर
भाव बोलें स्वयं आसमां पर
दर्पणों की जहाँ ना जरुरत
हो इकाई जहाँ सैकड़ो पर
हो सघन मेघ,बारिशों के डेरे
सुन ज़रा ऐ.......

उम्मीद के सब घरोंदे बनाएँ
खाली दीवारों दर पर सजाएँ
दूर क्षितिज तक होकर आएँ
क्या पढ़े खाली हाथ रेखाएँ
किसने समझे ये दुनिया के फेरे
सुन ज़रा ऐ चितेरे......
रात आधी,मन भी आधा,चाँद आधा
प्रीत अपनी मैं समय की रेख पर लिख रहा हूँ

बैठकर बिस्तर पे सोचे मन अकेला
तुमहो मुझसे दूर है संग याद का मेला
बंद आँखे देखती है प्रीत के उपवन
ज्यो शिवालों में बजे हे घंटिया पावन
आ गया फिर हाथ पर एक हाथ हलका
और नयन की कोर पर इक बून्द छलका
कह रहा जैसे के हमने प्रेम ही साधा
रात आधी,मन भी आधा.......

चमक बनके सितारों सी छुपकर के आओ
ओढ़ लो घूँघट ज़रा देख ना ले चाँद तुमको
है बड़ा शातिर जर्रा तुमसे रौशनी मांग लेगा
लक्ष्य मुझको मानकर आओ आहट न होगी
है भरोसा प्रीत पर तुम रात काली काट दोगी
लम्हे लम्हे जा रहे कितनी सदियों के बराबर
आओ मैं मोहन बनूँ तुम बनो मेरी ही राधा
रात आधी,मन भी आधा......
Copyright
@डॉ मोहन बैरागी

Friday, January 20, 2017

जो मचल जाते थे तुम मेरी आह पर
वो चाहते खो गयी,हैं मेरी चाह पर

कभी खुद के भीतर गए क्यूँ नहीं
देख पाती के अब भी अधूरे हो तुम
प्यार का सिर्फ तुमने वादा किया
थोड़ा भी वादा निभा पाती तुम
छल रहे खुद को,अकारण ही तुम
प्रेम मिलता नहीं है कही राह पर
जो मचल जाते थे........

जैसे साँसों की गिनती भी होती नहीं
कोई आयु भी निश्चित नहीं देह की
वेसे तुमने भी थोड़े समय के लिये
ली परीक्षा थी क्योंकर मेरे नेह की
प्यार दो दिन का कोई नहीं खेल है
डूबकरके जो पाती यदि थाह पर
जो मचल जाते थे..........

मुझे लग रहा है कि खुश तुम नहीं
तुम्हारी तड़प कह रहा ये आसमां
रिक्त अब दिल का भवन लग रहा
आँखों में भी हे खालीपन ख़ामख़ा
प्यार स्वीकार कर निभा पाती तुम
और मुझे घेर लेती यदि बाँह पर
जो मचल जाते थे.......

है प्यार पाना तो,खुशबु संजोकर जियो
महको खुद भी,और बाग़ महकाओ तुम
अगर सच में मुझसे हो ही गया प्यार तो
करो देख रेख,ये रिश्ता निभाओ भी तुम
कोर के आंसुओ से कहो न आये बस करें
अब तो रहता हे प्यार बस इस निगाह पर
जो मचल जाते थे......
@डॉ मोहन बैरागी
20/01/17
मुझसे मुझको लेकर के तुम नादिया नीर बहो
इक पतवार,नैय्या,माँझी, कल कल खुद में गहो

आस के पीपल को बांधे हम साँझ सवेरे धागे
क्या जाने क्या नियति,होगी मेरी तेरी आगे
सिंदूरी सूरज को भी हमने अर्पण जलधार किये
मन भीतर के खालीपन को भी आकार दिए
सुधिया कहती बढ़ते जाना,हर पल बढ़ते रहो
मुझसे मुझको लेकर के तुम........

राह भंवर में उलझेगी भी,और तूफां कई कई होंगे
चुपचाप सफर चलना होगा,पथ कांटे निश्चय होंगे
आरोहो अवरोहो की सब लय पर सांसे भारी होंगी
तन का पंछी उड़ता होगा, जाने की तैय्यारी होगी
मन भगवन की अनिश्चित दुरी कैसे तय हो कहो
मुझसे मुझको लेकर के तुम........
Copyright@डॉ मोहन बैरागी
21/1/17

Thursday, January 19, 2017

आंसू बरसे आँखों से बूंदों की झड़ी लगायी
तुमने मुझको कैसा जाना कैसी रीत निभायी
तेरा प्यार नहीं हरजाई,तेरा प्यार नहीं हरजाई

01.
ज्यो मंदिर की पूजा जैसा प्यार मेरा था पावन
आँखों में अब बदरा क्यूँ हे,बरसे क्यूँ ये सावन
कोयल गाती थी गीतों को मेरे संग संग प्यारी
समय के पल पल में थी जैसे बाते सिर्फ हमारी
जाने,अब ये किस्मत से कैसी हे लड़ाई......
तेरा प्यार नहीं हरजाई......

02.
तेरे आगे सब थे छोटे क्या धरती क्या अम्बर
मेरे संग संग जान लुटाता जर्रा जर्रा तुझ पर
बगिया,माली,कालिया,काँटा,भौरा,जलते तुझपर
तेरे एहसासों की खुशबु केवल बिखरी मुझपर
गजलो में तुम थी, तुम ही रुबाई....
तेरा प्यार नहीं हरजाई.....

03.
प्रेम शिवाला,प्रेम हिमाला, नाम खुदा का दूजा
प्रेम था शबरी के बेरों में,उर्मिला ने प्रेम को पूजा
मीर, कबीरा,जिगर, ने गाया प्रेम हे सबसे ऊंचा
प्रेम हे मीरा के भजनों में,प्रेम तुलसी की चौपाई
पुकारू में तुझको,दे दुहाई.....
तेरा प्यार नहीं हरजाई.......
@डॉ मोहन बैरागी
Copyright
जिंदगी ने हमें कैसे पल ये दिए
मांगते जिंदगी,जिंदगी के लिए

प्रीत का हर भवन खाली खाली हुआ
लय से गीतों को धड़कने गाती नहीं
जब शेष आयू समर में गुजरती लगे
कोई बूढ़ा है गर शजर तो यही रीत हैं
छाँव बैठे घड़ी को, के फिर चल दिए
जिंदगी ने हमें.........

आस के ताने बाने ज़माने में कितने बुने
उम्र ही काट दी चाह में और कितना सुने
खुद के भीतर समेटे रहे जिंदगी,जिंदगी
और बोलता कौन जब हम, स्वयं मौन थे
जरा मुस्कुरा भी न पाये थे जो पल दिए
जिंदगी ने हमें...........

देह मायूस ये सोचकर,क्या मिला क्या गया
स्वपन जो एक आकार, साकार हो न सका
परायी ये साँसे अपनी, हुयी ना रही उम्रभर
प्रश्न अपने किससे पूछे निरुत्तर यहाँ हैं सभी
ढोंग करले कोई जाने,अजाने छल सभी ने किए
जिंदगी ने हमें.........
Copywrite@
डॉ मोहन बैरागी
20/1/2017
जिंदगी ने हमें कैसे पल ये दिए
मांगते जिंदगी,जिंदगी के लिए

प्रीत का हर भवन खाली खाली हुआ
लय से गीतों को धड़कने गाती नहीं
जब शेष आयू समर में गुजरती लगे
कोई बूढ़ा है गर शजर तो यही रीत हैं
छाँव बैठे घड़ी को, के फिर चल दिए
जिंदगी ने हमें.........

आस के ताने बाने ज़माने में कितने बुने
उम्र ही काट दी चाह में और कितना सुने
खुद के भीतर समेटे रहे जिंदगी,जिंदगी
और बोलता कौन जब हम, स्वयं मौन थे
जरा मुस्कुरा भी न पाये थे जो पल दिए
जिंदगी ने हमें...........

देह मायूस ये सोचकर,क्या मिला क्या गया
स्वपन जो एक आकार, साकार हो न सका
परायी ये साँसे अपनी, हुयी ना रही उम्रभर
प्रश्न अपने किससे पूछे निरुत्तर यहाँ हैं सभी
ढोंग करले कोई जाने,अजाने छल सभी ने किए
जिंदगी ने हमें.........
Copywrite@
डॉ मोहन बैरागी
20/1/2017

Tuesday, January 17, 2017

आंसू बरसे आँखों से बूंदों की झड़ी लगायी
तुमने मुझको कैसा जाना कैसी रीत निभायी
तेरा प्यार नहीं हरजाई,तेरा प्यार नहीं हरजाई

01.
ज्यो मंदिर की पूजा जैसा प्यार मेरा था पावन
आँखों में अब बदरा क्यूँ हे,बरसे क्यूँ ये सावन
कोयल गाती थी गीतों को मेरे संग संग प्यारी
समय के पल पल में थी जैसे बाते सिर्फ हमारी
जाने,अब ये किस्मत से कैसी हे लड़ाई......
तेरा प्यार नहीं हरजाई......

02.
तेरे आगे सब थे छोटे क्या धरती क्या अम्बर
मेरे संग संग जान लुटाता जर्रा जर्रा तुझ पर
बगिया,माली,कालिया,काँटा,भौरा,जलते तुझपर
तेरे एहसासों की खुशबु केवल बिखरी मुझपर
गजलो में तुम थी, तुम ही रुबाई....
तेरा प्यार नहीं हरजाई.....

03.
प्रेम शिवाला,प्रेम हिमाला, नाम खुदा का दूजा
प्रेम था शबरी के बेरों में,उर्मिला ने प्रेम को पूजा
मीर, कबीरा,जिगर, ने गाया प्रेम हे सबसे ऊंचा
प्रेम हे मीरा के भजनों में,प्रेम तुलसी की चौपाई
पुकारू में तुझको,दे दुहाई.....
तेरा प्यार नहीं हरजाई.......
@डॉ मोहन बैरागी
 जब रात नैनो की उदासी काटती है
जब तुम्हारे स्वप्न आँखों में उभरते
चुप्पियां जब,मन की तेरे गीत गाती
अर्थ जज़बातों के जीवन में उतरते
डॉ मोहन बैरागी                      

जैसे गुज़री हुई इक घड़ी ये डगर
जीना है साथ सुख दुःख के हाथ में
आड़ी तिरछी लकीरो का है ये सफर
डॉ मोहन बैरागी                      

शर्म आँखों की तुम,बेहिचक तोड़ दो
गोपियों से घिरा कृष्ण आधा लगे
रिश्ता 'मोहन ' से,राधिका सा जोड़ दो
डॉ मोहन बैरागी
जब नेह के समर्पित भाव सारे उष्ण होने लगे
जब साथ समय के रिश्ते बर्फ से पिघलने लगे
दूर धुंए सा उड़ जाये प्यार, अपना बदलने लगे
एक पल ख्वाब जैसे, वो आये और चलने लगे
@डॉ मोहन बैरागी
कैसे तुम आये औ आकर चले गये
या के तेरी प्रीत थी या हम छले गए

उंगलिया चटकी थी कितनी प्यार से
लग रही थी अप्सरा,प्रेम के श्रृंगार से
बोल जैसे इत्र तेरी,आँखों में गुलाब थे
थी महक गयी जिंदगी,हम आबाद थे
क्यों अपने ही अरमानो को लूट ले गये
कैसे तुम आये औ.........

दृढ प्रेम ये निश्चल,भी तुम्हे स्वीकार था
इतना पावन के सतियों का आकार था
पूजते तुलसी के जैसी तुमको आँगन में
एक ही तो पुष्प थी तुम सारे उपवन में
क्यों टूट गया पुष्प, हाथों में फांस ले गए
कैसे तुम आये...........

पर बिन तुम्हारे सब सृष्टि सिर्फ़ वीरान है
शुन्य हे अनंत में देह का खाली मकान है
सांसे साँसों पर भारी, खुद अपना जीवन
है अनंतिम प्रतीक्षा के तुम्हारा हो आगमन
लोटा दो मेरी धड़कने जो तुम सांस ले गए
कैसे तुम आये औ........

कैसे तुम आये औ आकर चले गए
या के तेरी प्रीत थी या हम छले गए
@डॉ मोहन बैरागी
11/01/17
अपने ही जल को आँचल में भरके,नदी प्यासी हे
उड़ती ये चिड़िया साँसों की आसमां में प्रवासी हे

अनगिनत साँसे उधारी इस देह को क्या मालूम
एक तीली,कुछ लकड़िया, और राख ज़रासी हे

अब तो उनके कहने से ही बादल उमड़ते घुमड़ते
हवाएं क्या करे बेचारी,वो सरकारो की देवदासी हे

मंजर ये भी के अन्नदाता रो रहा अपने ही दालान में
घोषणाएं सरकारी सूखे सी,चेहरे पर फिर उदासी हे

खुशनुमा हुवा है माहौल, चेहरा उनका आँखों में आया
मेहरबाँ चाँद तो छत पे आया नहीं,फिर भी पूर्णमासी हे

पास रहे या दूर,उनका होना न होना भी एक बराबर है
घुटती घर के बस आँगन चक्की,जैसे पीर उर्मिला सी है

@डॉ मोहन बैरागी
11/01/17