Dr.Mohan Bairagi

Sunday, August 23, 2020


धुंध बिखरी हर तरफ ये, छटने लगेगा कब अंधेरा
सांस बोझिल हो चली अब, कौन जाने कब सवेरा

हमने अपने ही गले में बांध रस्सी एक ली है
खुरदुरी सी है, समझते इसको हम रेशमी है
बने हम जान के दुश्मन अपनी ही धरा पर
संकटों ने मौत के हमको यहाँ फिर से घेरा
कौन जाने कब सवेरा......

दी प्रकृति ने धरा पर नेमते कितनी हमें
शुद्ध वायु, जल यहाँ और किमती सांसे
पेट भरने खाते रहे हम जानवरों को
रूष्ट होकर देख लो इसने है मुँह फेरा
पेट भरने के लिए धरती उगलती बीज
कौन जाने कब सवेरा.......

सभ्यता है मनुष्य की क्या यहीं सिखलाती
क्रोध में जब रोद्र प्रृकति रूप है दिखलाती
फिर उपतजी मौत के सामान भी देख लो
इक सदी में सार्स, ईबोला, और कोरोना
कौन जाने कब सवेरा.....

हारती है हमेशा मनुष्यता से हमेशा त्रासदी
जीत ही लेंगे सभी हम भयानक इस सदी को
होगा प्रकृति के विरूद्ध नहीं बस साथ चलना
देखिये फिर लगेगा हर तरफ खुशियों का डेरा
कौन जाने कब सेवरा.........
डॉ. मोहन बैरागी
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2. 02/03/2020
गज़ल -
अर्धसत्य और धुंध-धुंधलके, छोड़ो इनसे होगा क्या
जुड़े रहें क्युँ हम भ्रम से, छोड़ो इनसे होगा क्या

कोरोना का रोना लेकर, बैठे रहना ठीक नहीं
एक नया सुर्योदय होगा, छोड़ो इनसे होगा क्या

पोहा पार्टी, वाटर, हाला, फिर से जमेगी मधुशाला
लॉकडाउन या घरबंदी, छोड़ो इनसे होगा क्या

फिर गुँजेंगे गान दिशा में, फिर गीतों का मौसम
रोक सका क्या युग को कोई, छोड़ो इनसे होगा क्या

गीत कहेंगे वे सब अब तो, समय को जिसने भोगा क्या
आने वाले हैं फिर ‘मोहन‘, छोड़ो इनसे होगा क्या
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3. गीत 05/04/2020
छीप जलाओ मन के भीतर
कर दो चारो ओर उजाला

विषधर समय खड़ा है सम्मुख
ज़हरीले कंटक पथ बिखरे हैं
कठिन परीक्षा देना होगी
नीलकण्ठ ने पिया ज्यूँ हाला
कर दो चारो ओर उजाला

खींच युग की फिर प्रत्यंचा
बान प्रीत के छोड़ने होंगे
मन भीतर ये सब हैं बसते
मंदिर, मस्जिद और शिवाला

गया वक्त तो बीत गया फिर
उसको याद करें हम कैसे
अवशेषों के आराधन से
तिमिर नहीं हटने वाला
कर दो चारो ओर उजाला

आओ साथी साथ चले कुछ
पथ एैसे तैयार करो तुम, मैं कुछ
सबके घर दीवारें दर रोशन हों
बने नहीं कोई मकड़ी जाला
कर दो चारो ओर उजाला

दीप जलाओ मन के भीतर
कर दो चारो ओर उजाला...
डॉ. मोहन बैरागी
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18/04/20
कविता
होने को तो सब हैं, आंगन, देहरी, धूप-छाँव
कमरे, खिड़की, दरवाजे, फटी ऐड़िया चलते पाँव
सुंदर फूलों के गमले भी हैं, टंगी दीवार घड़ी एक
सोफा, बेड, ड्रेसिंग, डायनिंग टेबल भी बड़ी एक
गुसलख़ाने में शॉवर, छत पर टीवी का टॉवर भी है!
कुछ किताबें पढ़ने को, अपने ख़ालीपन से लड़ने को
फिर भी कोई एकाकी-पन सा मन भीतर में पलता है!
शायद ईक तेरा ना होना ही मन को खलता है!
जीवन जैसे-तैसे चलता है.....

और सुनों, हाँ!, मेरे पास मन बहलाने को मोबाईल भी है।
बरबाद करने को हर दिन चौबीस घंटे का समय पुरा है।
उचटी हुई नींद, रात, और मच्छर भगाने की क्वाईल भी है।
दिन में खुली आँख के सपने, हर रात एक ख़्वाब अधुरा है।
रिश्ते, नातेदार सभी हैं! हँसना चेहरे का बरकरार अभी है!
अच्छा-खासा बिज़नेस, कुर्ता, कोट, पेंट, टाई और मफलर
अपना कोई नहीं इन सब में लगता जैसे ये बेकार सभी है!
हर रोज़ उगे बस एैसे ही सूरज, शाम एैसे ही ढलता है।
जीवन जैसे-तैसे चलता है....
एक तेरा ना होना ही मन को........

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3. गीत  14/04/2020
तितली के रंगबिरंगे रंगों सी
बगिया के फलों की खुशबू सी लगती हो
तुम कुछ कुछ ऐसी लगती हो

एकाकी मन की भटकन, शोर शराबा धड़कन का
उम्मीदों के उजले दर्पन, मोती आँख के आंगन का
तोरन द्वार बंधे हो जैसे, तुम सतिया हो अंर्तमन का
घूप्प अंधेरे कमरे में तुम, चकाचौंध बिजली सी लगती हो
तुम कुछ कुछ ऐसी लगती हो.....

पाने खोने के असमंजस में, जीवन जीने के ढांढस में
धरती पर आशाओं के बीज रहे जो खेतों के अंतस में
जोड़ी बैल, गाय एक और बारिश की बूंदे जो पावस में
अल्हड़ हो तुम रेशम की चादर बुनती सी लगती हो
तुम कुछ कुछ ऐसी लगती हो.....

हरी घास की नरमाई, शीतल छांव की परछाई
बोले सबकुछ बिन बोले जो दर्पन में दिखलाई सी
थककर नींद हुई हो पुरी, भोर उनिंदी अलसाई सी
लक्ष्मी का रूप ज्यूँ बिटिया, नटखट नन्हीं सी लगती हो
तुम कुछ कुछ ऐसी लगती हो......

माँ की आँखों के सपने तुम, बाबा की एैनक तुम हो
त्यौहारों के उत्सव तुम हो, उल्लासो में रौनक तुम हो
घर-भर की खुशियाँ तुम, सुंदर कितनी मोहक तुम हो
गागर लेकर निकली कोई पनिहारिन देसी लगती हो
तुम कुछ कुछ ऐसी लगती हो......

आलिंदों में हृदय निलय के, सुर साधे हैं तुम्ही ने लय के
मुझको मुस्कानें तेरी लगती, जैसे घुमे हरदम धरा वलय के
बाहर-भीतर के हर भाषा, भाव सभी एहसासो में तुम हो
चंचल-हिरनी, पगली तुम ना जाने कैसी-कैसी लगती हो
तुम कुछ कुछ ऐसी लगती हो......
डॉ. मोहन बैरागी
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5. गीत  08/05/2020
यह समय कितना विषैला, फासला है बंधनों का
गीत लिखना भी कठिन अब कोई अभिनंदनों का

चिलचिलाती धुप यहाँ पिछे पड़ी है
शांति की बेला ओट लेकर के खड़ी है                
द्वारा सारे बंद हुए उल्लास के देखो
माह गायब हो गये मधुमास के देखो

क्या विवशता आ पड़ी क्या मोल है अब नंदनो का
क्या अमीरी क्या गरीबी दृश्य अब बस क्रंदनो का

है नहीं पराजित इस समर में जिंदगी के
सत्य भी है मानते, ढो रहे शव आदमी के
हुआ समय बीमार कंटिली हो गई है हवा भी
धैर्य ही उपचार होगा, धैर्य ही इसकी दवा भी

देह से लिपटा है सर्प अपनी गंध लेकर चंदनो का
पोछ लेंगे आँख के आँसु, वक्त आयेगा वंदनों का
डॉ. मोहन बैरागी
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गीत
8/5/20
आँसू स्वर में गाते अपने
इस दुनिया से भारी मन है

कोलाहल क्या खूब मचा
ये मेरी सिसकी एकल ही
सन्नाटे बाहर शोर मचाते
कर्कश आवाजे बेकल सी
चित्र के टुकड़े बिखरे मेरे
कितना विस्तारी दर्पन है
आँसू स्वर में.....

नयन सपन से खाली खाली
सुखी शाखे देखो सुखी डाली
भौंरा, तितली, कोयल, कागा
तोड़ रहा कोई प्रेम का धागा
मीठे बोल तड़पते मन भीतर
लगता दो अधरो में अनबन है
आँसू स्वर में......

किंचित सिंचित बैसाखी और
सावन सुखा सुखा सा लगता
उजले दिन खाकर अंधियारा
भीतर बाहर दिनभर जगता
जीवन हुआ हो पतझड़ जैसे
जैसे केवल इतिहासो में मधुबन है
आँसू स्वर में.......
डॉ. मोहन बैरागी
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कविता -कोरोना महामारी की वजह से देशभर में पलायन कर रहे मजदुरो के हक में

22/5/2020
तपती,झुलसाती तीखी धूप,
और सामने अंधेरा घुप।
बौराये आम, गर्मी में मन भी बौराया।
घर जाने को सड़क नापना,
मेरे हिस्से आया।
दो जून की रोटी पाने, विस्थापन था!
भूखे पेट अंतड़िया सुनती
पास जो मेरे ज्ञापन था।
मिलों पार खड़ा मेरा घर
आवाजे देता मुझको,
वादा करके आया था मैं,
चोखट,दरवाजों, छप्पर,
बूढ़ी माँ, पत्नी और बच्चों से।
पापी पेट की भूख मिटाने
भेजता रहूंगा, पैसे, जैसे-तैसे
लेकिन अब नही काम बनता
क्या लिखा तूने ओ नियंता?
पसीने की बूंदे बेचकर...
कमा लेता था कुछ रुपया
क्या यह समय की त्रासदी,
अब पसीने का मोल नहीं..!
पसीना तो अब भी बह रहा है...
मिलों सड़क नाप कर घर जाने में।
क्यों, इतना मजबूर हूँ..?
क्योकि शायद..
मैं मजदूर हूँ।
ौडॉ. मोहन बैरागी
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08
06/जुन/2020
गीत
सुंदर फूल खिले
सबका फूलवारी मन
जाने कौन गली में
ठहरे दरबारी मन

बूंदे बरखा सांसे तिनका
तिनका ओस लपेटा हो
सॉंसों से नाता जिनका
मद्धम सांसे गर महकाये तो
समझो हुआ षिकारी मन
जाने कौन गली.......

गॉंव बसे कई नयनों में
भाषा बोली एक तरफ
और रहे कोई चयनों में
प्रीत किसी से हो जाये तो
गाता सिर्फ मुरारी मन
जाने कौन गली.......

मन से मन का मिलना हो
बिन देखे, बिन जाने भी ये
कंवल अगर जो खिलना हो
बिना बात कोई मुस्काये तो
मन पर चली ज्यों आरी मन
जाने कौन गली......
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09
16/जुन/2020
गीत
इस बेढंगी दुनिया में, जीना आसान नहीं है
बाकी सब इसमें लेकिन कोई इंसान नहीं है

रोम छिद्र में तन्हाई बसती
ऑंखें होंठो संग हैं हंसती
बस्ती खाली अरमानों की
कौन दिषा बहती कष्ती
धारा निरंतर बहती, इसका अवसान नहीं है
बाकी सब इसमें लेकिन कोई इंसान नहीं है

जाने क्या चाहता अपना मन
क्या मिलता क्या जाता छूट
कैसे घर करता भीतर भीतर
जाने कब खुषियॉं जाती रूठ

उपर ओढे रहते, ये भीतर की मुस्कान नहीं है
बाकी सब है इसमें लेकिन कोई इंसान नहीं है

सबको खुष करते जाना है
उसकी खुषी देखेगा कौन
बांटा सबको हरदम लेकिन
हैं अपनी बारी पर सब मौन

जिंदा लोगों की बस्ती है, ये ष्मसान नहीं है
बाकी सब है इसमें लेकिन कोई इंसान नहीं है
संदर्भः- बालीवुड अभिनेता सुंषात सिंह राजपुत की आत्महत्या प्रकरण पर
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गीत 15/05/2020
शब्द सारे जो मुखर हैं,
भाव जिनके कुछ प्रखर हैं
वेदना जो कह न पाये,
शब्द केवल शब्द भर है
जो प्रकाशित ही हुए ना, पृष्ठ सारे जाँच लेना
आँख में उतरे जो आँसू, तुम हदय से बांच लेना

रातरानी स्वप्न लेकर
यामिनी संग आयेगी
यह कंटिली गंध भी
देह, दामिनी झुलसाएगी
टुटकर बिखरे जो दर्पण, तुम महज एक काँच लेना
आँख में उतरे जो आँसू, तुम हदय से बांच लेना

मन पराजित, सब पराजित
ध्येय चाहे जो हो लक्षित
ढूंढकर उपमान सारे
जो किये थे हम ने चयनित
क्या बजे अब धुन कोई, इन्हीं संग क्या नाच लेना
आँख में उतरे जो आँसू, तुम हदय से बांच लेना
डॉ. मोहन बैरागी
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गीत  16/07/2020

नागफनी सा जीवन इसमें
अमरबेल खिलेगी कैसे
चुभते कांटों तुम ही कहो यह
अंधियारी रात कटेगी कैसे
पर्वत खुशीयों का छोटा है पर
तिमिर का साया बडा हुआ है
हल्के बादल उपर उडते जाए
काला धुंआ नीचे खडा हुआ है

पतझारों का झुरमुट लिपटे तन से
फिर आंचल धूल झरेगी कैसे
अंधियारी रात .........

रीती प्यास घडे की मिटटी सुन री
मिलते बर्तन हर घर बनजे वाले
बता किस आकार ढलेगी अब तू
तू मुझसे हम तुझसे सजने वाले

सुखी मिटटी हो लेकर खडे कुम्हारा
मिटटी कोई घडा घडेगी कैसे
अंधियारी रात.......

गेंहू की बाली के पार का सुरज
जाकर फिर आएगा भोर लिये
उम्मीदों को बांध रहे आंचल में
सुबह के कुछ सपने और लिए

लेकिन नियति लिखने वाले बोलो
यह मुश्किल शाम ढलेगी कैसे
अंधियारी रात.....
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गीत 06/07/2020
धुप के पांव से नापता मैं डगर
रास्ते मिल रहे मंजिलें ना मगर

है तपिश को लिए रेत ही रेत बस
सुखी नदियां सूखे कहीं खेत बस
भाग्य रेखा हथेली में दिखती नहीं
उम्र करती रही जिंदगी से बहस
खत्म होते कभी फासले जो अगर
धूप के पांव से नापता मै डगर
रास्ते मिल रहे........

कई अबोले रहे शब्द ही आंख में
फिर भी दुनियां समेरे रहे पांख में
हे गिरना वो पडना संभलना कभी
दो चार दस अकेले नहीं लाख में
जाने कितना है लंबा ये लंबा सफर
धूप के पांव से नापता में डगर
रास्ते मिल रहे.........

जगमगाहट जरा पार जाने भी दो
कैद में रोशनी बांधना कब तलक
हौंसलों की उडाने कभी कम न हो
तोड दो दूरियां ये जीम वो फलक
जुगनूओं से उजाले कर लो बसर
धूप के पांव से नापता में डगर
रास्ते मिल रहे.........
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गीत 04/07/2020
आए कितने राह में रोडे
मुश्किल वक्त के कान मरोडे

तपते जीवन से कुंदन बनकर
निखरो निकलोगे बनठन कर
मेहनतकश लोगों सा तनपर
उठते है तो उठने दो फोडे
आए कितने राह में रोडे
मुश्किल वक्त...........

पानी जैसा सरल ही रहना
बाधाओं से कुछ न कहना
गर सागर सा बनना है तो
कतरा कतरा कर जोडे
आए कितने राह में रोडे
मुश्किल वक्त.......

आज नही ंतो कल अपना है
देखा जागते जो, वो सपना है
थकना नहीं बस चलते जाना
सफर खत्म गर रूके जो थोडे
आए कितने राह में रोडे
मुश्किल वक्त........
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गीत 02/07/2020
शाख से कोई पत्ता टूटा
सावन जैसे मुझसे रूठा
काम न आया मैं बागो के
छींटे पडे हो जो दागों के

भटक रहा मैं, बीन मंजिल के
मैं विस्थापित हूॅं....., मैं अभिशापित हूॅं.....

कोर पे आया जो आंखों की
तन्हा आंसू गीला होकर
देख बतलाये किसको अपना
ये बेचारा खुद रो रोकर

कह देने पर भी, कह ना पाया
ऐसे ज्ञापित हूॅं... मैं अभिशापित हूॅं...

जान सका न मुझकों कोई
सब उम्मीदें भीतर थी बोई
कहता किसकों मैं अपना
मेरा हुआ न कोई सपना

दर्द तुम्हारा, रहा तुम संग ही ना
ऐसे व्यापित हूॅं....मैं अभिशापित हूॅं...
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गजल 26/06/2020
मुझसे मेरे होने का सबूत चाहती है।
नादान मुहब्बत, ये क्या चाहती है।

कारोबार न घर, चूल्हे हैं बूझे हुए।
सियासत न जाने ये क्या चाहती है।

तुफान,तबाही,टिडिडया,कोरोन सब।
दिखा रही गरीबी ये क्या चाहती है।

बुक्काफाड हंसी,चीखना चिल्लाना।
खामोशी सिवा इसके क्या चाहती है।

सरकार फरमान,मौत पर दस बीस।
मौत चार कांधे, और क्या चाहती है।

हर सदी की ये त्रासदी दुनिया मोहन।
प्रकृति देकर लेती, और क्या चाहती है।
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26/07/2020
कविता-  
‘एकांत‘
भीड़ में एकांत
मनुष्य
माँ के गर्भ में
या मृत्यु शय्या पर
एकांत
जन्म से लेकर
बचपन, जवानी, बुढ़ापा
हर तरफ भीड़
संबधों की
किंतु स्वयं
एकांत
कलरव,
चीखती आवाज़े
ओढ़े नक़ाब,
दाएं-बाएं
मंडराती
आलिंगन,
आवाहन
नागफनी लिपटे
फुलों का
स्पर्श
क्षणिक सुख
देता
जीवनपर्यन्त
भीतर
हमसे
प्रेमालाप करता
एकांत
डॉ. मोहन बैरागी
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27/07/2020
कविता- ‘लकीर‘
दो हिस्सों में विभक्त करती
रोशनी और अंधेरे के मध्य
साँझ की लकीर
सुख और दूःख के बीच
महीन लकीर
नदी और तट के बीच
पानी और प्यास को बांटती
लकीर
लकीर ही तो है,
जो खिंचकर
धर लेती कोई भी
आकार
और लचीली होकर
गढ़ लेती लगभग
तिकोना हदय
जिसमें बसता
प्रेम
डॉ. मोहन बैरागी
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18/8/2020
गीत
थीरकन भीगी अधरों पर
सिहरन भीगी सांसों में
गीत छुआ क्या तुमने मेरा
मन वीणा के तार बजे है...!

रात गुजरती करवट लेते
नींद गयी है किसे ब्याहने
तकिये चादर से बाते करता
अभी सुबह के चार बजे है...!

मादकता आंखों के द्वारे
इन पर कितने दिल हारे
धमनी और शिराएं सारी
जाने कितनी बार बजे है...!

कंपित कंपित देह रश्मियां
मधु बरसता आंलिगन में
खुद बाहों में खुद को लेकर
घंटी मंदिर द्वार बजे है...!