Dr.Mohan Bairagi

Tuesday, May 8, 2018

पतझड़ गुलशन पर भारी, दूर हुई तितली उपवन से
मुँह फेरा क्यों तुमने हमसे,जीते जी हम मरते मन से

काग चिढ़ाये छत पर आकर
काली कर्कश आवाज लिये
रह रह कर सब याद दिलाए
धरे तुम्हारे हमने जो द्वार दिये

तम भी अपना आभारी,सब रिश्ते टूट रहे अनबन से
मुँह फेरा क्यों तुमने हमसे,जीते जी हम मरते मन से

कैसे तटबंध पार हुए नदिया
में तूफान कहाँ से आया यह
कल कल के संगीत कहाँ है
देखो शोर कहाँ से पाया यह

हमसे बरखा की दुश्वारी,यह कैसे रूठे रूठे सावन से
मुँह फेरा क्यों तुमने हमसे,जीते जी हम मरते मन से

धरती जैसा बोझा लगती है
ये पीड़ा अपने अंतरमन की
जिन आंखों से झरते मोती
शेष कहानी वीराने वन की

भर आयी यह फिर बेचारी, क्या चाहा था चितवन से
मुँह फेरा क्यों तुमने हमसे, जीते जी हम मरते मन से
©डॉ. मोहन बैरागी,03/05/18

No comments:

Post a Comment