चलो के तन्हाईयो से बात करते है
कभी गुमसुम कभी उदास
अकेली या कभी भीड़ में
मन के भीतर और बाहर के निर्वात तक
सूक्ष्म बिंदु पर बैठकर विचरती
नहीं पहुंचती जो किसी मंज़िल तक
धीरे धीरे होती अभ्यस्त
खुद से बतियाने की
शायद,मुक्कमल हो
बात करने से
और मुस्कुरा दे
शब्द तो हैं नहीं तन्हाइयों के पास
निःशब्द होकर मौन से बोलती
चलो के तन्हाइयों से बात करते है
........
चलो के परछाइयों से बात करते है
पीछा करती रोशनी के विपरीत
अक्स अधूरे बनाती जब तब
अस्तित्वहीन होकर भी
आकार की आकांक्षा में
चयन का अधिकार नहीं जिसको
निरुद्देश्य विचरती
चाहती जीवन
शायद
बोल कर तो देखें
करेगी बात
तो चलो के परछाइयों से बात करते हैं
©डॉ. मोहन बैरागी 📞9424014366
31/03/18
कभी गुमसुम कभी उदास
अकेली या कभी भीड़ में
मन के भीतर और बाहर के निर्वात तक
सूक्ष्म बिंदु पर बैठकर विचरती
नहीं पहुंचती जो किसी मंज़िल तक
धीरे धीरे होती अभ्यस्त
खुद से बतियाने की
शायद,मुक्कमल हो
बात करने से
और मुस्कुरा दे
शब्द तो हैं नहीं तन्हाइयों के पास
निःशब्द होकर मौन से बोलती
चलो के तन्हाइयों से बात करते है
........
चलो के परछाइयों से बात करते है
पीछा करती रोशनी के विपरीत
अक्स अधूरे बनाती जब तब
अस्तित्वहीन होकर भी
आकार की आकांक्षा में
चयन का अधिकार नहीं जिसको
निरुद्देश्य विचरती
चाहती जीवन
शायद
बोल कर तो देखें
करेगी बात
तो चलो के परछाइयों से बात करते हैं
©डॉ. मोहन बैरागी 📞9424014366
31/03/18
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