Dr.Mohan Bairagi

Monday, February 20, 2017

रात आधी,मन भी आधा,चाँद आधा
प्रीत अपनी मैं समय की रेख पर लिख रहा हूँ

बैठकर बिस्तर पे सोचे मन अकेला
तुमहो मुझसे दूर है संग याद का मेला
बंद आँखे देखती है प्रीत के उपवन
ज्यो शिवालों में बजे हे घंटिया पावन
आ गया फिर हाथ पर एक हाथ हलका
और नयन की कोर पर इक बून्द छलका
कह रहा जैसे के हमने प्रेम ही साधा
रात आधी,मन भी आधा.......

चमक बनके सितारों सी छुपकर के आओ
ओढ़ लो घूँघट ज़रा देख ना ले चाँद तुमको
है बड़ा शातिर जर्रा तुमसे रौशनी मांग लेगा
लक्ष्य मुझको मानकर आओ आहट न होगी
है भरोसा प्रीत पर तुम रात काली काट दोगी
लम्हे लम्हे जा रहे कितनी सदियों के बराबर
आओ मैं मोहन बनूँ तुम बनो मेरी ही राधा
रात आधी,मन भी आधा......
Copyright
@डॉ मोहन बैरागी

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