यथार्थ में आदर्श या आदर्श में यथार्थ
लेखक :- डॉ. मोहन बैरागी
मनुष्य के वर्तमान जीवन में यथार्थवाद की अधिकता है और आदर्श तथा मूल्य समाप्त होते जा रहे है।
सरल भाषा मे कहें तो मनुष्य जीवन के सच को यथार्थ कहा जा सकता है और यह सामाजिक, मनोवैज्ञानिक आदि कई प्रकार का हो सकता है। इसी यथार्थ से कभी कभी आदर्श की भी प्रतिस्थापना होती है।
आधुनिक सोच तथा तात्कालिक मनःस्थिति में विवेकहीनता दिखाई पड़ रही है। साहित्य में भी आधुनिक काल के लेखकों ने आदर्श से ज्यादा यथार्थ को महत्व दिया है। ज्यादातर लेखकों ने रिश्तों में प्रेम का उल्लेख किया, और वो भी छायावाद के प्लेटोनिक प्रेम की तरह। इसी क्रम को जयशंकर प्रसाद तथा प्रेमचंद जैसे लेखकों ने भी लिखा, जिसमे संबंधों में प्रेम तो है, लेकिन अपर्याप्त या अप्राप्त..? यहां प्रेम के औदात्य या उसकी गरिमा को कुछ इस तरह दर्शाया या लिखा गया कि यह मनुष्य जीवन का हिस्सा तो है, पर पूर्णता नहीं है। कहा जा सकता है कि आधुनिक कहानियों में यथार्थवाद हावी है आदर्शवाद नही।
विचारणीय है कि मनुष्य की कहानी के यथार्थवाद महत्वपूर्ण है या यथार्थवाद की कहानियां।
आधुनिक काल में 1901 में माधवराव सप्रे की हिंदी साहित्य की पहली कहानी "एक टोकरी भर मिट्टी" थी, जिसमें यही असमंजस है।
थोड़ा और विचार करने पर लगता है कि लेखकों ने मनुष्य को उलझाए रखने या उसकी सोच या विवेक को सक्रिय बनाये रखने के लिए इस तरह के प्रयोग किये है, जबकि
रस के आस्वादन के समय कथा, कथानक, उद्देश्य के साथ उसके यथार्थ के साथ तादात्म्य बैठाने की कला मनुष्य में जन्मजात उपस्थित होती है।
यथार्थ और आदर्श की उलझन को समझने की दृष्टि से कई लेखकों ने इसका भी विवेचन किया। जैसे, मुक्तिबोध ने कहा कि यथार्थवादी कथ्य को प्रस्तुत करने के लिए शिल्प को कभी कभी गेर यथार्थवादी होना पड़ता है। कथ्य यथार्थवादी हो तो आवश्यक नही की शिल्प भी यथार्थवादी हो। कुछ लेखक तो जीवन मूल्यों से इतर यथार्थ को प्रस्तुत करने की कोशिश में फंतासी तक पहुंच जाते है और पाठक या आम मनुष्य को रोचक ढंग से या नाटकीय ढंग से आदर्श... यथार्थ को दर्शाने के प्रयास में रहते है। एक और लैटिन लेखक गरसिया मारकॉज़ का मानना था कि यह मैजिकल रियलज़म है। अतिप्राकृतिक तत्वों का इस्तेमाल कर यथार्थ को उभारने के प्रयास को मैजिकल रियलज़म माना जाता है। वर्तमाम समय के लेखकों में उदय प्रकाश भी यही प्रयोग करते है।
यथार्थ और आदर्श को लेखकों ने समाज के सामने अपने अपने तरीके से प्रस्तुत किया है।आधुनिक समाज के मनुष्य ने अपनी धारणाये पूर्व प्रसंगों को आधार मानकर तय की हुई है। आदिकाल में जैसे वाल्मीकि रामायण में एक प्रसंग है जिसमे राम वनवास से लौटकर आते है, फिर अवध का राजपाठ संभाल लेते है और वशिष्ठ उनके गुरु है।
किसी एक दिन राम अपने गुरु वशिष्ठ से पूछते है कि राज्य में सबकुछ ठीक है या नही, वशिष्ठ जवाब देते है राजन, यह कार्य आप स्वयं राज्य में घूमकर देखें। तब राम अपने राज्य में घूमकर देखते है, उन्हें एक व्यक्ति तपस्या करते मिलता है, राम प्रसन्न होकर सोचते है कि उनके राज्य में सब सुख शांति है और लोग अपने जीवन कार्य के अलावा तपस्या और भक्ति भी करते है, वे पूछते है, तुम कौन हो...! जवाब मिलता है मेरा नाम शम्बूक है...!, किस वर्ण के हो...शुद्र हूँ..! यह सुनकर राम क्रोधित हो जाते है और तुरंत शम्बूक की गर्दन धड़ से अलग कर देते है, इस विचार से की शुद्र होकर तपस्या कैसे कर सकता है..?
इसी प्रसंग को तुलसीदास जी ने मानस में नही लिखा है...? कुछ और ऐसे कुछ प्रसंग भवभूति ने अपनी राम कथा में लिखे जबकि तुलसी ने नही लिखे...?
प्रश्न यह कि कथानक यथार्थवाद के कितने करीब....?
उत्तर यह, संभवतः यथार्थवाद से ज्यादा आवश्यक आदर्शवाद की स्थापना है। समाज मे आदर्श स्थापित होंगे तभी मनुष्य आदर्श के आधार पर नैतिक जीवन जी सकेंगे।
सार यह कि नैतिक रहें, नैतिक बनें, और आदर्श जीवन जियें।
©डॉ. मोहन बैरागी
14/7/2022
No comments:
Post a Comment