Dr.Mohan Bairagi

Tuesday, May 8, 2018

भाग्य से जीतना क्यो कठिन हो रहा
लिखने वाला कथानक कहीं सो रहा
जगाओ उसको कहो नींद से
देख लो पीर बढ़ती मेरी जा रही

झांकते रोज़ आंसू आंख की कोर से
लड़ते जीवन से हर दिन रहे भोर से
हारना जीतना जैसे जानते भी नहीं
कुछ न कुछ छूटता रोज़ हर और से
अपेक्षाएं मुझसे लड़ती मेरी जा रही
देख लो पीर बढ़ती......

हो विधाता या तुम फिर मदारी कोई
क्या लिखा डोर खिंचति हमारी कोई
ना सपन ही मिले झिलमिलाहट लिए
मुस्कुराहट मिली ना कोई आहट लिए
परछाई मुझसे पीछड़ती मेरी जा रही
देख लो पीर बढ़ती.....

हिमशिखर कई गढ़े रात दिन एक कर
था पता पिघलेंगे सारे सूर्य को देखकर
थे प्रयासों में हम इनसे घर को बनाना
जो कहानी में कर्तव्य थे सब निभाना
योजना मुझसे बिगड़ती मेरी जा रही
देख लो पीर बढ़ती.....

जब बनाती रही धूप जीवन के चित्र
बन के साया खड़ा साथ में हो गया
मूल आकार से कुछ अलग सा दिखा
तब अचानक से मैं सोचने फिर लगा
मैं नहीं आकृति जो गढ़ती मेरी जा रही
देख लो पीर बढ़ती.....
©डॉ. मोहन बैरागी/14 अप्रैल 18
लक्ष्य साधे है धनुष सब ओर मेरी वो खड़े हैं
योजना में रखना होगा मुझको निर्णय जो कड़े है

रण की भेरी बज चुकी अब
युद्ध का पहला चरण है
सामने सब वो खड़े है
बौना जिनका आचरण है

रीति प्रीति भूलकर अब रण के नियम पालना
सामने भी तो सारे अपने संधान करने पर अड़े है

कुल की निष्ठा को निभाते
अश्वरथ पर द्रोण दिखते
ज्यों निराश्रित एकलव्य हो
आप ही सब विद्या सीखते

बूत बनाये किसके अब आकार किसका ढालना
इस युग के एकलव्यों ने खुद के भीतर द्रोण गढ़े है

कौन अपने क्या पराये
सोचना अब व्यर्थ है
मीन की आंखों को देखने
अब भी अर्जुन खुद समर्थ है

सोचा जैसे ही लड़ना सूर्य समय का ढल गया
रात में फिर सोचेंगे क्या हम काटते अपनी जड़ें है
©डॉ. मोहन बैरागी 15/04/18
पतझड़ गुलशन पर भारी, दूर हुई तितली उपवन से
मुँह फेरा क्यों तुमने हमसे,जीते जी हम मरते मन से

काग चिढ़ाये छत पर आकर
काली कर्कश आवाज लिये
रह रह कर सब याद दिलाए
धरे तुम्हारे हमने जो द्वार दिये

तम भी अपना आभारी,सब रिश्ते टूट रहे अनबन से
मुँह फेरा क्यों तुमने हमसे,जीते जी हम मरते मन से

कैसे तटबंध पार हुए नदिया
में तूफान कहाँ से आया यह
कल कल के संगीत कहाँ है
देखो शोर कहाँ से पाया यह

हमसे बरखा की दुश्वारी,यह कैसे रूठे रूठे सावन से
मुँह फेरा क्यों तुमने हमसे,जीते जी हम मरते मन से

धरती जैसा बोझा लगती है
ये पीड़ा अपने अंतरमन की
जिन आंखों से झरते मोती
शेष कहानी वीराने वन की

भर आयी यह फिर बेचारी, क्या चाहा था चितवन से
मुँह फेरा क्यों तुमने हमसे, जीते जी हम मरते मन से
©डॉ. मोहन बैरागी,03/05/18
बाद रोई सिसकियां भी,
क्या गए तुम आंख से
पीर अंतस बह गई सब,
क्या रहा अब गांव में

बुदबुदाहट ओंठ पर आठों पहर का घर करे
कोई नदिया आंसुओ की देह को भी तर करे
वेदना की झीनी चादर ओढ़ ढकते ग़म सभी

सूखे बरगद प्रीत के ये
क्या गयी चिड़िया कोई
नीड़ टूटे शाख खाली
क्या रहा अब छांव में

तुम संजोना ओस की बूंदों को मेरी आंख से
कहा था मुझसे तुमने पाती लिखकर पाँख से
ओस खारे पी रहा अब दिल मेरा है नम अभी

सृष्टि के सारे समंदर
क्या सभी छोटे हुए
अंजुरी में आ गए ये
क्या बचा अब नाव में

थी कठिन राहें कटीली जिंदगी की हमसफ़र
साथ चलना अंत तक रुकना नही तुम मगर
किस डगर कांटा लगा ये टीस है न कम अभी

दर्द पर्वत हो गए अब
क्या चुभा आंसू कोई
साथ कैसे चल सकेंगे
क्या बचा अब पांव में
©डॉ. मोहन बैरागी,02/05/18
प्रेम से आगे निकल जाएंगे
एक दिन एक दिन एक दिन

भाव मीरा से जब धरा गोल में
आँख में बोल में देह भूगोल में
स्वर बांसुरी फिर सुने जाएंगे
एक दिन एक दिन एक दिन

पार संसार के सीढ़िया जा रही
प्रीत सदियों से पीढियां गा रही
प्रतिमान प्रेम के गढ़े जाएंगे
एक दिन एक दिन एक दिन

प्रेम शबरियां उर्मिला अहिल्या
प्रेम ही जो दिखे बन कौशल्या
कबीरा तुलसी लिख जाएंगे
एक दिन एक दिन एक दिन

ठहरा आँसू आँख की कोर पर
जैसे सूरज रखा किसी भोर पर
रोशनी से रहेंगे संवर जाएंगे
एक दिन एक दिन एक दिन

रच रही नियति है नई इक कथा
हो अमर जाएगी कथा यह तथा
किस्से कहानी में सब गाएंगे
एक दिन एक दिन एक दिन

चलो जिंदगी यह भरम सोचना
झूठ सच को पड़ा सदा भोगना
प्रीत भी पीर भी सब आएंगे
एक दिन एक दिन एक दिन
©डॉ.मोहन बैरागी,01/05/18
तन की तृष्णा है अधूरी मन भी व्याकुल पास है
आस में हम भटके वन क्या यह कोई उपवास है

हम अजानी ख्वाहिशों के रोज़ मस्तक पूजते
ज्ञानियों सा ढोंग कर कर उल्टे सतीये लीपते
द्वार पर भी वारवन्दन टांगते संकल्प शुभ के
अक्षतों कुमकुम लगाए जैसे दृढ़ लिए विश्वास है
आस में हम भटके वन.....

कई अबोले बोल भीतर कसमसाते देह पर
स्वांग चतुराई के रचना बोलियों में नेह पर
मूर्तियों से मांगते हरपल छद्म निष्ठा केंद्र में
भ्रम के जीवन में भी हमको सत्य का आभास है
आस में हम भटके वन.....

रावणों का छल यहाँ बन मृग सी मरीचिका
सियाबर पाए न जान क्या बस आदमी का
प्यास शाष्वत सत्य है पर धैर्य बुटी श्रेष्ठ है
हाँ परन्तु गीत से जीवन में तृष्णा का अनुप्रास है
आस में हम भटके वन.....
©डॉ.मोहन बैरागी, 28/4/18
सुख दुख के हर रोज ही मंजर उथले गहरे बहते रहना
नाम तुम्हारा जीवन जैसे मुझको रोज ही लिखते रहना

तपती चौखट आंगन तपते
बिखरे बिखरे प्रांगण पत्ते
श्रम की बूंदे आंगन धोए
है प्रयास में सुख को बोए

बांध के कपड़ा तुलसीदल पर कैसे रोके उनका बहना
उम्मीदों संग बादल बरसे करते कोशिश दिखते रहना
नाम तुम्हारा जीवन जैसे.....

भीतर चूल्हे भूख मिटाते
रोटी मेहनत से ही खाते
निशां रोटियों पर जो है
बयां हमारे कर जाते

बाजारी इस दौर में देखो ना रुकना ना थकते रहना
रूखी सुखी चाहे खा लो पर तुम ना बिकते रहना
नाम तुम्हारा जीवन जैसे....

एक किनारे ढलकर सांझ
एक किनारे सुबह निकले
सृष्टि के नियम पहचाने
पड़ाव पर कैसे टिक ले

परिवर्तन होते हर पल सब परिवर्तन सृष्टि का गहना
संघर्षों को ही जीवन मानो इससे तुम ना डिगते रहना
नाम तुम्हारा जीवन जैसे.....
© डॉ. मोहन बैरागी, 27/4/18
बोल कर देखिये,देख कर बोलिये
जो है दिल में छुपे राज़ सब खोलिये

भावनाएं हृदय की कहो तो कभी
सारी अनुकूल है ये फिजायें अभी
गांठ रेशम की है नेह से खोल दो
है शिकायत कोई मुँह से बोल दो
हो रहा हल्का मन हवा से अधिक
प्रेम या द्वेष है देखकर तोलिये
बोलकर देखिये......

अधिकता लिए खालीपन रोज एक
रोकती राह फिर रिक्तता रोज एक
दुख के हालात या सुख का समय
नियति ये नही करते हम ही है तय
मुस्कुराहट परोसें खुशनुमा नैन से
देखिये कौन फिर साथ संग हो लिए
बोलकर देखिये.....

यादें तन्हा उकेरे हर घड़ी कोई चित्र
आप खुद ही नही रहे खुद के मित्र
मित्रता भी निभाओ मगर प्यार से
मिल के रहना जरूरी है संसार से
आंसुओ से कहो आंख में ही रहे
जो बह चुके उनसे गम धो लिये
बोलकर देखिये.....
©डॉ मोहन बैरागी, 18/4/18

Monday, April 16, 2018






मैने मांगा तुम्हे तुम चयन में रहे
जो गंगा का जल आचमन में रहे
स्वप्न आये कभी या आये नही
रात दिन तुम हमारे नयन में रहे...
उज्जैन कार्तिक मेला मंच पर काव्य पाठ का अवसर प्राप्त हुआ
एक ऋण ज़िन्दगी का चुकाना पड़ा
आस का एक तृण चुन उठाना पड़ा

खुश हुए जब  निरापद सी सांसे मिली
निर्विघ्न धड़कने सुन सब बहारें खिली
गीत  खुशियों के  आंगन में बजने लगे
उत्सवों की  नियति को  निभाना पड़ा
आस का एक तृण....

उम्र बढ़ने लगी आकार बढ़ता गया
धरा से वो आसमां को चढ़ता गया
संबंधों की  उलझनें भी आने लगी
ताल से मेल फिर यों बिठाना पड़ा
आस का एक तृण....

था पता  ज़िन्दगी है समय के सहारे
पल मिले कितने कितने कैसे गुज़ारे
फिर भी जीवन था जीना जरूरी हमें
सारी शर्तो को हाथों से मिटाना पड़ा
आस का एक तृण....

निभाये सभी रिश्ते हमको मिले जो
कर्म सारे किये थे विधि ने लिखे जो
उपहार ही है ये जीवन मेरा चराचर
उपहार हमको गीतों सा गाना पड़ा
आस का एक तृण...
©डॉ.मोहन बैरागी📞9424014366
25/12/2017
कौन हो ज़िन्दगी तुम साँसों के द्वारे
या रुकोगी अभी संग चलोगी हमारे

इक सतह जो गगन और धरा पर पड़ी है
इक फतह जो इरादो से मेरी आगे बढ़ी है
मानते दूरियां यह कोई लंबवत भी नही है
हौंसले मिल रहे है हौंसलो के सहारे
या रुकोगी अभी संग चलोगी हमारे

बह रही सारी नदियां जो समय के बराबर
गुज़री सदियां छलावे या छल को हराकर
पत्थरों से गवाही ये इतिहास बाँचे धरापर
लिखा सब यह प्राक्कथन में तुम्हारे
या रुकोगी अभी संग चलोगी हमारे

निभाये सभी कर्म तुमसे हमको मिले जो
जाने किसने मेरे मर्म आवरण में दबे जो
करते स्वागत तुम्हारा धर्म से हम बंधे जो
आओ जीवन यह हम संग में गुज़ारे
या रुकोगी अभी संग चलोगी हमारे

कौन हो ज़िन्दगी तुम साँसों के द्वारे
या रुकोगी अभी संग चलोगी हमारे
©डॉ. मोहन बैरागी
📞9424014366


यक्ष प्रश्नों के तुम्हे मैं दे नही उत्तर सकूँगा
अवसान आंसुओं का है यही बस मान लो

शब्द लेकर अर्थ खिंचे रश्मियों पर धूप की
सूरज भी आँख मीचे अनमने इस रूप की
मौन पर्वत कब दहाड़े है किसी की पीर पर
कौन बोला है कब यहां उर्मिला के धीर पर
युग की टीस यही है अब इसको मान लो
अवसान आंसुओं का.....

द्वार पर ताले दरख्तों फूटते छाले यहाँ पर
ड्योडीयां सुनी परन्तु श्वान पाले मकां पर
रंग गहरा पड़ गया अब आंगनों दीवार का
खो गया जाने कहाँ था रंग वो जो प्यार का
मान के बदले मिला है तुम्हे अपमान लो
अवसान आंसुओं का.....

अब वेद से ज्ञानी हुए सब यहाँ पर देखिये
खो गया है मिला क्या अपनी रोटी सेकिये
भाव भीतर तक भरे पर भावना कोई नहीं
छद्म खुशियां ओढ़े रहते पर साफगोई नहीं
चेहरे पर चेहरे लगायें है सभी ने जान लो
अवसान आंसुओं का.....

है दिवंगत स्वप्न चढ़ते जिंदगी के व्यास पर
जागने सोने का अंतर देह के विन्यास पर
चेतना सोती नही जब शून्य के आकार पर
दीप भीतर का तुम्हारे है नहीं अधिकार पर
हृदय में जल रहे इस दीप पर अभिमान लो
अवसान आंसुओं का.....
©डॉ.मोहन बैरागी 📞 9424014366

चलो के तन्हाईयो से बात करते है
कभी गुमसुम कभी उदास
अकेली या कभी भीड़ में
मन के भीतर और बाहर के निर्वात तक
सूक्ष्म बिंदु पर बैठकर विचरती
नहीं पहुंचती जो किसी मंज़िल तक
धीरे धीरे होती अभ्यस्त
खुद से बतियाने की
शायद,मुक्कमल हो
बात करने से
और मुस्कुरा दे
शब्द तो हैं नहीं तन्हाइयों के पास
निःशब्द होकर मौन से बोलती
चलो के तन्हाइयों से बात करते है
........
चलो के परछाइयों से बात करते है
पीछा करती रोशनी के विपरीत
अक्स अधूरे बनाती जब तब
अस्तित्वहीन होकर भी
आकार की आकांक्षा में
चयन का अधिकार नहीं जिसको
निरुद्देश्य विचरती
चाहती जीवन
शायद
बोल कर तो देखें
करेगी बात
तो चलो के परछाइयों से बात करते हैं
©डॉ. मोहन बैरागी 📞9424014366
31/03/18
भाग्य से जीतना क्यो कठिन हो रहा
लिखने वाला कथानक कहीं सो रहा
जगाओ उसको कहो नींद से
देख लो पीर बढ़ती मेरी जा रही

झांकते रोज़ आंसू आंख की कोर से
लड़ते जीवन से हर दिन रहे भोर से
हारना जीतना जैसे जानते भी नहीं
कुछ न कुछ छूटता रोज़ हर और से
अपेक्षाएं मुझसे लड़ती मेरी जा रही
देख लो पीर बढ़ती......

हो विधाता या तुम फिर मदारी कोई
क्या लिखा डोर खिंचति हमारी कोई
ना सपन ही मिले झिलमिलाहट लिए
मुस्कुराहट मिली ना कोई आहट लिए
परछाई मुझसे पीछड़ती मेरी जा रही
देख लो पीर बढ़ती.....

हिमशिखर कई गढ़े रात दिन एक कर
था पता पिघलेंगे सारे सूर्य को देखकर
थे प्रयासों में हम इनसे घर को बनाना
जो कहानी में कर्तव्य थे सब निभाना
योजना मुझसे बिगड़ती मेरी जा रही
देख लो पीर बढ़ती.....

जब बनाती रही धूप जीवन के चित्र
बन के साया खड़ा साथ में हो गया
मूल आकार से कुछ अलग सा दिखा
तब अचानक से मैं सोचने फिर लगा
मैं नहीं आकृति जो गढ़ती मेरी जा रही
देख लो पीर बढ़ती.....
©डॉ. मोहन बैरागी/14 अप्रैल 18
लक्ष्य साधे है धनुष सब ओर मेरी वो खड़े हैं
योजना में रखना होगा मुझको निर्णय जो कड़े है

रण की भेरी बज चुकी अब
युद्ध का पहला चरण है
सामने सब वो खड़े है
बौना जिनका आचरण है

रीति प्रीति भूलकर अब रण के नियम पालना
सामने भी तो सारे अपने संधान करने पर अड़े है

कुल की निष्ठा को निभाते
अश्वरथ पर द्रोण दिखते
ज्यों निराश्रित एकलव्य हो
आप ही सब विद्या सीखते

बूत बनाये किसके अब आकार किसका ढालना
इस युग के एकलव्यों ने खुद के भीतर द्रोण गढ़े है

कौन अपने क्या पराये
सोचना अब व्यर्थ है
मीन की आंखों को देखने
अब भी अर्जुन खुद समर्थ है

सोचा जैसे ही लड़ना सूर्य समय का ढल गया
रात में फिर सोचेंगे क्या हम काटते अपनी जड़ें है
©डॉ. मोहन बैरागी 15/04/18