नेपथ्य से प्रारंभ कर सम्मुख परिवेश में प्रविष्ट करता मनुष्य बाहरी आवरण पर युगीन भौतिक व रासायनिक सतहों से आच्छादित अपने प्राकट्य को प्रतिस्थापित करने की चेष्टा में प्रयत्नशील रहता है।
मूलत: मनुष्य की वृत्ति का निर्मितिकरण इस प्रकार है कि वह ‘परा‘ से ‘परम‘ की प्रवृत्ति के केन्द्र पर आवृत होता है। जीवन के सारत्त्तवों को सूत्रों में समाविष्ट करने के निमित्त पल-प्रतिपल नवीन छवि को प्रस्तुत करना चेतना के केन्द्र में होता है।
सृष्टि में प्रत्येक वस्तु की तीन अवस्थाएं प्रदर्शित हैं-भूत,वर्तमान व भविष्य। इन्हीं तीनों प्रकारान्तर स्थितियों से सजीव व निर्जिव की यात्राएं संचालित होती है। जीवन के नाट्य में नेपथ्य का बड़ा महत्व है, जहां मनुष्य अपने मूल अस्तित्व में न होकर भी आवश्यक-अनावश्यक नये स्वांग रचने की भूमिका तैयार कर रहा होता है, किंतु हर क्षण बदलते अस्तित्व को विस्मृत कर नये क्षण के समावेशीकरण के मध्य उसका अशेष भाग बन रहा होता है।
विवेक के विचलन से उत्स्र्फूत इस नये विचार के साथ कि, उसने स्वयं को परिवॢतत कर नये स्वरूप में प्रस्तुत किया है, जबकि वह मूल प्रकृति के स्वाभाविक बदलाव का हिस्सा हो रहा होता है।
सूक्ष्म कोशिकीय ईकाई से लेकर भौतिक मनुष्य बनने तक कि प्रक्रिया में नेपथ्य से सम्मुख तक कि यात्रा मनुष्य तय करता है, तथा प्रत्येक नवीन आगमित क्षण अथवा समय पर पिछले चित्र व चरित्र की परिवर्धित छवि अंकित करने का निर्मल प्रयास करता है।
दरअसल मनुष्य की भावना नैतिक संसार मे आदर्श और मूल्यों के आधार पर प्रतिमान स्थापित करने की सहज धारणा धारण कर स्वयं के चरित्र और चित्र को सकारात्मक दृष्टिकोण में अग्रेषित कर स्थापित करने की होती है। किन्तु समाज या समूह की भृकुटियां सदैव उर्ध्व पर आकृष्ट होती है। और वह समाज या समुच्चय में स्थापित प्रतिमान के बगैर कोई आदर्श या प्रतिमान को मान्यता नही देना चाहता।
विषय के मूल में यह है कि व्यक्ति चेष्टानुरूप सदैव प्रयास सकारात्मक पटल पर प्रक्षेपित समय व समाज अनुरूप छवि प्रस्तुत करना चाहता हैं,किन्तु समय के साथ तादात्म्य या साम्य स्थापित कर ही प्रदर्शित होगा,इसकी कोई गारण्टी नहीं..?
कहना यह है कि तीन विभिन्न स्थितियों के साथ यात्रा कर पल प्रतिपल बदलता मनुष्य चित्र व चरित्र से...? नेपथ्य से आमुख तक भरसक प्रयत्नशील होकर स्वच्छ व उत्कृष्ट आकृति प्रस्तुत करना चाहता है, जो समय के सापेक्ष होकर प्रतिमान कि स्थापना कर सके।
महान दार्शनिक अपने मूल या पूर्व के स्वरूप में अत्यंत कुरूप व अनाक्रष्ट किस्म के व्यक्ति की छवि प्रस्तुत करते है, तथापि अपने विचारों व दार्शनिक सिद्धान्तों से समाज में चिंतन की निर्मिति करने वाले प्रतिमान स्थापित कर गुजरते है, तो वहीं बुद्ध घर से निकलने से पूर्व अलग प्रकार का व्यक्तित्व समाज को दर्शित करवाते है तो वही बुद्ध होकर दुनिया को नया समाज, स्वरूप, सिद्धान्त,जीवन दर्शन देकर जाते है।
नेपथु से आमुख की इस यात्रा मैं हिन्दू धर्म व संस्कृति के संवाहक मर्यादा पुरुषोत्तम राम, राम से श्री राम होने तक कि यात्रा तय कर नए युग को नई मर्यादा के प्रतिमान देकर जाते है।
सार यह कि....नेपथ्य से आमुख की यात्रा तय करें....लेकिन आदर्श के साथ प्रतिमान स्थापित करते हुए।
तभी हो सकेगा...जीवन रूपी नाटक का सही मंचन।
शुभकामनाएं।
©डॉ. मोहन बैरागी