Dr.Mohan Bairagi

Tuesday, May 8, 2018

तन की तृष्णा है अधूरी मन भी व्याकुल पास है
आस में हम भटके वन क्या यह कोई उपवास है

हम अजानी ख्वाहिशों के रोज़ मस्तक पूजते
ज्ञानियों सा ढोंग कर कर उल्टे सतीये लीपते
द्वार पर भी वारवन्दन टांगते संकल्प शुभ के
अक्षतों कुमकुम लगाए जैसे दृढ़ लिए विश्वास है
आस में हम भटके वन.....

कई अबोले बोल भीतर कसमसाते देह पर
स्वांग चतुराई के रचना बोलियों में नेह पर
मूर्तियों से मांगते हरपल छद्म निष्ठा केंद्र में
भ्रम के जीवन में भी हमको सत्य का आभास है
आस में हम भटके वन.....

रावणों का छल यहाँ बन मृग सी मरीचिका
सियाबर पाए न जान क्या बस आदमी का
प्यास शाष्वत सत्य है पर धैर्य बुटी श्रेष्ठ है
हाँ परन्तु गीत से जीवन में तृष्णा का अनुप्रास है
आस में हम भटके वन.....
©डॉ.मोहन बैरागी, 28/4/18

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