जब जीवन की त्वरा तिर्यक रेखा पर तत्सम त्रिकोण बनाती हुई आगे बढ़ती है, तब त्वरित व तात्कालिक उत्पाद सफलता के चर्मोत्कर्ष पर स्वयं को देखना मनुष्य की असंतुलित कल्पना है, जो फलीभूत होने के केंद्र पर दृष्टिपात करती है, किन्तु सवाल सतह पर होता है...? उसके लिये प्रयास कितने मनोयोग से किये गए...? हर मनुष्य स्वयं को श्रेष्ठ तथा श्रेष्ठतम घोषित करने की दौड़ में है।
शरीर संरचना निर्माण के बाद से संगत - असंगत परिस्थितियों के चलते मनुष्य जीवनपर्यंत उम्र के किसी भी हिस्से में तय नहीं कर पाता कि उसके निर्माण से पृकृति व अन्य पशु-पक्षियों, जानवरों,मनुष्यों अथवा सृष्टि को क्या मिला या उसने क्या दिया...? उसे लोभ सदैव पाने का होता है की हासिल क्या हुआ..? भौतिकी में न्यूटन का तीसरा सामान्य सिद्धान्त है कि यदि कोई गेंद किसी दीवार पर जिस बल से फेंकोगे, प्रतिक्रिया स्वरूप वह पुनः अपने बल से आपकी तरफ लौटेगी। सामान्यतः बुद्धियुक्त मनुष्य इस बात से अनभिज्ञ होता है एवं वह देह की आयु के सोपान को पूर्ण करने की चेस्टा में लगा रहता है। प्रमाणित है कि मनुष्य पर संस्कृति का प्रभाव होता है और संस्कृति के अनुरूप ही उसका विकास होता है।
अध्ययन से पता चलता है कि मोनोलिथिक संस्कृति (कोई एक संस्कृति जो दूसरी पर प्रभावी हो) में जब मनुष्य फंसता है तब चाहे अनचाहे उसे मोनोलिथिक संस्कृति को स्वीकार करने की मजबूरी होती है और उसी संस्कृति के अनुरूप उसके आचार-विचार व संस्कार का निष्पादन होता है। इसी संस्कृति के मनुष्य में निष्पत्ति स्वरूप अन्य से श्रेष्ठ न दिख पाने या प्रमाणित हो पाने की दशा में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष या भीतर कहीं आभासित चुभन या जलन का भाव पैदा हो जाता है। व्यक्ति सृष्टि के प्रारंभ से किन्ही भी संस्कृतियों से जन्मा हो अथवा देश काल परिस्थिति अनुरूप कोई भी संस्कृति से संस्कारित हुआ हो, या हृदय के नेपथ्य में सूक्ष्म सकारात्मक भाव से यदि मेल्टिंग पॉट कल्चर (गलन पात्र संस्कृति) के सिद्धान्त को अपनाकर उसमे शामिल हो भी जाता है। तब भी अन्य से एकात्म होने का भाव पैदा नहीं कर पाता। निर्माण प्रक्रिया के कोई भी कल्चर या किसी संस्कृति को हम ले लें, जैसे- सेलेड-बोल अथवा मोज़ैक कल्चर के देश भारत मे चुभन का फिर भी बड़ा ही महत्व है।
दूसरे से ईर्ष्या या उसके श्रेष्ठ होने की चुभन हमें उसके दर्शन किसी माफिया सदृश्य करवाती है।
माफिया (इटली से आयातित शब्द जिसके अपने भारतीय अर्थ है..?) अपनी चुभन का एहसास शरीर के स्नायुतंत्र को कष्टयुक्त तरंगे पैदा करने में करता है, जो मश्तिष्क के फ्रंटल, पेरिटल व ऑक्सीपिटल लोब को सूचना संप्रेषित कर दर्द के भाव को पैदा करता है और यही दर्द का भाव मनुष्य को विचलित करता है..?
संस्कृति ही है जो सभ्यता के साथ विकसित होती हुई मनुष्य में संस्कारों का निर्माण करती है। दुनिया की कोई संस्कृति व सभ्यता मनुष्य को मनुष्य से जलना नही सिखाती, वरन यह परिस्थितिवश उत्पन्न विचार है जो स्वयं को कुंठाग्रस्त करता है।
आँख में किरकिरी, शरीर मे सुई चुभना, पैर में कंकड़ चुभना, पिन चुभना आदि कई मुहावरे है जिनसे लेखको व साहित्यकारों ने इसको व्याख्यायित किया है। कई बार चाह कर तथा कई बार अनजाने में मनुष्य दूसरों की आँख की किरकिरी बन जाता है अथवा कई बार उसकी कमीज मेरी कमीज़ से सफेद कैसे का भाव हृदय के पृष्ठ भाग तथा चेहरे की सतह पर पाल लेता है। वह यह नहीं सोचता कि यदि मोजड़ी (पैर में जूती) पहन कर समुद्र किनारे जाएगा तो रेत उसकी मोजड़ी में फसेंगी ही, जो एक समय दर्द का एहसास देगी...?
सिद्धान्ततः कई निर्बल मनुष्यों को स्वयं के बल का भान नहीं होता, तब ऐसी स्थिति में परिस्थिति व परिवेशजन्य बल उस पर भारित होता है।
हिंदी साहित्य के वरिष्ठ लघुकथकार संतोष सुपेकर की लघुकथा में एक पात्र छगनलाल को अपकेंद्रीय बल
का आभास होता है।
अपकेंद्रीय बल के कारण किसी गतिशील वस्तु में केंद्र से दूर भागने की प्रवृत्ति होती है। यह वो आभासी बल है जो अभिकेंद्रीय बल के समान तथा विपरीत दिशा में कार्य करता है।
सारांश यह कि अन्य चुभन से उत्पन्न दर्द से न कराहें, बल्कि स्वंय को चुभोते रहें, खुश रहने व खुश रखने के लिए।
मोजड़ी की रेत को हृदय व मष्तिष्क में न चुभने दें।
@डॉ.मोहन बैरागी
हार्दिक अभिनंदन
ReplyDeleteउत्कृष्ट लेख है,पढ़कर आनन्द आ गया।भाषा-सौष्ठव भी अत्योत्तम है।
ReplyDeleteमालवा की मिट्टी की फितरत देख कर मोजड़ी पहनना ही क्यों
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