Dr.Mohan Bairagi

Monday, May 30, 2022

नैपथ्य से आमुख की यात्रा लेखक :- डॉ. मोहन बैरागी



 नेपथ्य से प्रारंभ कर सम्मुख परिवेश में प्रविष्ट करता मनुष्य बाहरी आवरण पर युगीन भौतिक व रासायनिक सतहों से आच्छादित अपने प्राकट्य को प्रतिस्थापित करने की चेष्टा में प्रयत्नशील रहता है। 

मूलत: मनुष्य की वृत्ति का निर्मितिकरण इस प्रकार है कि वह ‘परा‘ से ‘परम‘ की प्रवृत्ति के केन्द्र पर आवृत होता है। जीवन के सारत्त्तवों को सूत्रों में समाविष्ट करने के निमित्त पल-प्रतिपल नवीन छवि को प्रस्तुत करना चेतना के केन्द्र में होता है।

सृष्टि में प्रत्येक वस्तु की तीन अवस्थाएं प्रदर्शित हैं-भूत,वर्तमान व भविष्य। इन्हीं तीनों प्रकारान्तर स्थितियों से सजीव व निर्जिव की यात्राएं संचालित होती है। जीवन के नाट्य में नेपथ्य का बड़ा महत्व है, जहां मनुष्य अपने मूल अस्तित्व में न होकर भी आवश्यक-अनावश्यक नये स्वांग रचने की भूमिका तैयार कर रहा होता है, किंतु हर क्षण बदलते अस्तित्व को विस्मृत कर नये क्षण के समावेशीकरण के मध्य उसका अशेष भाग बन रहा होता है।

विवेक के विचलन से उत्स्र्फूत इस नये विचार के साथ कि, उसने स्वयं को परिवॢतत कर नये स्वरूप में प्रस्तुत किया है, जबकि वह मूल प्रकृति के स्वाभाविक बदलाव का हिस्सा हो रहा होता है।

सूक्ष्म कोशिकीय ईकाई से लेकर भौतिक मनुष्य बनने तक कि प्रक्रिया में नेपथ्य से सम्मुख तक कि यात्रा मनुष्य तय करता है, तथा प्रत्येक नवीन आगमित क्षण अथवा समय पर पिछले चित्र व चरित्र की परिवर्धित छवि  अंकित करने का निर्मल प्रयास करता है।

दरअसल मनुष्य की भावना नैतिक संसार मे आदर्श और मूल्यों के आधार पर प्रतिमान स्थापित करने की सहज धारणा धारण कर स्वयं के चरित्र और चित्र को सकारात्मक दृष्टिकोण में अग्रेषित कर स्थापित करने की होती है। किन्तु समाज या समूह की भृकुटियां सदैव उर्ध्व पर आकृष्ट होती है। और वह समाज या समुच्चय में स्थापित प्रतिमान के बगैर कोई आदर्श या प्रतिमान को मान्यता नही देना चाहता।

विषय के मूल में यह है कि व्यक्ति चेष्टानुरूप सदैव प्रयास सकारात्मक पटल पर प्रक्षेपित समय व समाज अनुरूप छवि प्रस्तुत करना चाहता हैं,किन्तु समय के साथ तादात्म्य या साम्य स्थापित कर ही प्रदर्शित होगा,इसकी कोई गारण्टी नहीं..?

कहना यह है कि तीन विभिन्न स्थितियों के साथ यात्रा कर पल प्रतिपल बदलता मनुष्य चित्र व चरित्र से...? नेपथ्य से आमुख तक भरसक प्रयत्नशील होकर स्वच्छ व उत्कृष्ट आकृति प्रस्तुत करना चाहता है, जो समय के सापेक्ष होकर प्रतिमान कि स्थापना कर सके।

महान दार्शनिक अपने मूल या पूर्व के स्वरूप में अत्यंत कुरूप व अनाक्रष्ट किस्म के व्यक्ति की छवि प्रस्तुत करते है, तथापि अपने विचारों व दार्शनिक सिद्धान्तों से समाज में चिंतन की निर्मिति करने वाले प्रतिमान स्थापित कर गुजरते है, तो वहीं बुद्ध घर से निकलने से पूर्व अलग प्रकार का व्यक्तित्व समाज को दर्शित करवाते है तो वही बुद्ध होकर दुनिया को नया समाज, स्वरूप, सिद्धान्त,जीवन दर्शन देकर जाते है।

नेपथु से आमुख की इस यात्रा मैं हिन्दू धर्म व संस्कृति के संवाहक मर्यादा पुरुषोत्तम राम, राम से श्री राम होने तक कि यात्रा तय कर नए युग को नई मर्यादा के प्रतिमान देकर जाते है।

सार यह कि....नेपथ्य से आमुख की यात्रा तय करें....लेकिन आदर्श के साथ प्रतिमान स्थापित करते हुए।

तभी हो सकेगा...जीवन रूपी नाटक का सही मंचन।

शुभकामनाएं।

©डॉ. मोहन बैरागी

Friday, May 13, 2022

झांकते लोग..... लेखक : डॉ. मोहन बैरागी

 झांकते लोग.....

लेखक : डॉ. मोहन बैरागी

ताक-झाँक करना स्वभावतः मनुष्य के स्वभाव का हिस्सा बन चुकी आदत है।  जब अंतस्थ: अनसुलझी शरीर व मस्तिष्क की तंत्रिकाओं के साथ संवेदना को स्थान्तरित करने वाली तंत्रिकाएं अनासक्त अपेक्षा प्रदर्शित करती है तथा ज्ञात-अज्ञात वस्तु, स्थिति व ज्ञान के सापेक्ष सृष्टि के यथार्थ को दृष्टि के पृष्ठ पटल पर केंद्रित कर उसका अंकन करना चाहती है, जिससे हृदय के अनजाने भाग को कंपन की अनुभति होती है,जो मस्तिष्क समेत समस्त शरीर मे उत्स्फूर्त तरंगे पैदा करता है, जिससे तात्कालिक रूपेण सकारात्मक भाव पैदा होता है, जिसे खुशी कहते हैं, इसके परिणामस्वरूप आँखें सामान्य अनुपात से कुछ अधिक खुलती है तथा अधरों का भूगोल भाव-भंगिमाओं के साथ बदल जाता है, तथापि चेहरे के केंद्र पर अस्थाई किन्तु सूक्ष्म खिलखिलाहट प्रदर्शित होने लगती है।

यह स्थिति कई परिस्थितियों में उत्पन्न होती है और मनुष्य तब उत्फुल्लता की सीधी रेखा पर स्वयं को खड़ा पाता है।

झाँकने की यह वृत्ति वैज्ञानिक प्रक्रिया के निष्पादन स्वरूप स्वतः उत्पन्न क्रिया है।

संरचनात्मक सर्जना के पश्चात से तथा देह में सांस धारण के पश्चात से लेकर अंतिम सांस से कुछ अवधि पूर्व तक मनुष्य में झाँकने की कला का जन्म व विकास होकर उसका सोच व विचार के आधार पर परिवर्धन होता रहता है। मनुष्य शरीर के सैकड़ो,हज़ारो भावों में से यह एक विचार मनुष्य के मस्तिष्क में स्थायी निवासी होकर यात्रा करता है। झाँकने की वृत्ति सदैव नकारात्मक व पूर्व नियोजित नहीं होती, शिशु मातृ संबंध में शिशु माता को नेह भाव से भूख प्यास की अवस्था में झांकता है तो वहीं युवा मनुष्य भी तात्कालिक रूप से उत्पन्न त्वरित विचार की परिणति के रूप में अपने आस-पास के वातावरण व व्यक्तियों के जीवन मे झाँकता है।

आधुनिक दुनिया का मनुष्य झाँकने की कला को जैसे अपना संवैधानिक अधिकार ही समझता है। ब्रिटेन में 1354वी सदी के आसपास में एक शब्द आया मैग्नाकार्टा, जो आया तो व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों को लेकर था। (अधिकारों का घोषणापत्र)

कहना यह कि ... जैसे हर कोई मान के चलता है कि वह मैग्नाकार्टा (झाँकने का अधिकार) को अपने चेहरे पर ओढ़कर चलता है। और जब तब चेहरे को उघाड़ सकता है..?

झाँकने की क्रिया कई परिप्रेक्ष्य में संपादित होती है। सृष्टि के सृजन तथा मानव विकास से लेकर अब तक इसके लाखों-करोड़ों उदाहरण मिलते हैं, जिसमें अकारण अथवा सकारण झांका गया है। इस कला के संपादित होने पर कई ऐसी घटनायें कालजयी होकर इतिहास में दर्ज हैं।

सतयुग,त्रेता,द्वापर और कलयुग...हर युग में इस झाँकने की प्रवृति ने सभ्यता व मनुष्य संस्कृति को आहत कर ऐतिहासिक व पौराणिक किस्से-कहानियों को गढ़ा हैं।रामायण व महाभारत में कई ऐसे पात्र व उनकी कथाएं मौजूद हैं जिनके झाँकने से युद्ध की विभीषिका तक समय जा पहुंचा।आधुनिक सभ्यता के मनुष्य में स्वयं के छिद्रान्वेषण की 

वृत्ति (आदत) भीतर केंद्र में सामान्यतः नहीं रही, जिससे कि वह इस महीन कला से निवृत्ति के सोपान कभी पहुंच भी सके..?

चारित्रिक निर्मिति के असंख्य हिस्सो में से यह एक हिस्सा है। माना जाता है कि मनुष्य के वैचारिक दृष्टिकोण की निबद्धता से चारित्रिक निर्मिति समेत उसकी अस्मिता का स्थायी अथवा अस्थायी निर्माण होता है। प्रसिद्ध दार्शनिक फ्रायड का मानना है कि मनुष्य की अस्मिता स्थिर नहीं है तो वहीं एरिक ऐरिक्सन कहते हैं कि अस्मिता दो व्यक्तियों के बीच परस्पर पहचान एवं सामुदायिक संस्कृति से प्राप्त पहचान में निहित है।

व्यक्ति की चारित्रिक अस्मिता से विलग झाँकने की इस कला में निपूर्ण मानव वर्तमान, भविष्य तथा कालांतर में भी झाँकता है।

दुनिया मे प्रेम का स्थायी स्मारक दुनिया को देने वाले शाहजहां ने प्रेम के लिए ताजमहल बनवाया लेकिन शाहजहां अपनी उम्र के अंतिम समय मे 8 वर्ष तक अपने ही बेटे औरंगजेब की कैद में आगरा किले में रहा, और वहीं से ताजमहल को झाँकते था।

कुछ अलग तरह से वैश्विक स्तर पर एक और उदाहरण देखें तो....अमेरिका ने एक गलतफहमी के चलते (इस बात पर डिबेट है की स्पेन की वजह से अमेरिका के 200 से अधिक लोगो की मौत हो गयी थी।) स्पेन से बदला लेने के इरादे से अपनी सेना को भेजकर क्यूबा को स्पेन से आज़ाद करवाया।

क्यूबा के एक शहर गुवांतानामो बे को प्रिवेंटिव डिटेंशन सेंटर के नाम पर लगभग कब्जा किया,जबकि यह स्थान लीज पर अमेरिका ने क्यूबा को स्पेन से आज़ाद कराने के समय लिया था, और आज भी इस स्थान को अमेरिका न सिर्फ झांककर देखता है बल्कि इस स्थान पर अपना अधिकार ही जमा लिया है?

सरल शब्दों में कहना यह कि...अपने आस पास के वातावरण, दूसरों के जीवन, फेसबुक से लेकर व्हाट्सएप और ट्विटर, सभी जगह पर अनावश्यक न झाँके..? 

झाँकना ही है तो स्वयं में झाँके...की जीवन की इस यात्रा में हम कहाँ पहुँचे।

©डॉ.मोहन बैरागी

Tuesday, May 3, 2022

मोजड़ी में रेत लेखक - डॉ. मोहन बैरागी

 


जब जीवन की त्वरा तिर्यक रेखा पर तत्सम त्रिकोण बनाती हुई आगे बढ़ती है, तब त्वरित व तात्कालिक उत्पाद सफलता के चर्मोत्कर्ष पर स्वयं को देखना मनुष्य की असंतुलित कल्पना है, जो फलीभूत होने के केंद्र पर दृष्टिपात करती है, किन्तु सवाल सतह पर होता है...? उसके लिये प्रयास कितने मनोयोग से किये गए...? हर मनुष्य स्वयं को श्रेष्ठ तथा श्रेष्ठतम घोषित करने की दौड़ में है। 

शरीर संरचना निर्माण के बाद से संगत - असंगत परिस्थितियों के चलते मनुष्य जीवनपर्यंत उम्र के किसी भी हिस्से में तय नहीं कर पाता कि उसके निर्माण से पृकृति व अन्य पशु-पक्षियों, जानवरों,मनुष्यों अथवा सृष्टि को क्या मिला या उसने क्या दिया...? उसे लोभ सदैव पाने का होता है की हासिल क्या हुआ..? भौतिकी में न्यूटन का तीसरा सामान्य सिद्धान्त है कि यदि कोई गेंद किसी दीवार पर जिस बल से फेंकोगे, प्रतिक्रिया स्वरूप वह पुनः अपने बल से आपकी तरफ लौटेगी। सामान्यतः बुद्धियुक्त मनुष्य इस बात से अनभिज्ञ होता है एवं वह देह की आयु के सोपान को पूर्ण करने की चेस्टा में लगा रहता है। प्रमाणित है कि मनुष्य पर संस्कृति का प्रभाव होता है और संस्कृति के अनुरूप ही उसका विकास होता है।

अध्ययन से पता चलता है कि मोनोलिथिक संस्कृति (कोई एक संस्कृति जो दूसरी पर प्रभावी हो) में जब मनुष्य फंसता है तब चाहे अनचाहे उसे मोनोलिथिक संस्कृति को स्वीकार करने की मजबूरी होती है और उसी संस्कृति के अनुरूप उसके आचार-विचार व संस्कार का निष्पादन होता है। इसी संस्कृति के मनुष्य में निष्पत्ति स्वरूप अन्य से श्रेष्ठ न दिख पाने या प्रमाणित हो पाने की दशा में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष या भीतर कहीं आभासित चुभन या जलन का भाव पैदा हो जाता है। व्यक्ति सृष्टि के प्रारंभ से किन्ही भी संस्कृतियों से जन्मा हो अथवा देश काल परिस्थिति अनुरूप कोई भी संस्कृति से संस्कारित हुआ हो, या हृदय के नेपथ्य में सूक्ष्म सकारात्मक भाव से यदि मेल्टिंग पॉट कल्चर (गलन पात्र संस्कृति) के सिद्धान्त को अपनाकर उसमे शामिल हो भी जाता है। तब भी अन्य से एकात्म होने का भाव पैदा नहीं कर पाता। निर्माण प्रक्रिया के कोई भी कल्चर या किसी संस्कृति को हम ले लें, जैसे- सेलेड-बोल अथवा मोज़ैक कल्चर के देश भारत मे चुभन का फिर भी बड़ा ही महत्व है।

दूसरे से ईर्ष्या या उसके श्रेष्ठ होने की चुभन हमें उसके दर्शन किसी माफिया सदृश्य करवाती है।

माफिया (इटली से आयातित शब्द जिसके अपने भारतीय अर्थ है..?) अपनी चुभन का एहसास शरीर के स्नायुतंत्र को कष्टयुक्त तरंगे पैदा करने में करता है, जो मश्तिष्क के फ्रंटल, पेरिटल व ऑक्सीपिटल लोब को सूचना संप्रेषित कर दर्द के भाव को पैदा करता है और यही दर्द का भाव मनुष्य को विचलित करता है..?

संस्कृति ही है जो सभ्यता के साथ विकसित होती हुई मनुष्य में संस्कारों का निर्माण करती है। दुनिया की कोई संस्कृति व सभ्यता मनुष्य को मनुष्य से जलना नही सिखाती, वरन यह परिस्थितिवश उत्पन्न विचार है जो स्वयं को कुंठाग्रस्त करता है।

आँख में किरकिरी, शरीर मे सुई चुभना, पैर में कंकड़ चुभना, पिन चुभना आदि कई मुहावरे है जिनसे लेखको व साहित्यकारों ने इसको व्याख्यायित किया है। कई बार चाह कर तथा कई बार अनजाने में मनुष्य दूसरों की आँख की किरकिरी बन जाता है अथवा कई बार उसकी कमीज मेरी कमीज़ से सफेद कैसे का भाव हृदय के पृष्ठ भाग तथा चेहरे की सतह पर पाल लेता है। वह यह नहीं सोचता कि यदि मोजड़ी (पैर में जूती) पहन कर समुद्र किनारे जाएगा तो रेत उसकी मोजड़ी में फसेंगी ही, जो एक समय दर्द का एहसास देगी...? 

सिद्धान्ततः कई निर्बल मनुष्यों को स्वयं के बल का भान नहीं होता, तब ऐसी स्थिति में परिस्थिति व परिवेशजन्य बल उस पर भारित होता है।

हिंदी साहित्य के वरिष्ठ लघुकथकार संतोष सुपेकर की लघुकथा में एक पात्र छगनलाल को अपकेंद्रीय बल 

का आभास होता है।

अपकेंद्रीय बल के कारण किसी गतिशील वस्तु में केंद्र से दूर भागने की प्रवृत्ति होती है। यह वो आभासी बल है जो अभिकेंद्रीय बल के समान तथा विपरीत दिशा में कार्य करता है। 

सारांश यह कि अन्य चुभन से उत्पन्न दर्द से न कराहें, बल्कि स्वंय को चुभोते रहें, खुश रहने व खुश रखने के लिए।

मोजड़ी की रेत को हृदय व मष्तिष्क में न चुभने दें।

@डॉ.मोहन बैरागी