Dr.Mohan Bairagi

Monday, April 16, 2018

एक ऋण ज़िन्दगी का चुकाना पड़ा
आस का एक तृण चुन उठाना पड़ा

खुश हुए जब  निरापद सी सांसे मिली
निर्विघ्न धड़कने सुन सब बहारें खिली
गीत  खुशियों के  आंगन में बजने लगे
उत्सवों की  नियति को  निभाना पड़ा
आस का एक तृण....

उम्र बढ़ने लगी आकार बढ़ता गया
धरा से वो आसमां को चढ़ता गया
संबंधों की  उलझनें भी आने लगी
ताल से मेल फिर यों बिठाना पड़ा
आस का एक तृण....

था पता  ज़िन्दगी है समय के सहारे
पल मिले कितने कितने कैसे गुज़ारे
फिर भी जीवन था जीना जरूरी हमें
सारी शर्तो को हाथों से मिटाना पड़ा
आस का एक तृण....

निभाये सभी रिश्ते हमको मिले जो
कर्म सारे किये थे विधि ने लिखे जो
उपहार ही है ये जीवन मेरा चराचर
उपहार हमको गीतों सा गाना पड़ा
आस का एक तृण...
©डॉ.मोहन बैरागी📞9424014366
25/12/2017

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