तन की तृष्णा है अधूरी मन भी व्याकुल पास है
आस में हम भटके वन क्या यह कोई उपवास है
हम अजानी ख्वाहिशों के रोज़ मस्तक पूजते
ज्ञानियों सा ढोंग कर कर उल्टे सतीये लीपते
द्वार पर भी वारवन्दन टांगते संकल्प शुभ के
अक्षतों कुमकुम लगाए जैसे दृढ़ लिए विश्वास है
आस में हम भटके वन.....
कई अबोले बोल भीतर कसमसाते देह पर
स्वांग चतुराई के रचना बोलियों में नेह पर
मूर्तियों से मांगते हरपल छद्म निष्ठा केंद्र में
भ्रम के जीवन में भी हमको सत्य का आभास है
आस में हम भटके वन.....
रावणों का छल यहाँ बन मृग सी मरीचिका
सियाबर पाए न जान क्या बस आदमी का
प्यास शाष्वत सत्य है पर धैर्य बुटी श्रेष्ठ है
हाँ परन्तु गीत से जीवन में तृष्णा का अनुप्रास है
आस में हम भटके वन.....
©डॉ.मोहन बैरागी, 28/4/18
आस में हम भटके वन क्या यह कोई उपवास है
हम अजानी ख्वाहिशों के रोज़ मस्तक पूजते
ज्ञानियों सा ढोंग कर कर उल्टे सतीये लीपते
द्वार पर भी वारवन्दन टांगते संकल्प शुभ के
अक्षतों कुमकुम लगाए जैसे दृढ़ लिए विश्वास है
आस में हम भटके वन.....
कई अबोले बोल भीतर कसमसाते देह पर
स्वांग चतुराई के रचना बोलियों में नेह पर
मूर्तियों से मांगते हरपल छद्म निष्ठा केंद्र में
भ्रम के जीवन में भी हमको सत्य का आभास है
आस में हम भटके वन.....
रावणों का छल यहाँ बन मृग सी मरीचिका
सियाबर पाए न जान क्या बस आदमी का
प्यास शाष्वत सत्य है पर धैर्य बुटी श्रेष्ठ है
हाँ परन्तु गीत से जीवन में तृष्णा का अनुप्रास है
आस में हम भटके वन.....
©डॉ.मोहन बैरागी, 28/4/18
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