समय, समय से घट जाए तो घट जाने दे
मझधारों से लड़ माँझी तू नैया तट जाने दे
अँधियारो से लड़ तू दीप जलाकर मन का
फिर बरखा बरसेगी फिर महीना सावन का
भीतर के दुःख को सारे कहीं सिमट जाने दे
मझधारों से लड़ माँझी तू नैया तट जाने दे
छोड़ के दुनिया के वैभव की उलझन को
अब तोड़ दे सारे आभासी झूठे दर्पन को
उड़ते पंछी को घर के लिए पलट जाने दे
मझधारों से लड़ माँझी तू नैया तट जाने दे
असली नकली लोगो की रौनक खूब रिझाती
कभी कभी ये बुद्धि इतना अंतर ना कर पाती
भूलो वे साथ उन्ही के उनका कपट जाने दे
मझधारों से लड़ माँझी तू नैया तट जाने दे
ये माना कुछ पल चले गए हैं व्यर्थ सही
ज़िद कर तू ढूंढेगा जीवन के अर्थ सही
ख़ुद आएगी मंजिल, इसे लिपट जाने दे
मझधारों से लड़ मांझी तू नैया तट जाने दे
©डॉ. मोहन बैरागी
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