Dr.Mohan Bairagi

Wednesday, July 20, 2022

आदर्श मूल्यों की वक्रता और मनुष्य, लेखक - डॉ. मोहन बैरागी

 



आदर्श मूल्यों की वक्रता और मनुष्य

लेखक - डॉ. मोहन बैरागी

वै नैतिक आदर्श जिन्हें कोई समाज अपनाना चाहता है। लेकिन दो अलग व्यक्तियों के मूल्य अलग अलग होते है। यह भी माना जाता है कि तर्क प्रक्रिया से मूल्य प्रभावित नही होते है तथा तर्कों को कोई मनुष्य विवेकपूर्ण स्वीकार करता है तब मूल्य स्थापना आसान हो जाती है। कह सकते है कि वे नैतिक आदर्श जिनकी प्राप्ति के लिए सेक्रिफाईज कर सकते है, वेल्यू या मूल्य कहलाते है।

एक दार्शनिक हुए थामस हॉप, जिनके अनुसार समाज पूर्व में ऐसा नही था जो आज है, पहले हर व्यक्ति को दूसरे से ख़तरा था। धीरे धीरे समाज मे एक दूसरे पर भरोसा स्थापित हुआ और नैतिक आदर्श मूल्य बनने लगे।

समाज अथवा मनुष्य में नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिये अलग अलग सिद्धान्त, नियम, प्रतिमान निर्धारित किये गए है जिनसे नैतिक मूल्यों की स्थापना में मदद मिलती है।

नीतिशास्त्र के अनुसार डायकोटमी या द्वैध मनोवृत्ति

वह वृत्ति है जो आमतौर बचपन से जो दिमाग मे बैठ जाती है, जिसका अर्थ है किसी भी वस्तु या व्यक्ति को दो हिस्सों में बाँटकर देखने की आदत। नीतिशास्त्र के ही  सिद्धान्त के अनुसार हम अच्छे और बुरे दोनों है। और व्यक्ति सामान्यतः इसमे से केवल एक अच्छे पक्ष को अपने लिए मानकर चलता है।

दूसरा सिद्धान्त सातत्य वादी दृष्टिकोण या कॉन्टिनम अप्रोच होता है जिसके अनुसार हर व्यक्ति अच्छा और बुरा दोनों होता है। अच्छाई से बुराई की यात्रा ही कॉन्टिनम अप्रोच होती है, अर्थात न कोई अच्छा है न कोई बुरा है, हर व्यक्ति कॉन्टिनम स्केल के पैमाने पर चलता है। 

नैतिक मूल्य वे है जो समाज के हित में हो लेकिन अस्तित्ववाद के एक दार्शनिक किरके गार्ज ने कहा कि महान से महान व्यक्ति का महान से महान निर्णय भी तब तक सही नही है जब तक कि उसने अपनी अंतर आत्मा से उसे पुष्ट न करवा लिया हो।

सिग्मंन फ्राइड के अनुसार भीतर की आवाज़ या अंतर आत्मा जो कहे वही सही है, जिसमे कोई अंतर्द्वंद न हो। उनके अनुसार सुपर ईगो या नैतिक मन या इड या स्वार्थी मन दूसरी तरफ खिंचता है।

लेकिन आम मनुष्य के लिए नैतिकता के पैमाने निश्चित करना थोड़ा कठिन है, कई बार वह तय नही कर पाता कि क्या सही है और क्या गलत। जैसे प्यास बुझाने के तत्व को जल कहे या पानी..? तो ऐसी स्थिति के लिए भाषा दार्शनिक क्वाईन ने कहा कि दुनिया मे कोई भी दो शब्द पर्यायवाची नही हो सकते। उनके अनुसार पूर्ण पर्याय तथा अपूर्ण पर्याय होता है। जब कोई शब्द अपने उद्भव से ही समान अर्थ रखता हो और नैतिक ढाँचों के द्वारा स्वीकार कर लिया गया हो वही सही है। समझना थोड़ा मुश्किल है लेकिन यहां भी व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुरूप तय कर लेता है कि क्या सही है।

वैल्यू या नैतिकता की तटस्थता किसी व्यक्ति में किस स्तर तक हो सकती है इसका उदाहरण सुकरात की कहानी से लिया जा सकता है। सुकरात के अपने मूल्य इस हद तक स्थापित थे और उनकी तटस्थता का स्तर उच्चतर था, यह इस बात से प्रमाणित होता है कि जब सुकरात ने ईश्वर के विषय मे कुछ विचार समाज के सामने रखे, जो समाज के कुछ लोगो को पसंद नहीं आये, जिस पर दंड स्वरूप सुकरात को मृतुदण्ड की सजा सुनाई गई। इस घटना के बाद सुकरात के शिष्य प्लेटो ने अपने गुरु को जेल से भागने की योजना बनाई और सुकरात से आग्रह किया। सुकरात ने इस पर प्लेटो से कहा कि "मौत के डर से मैं जेल से भागूंगा नहीं, यदि मैं भाग गया तो अपने शरीर को तो बचा लूंगा, लेकिन विचार मर जायेंगे, जबकि शरीर से ज्यादा विचार महत्वपूर्ण है। और इसके अगले दिन सुकरात ने स्वयं ही ज़हर का प्याला पी कर प्राण त्याग दिए। इस कथा से तातपर्य यह कि सुकरात की अपने जन्म से विकासक्रम के साथ बने नैतिक मूल्य व मोरालिटी की रक्षा की।

न्यूटन और गेलिलियो जैसे लोगों को भी समाज में ऐसी ही स्थितियों का सामना करना पड़ा और उन्होंने अपने अपने तरह से समाज को इसके जवाब दिए।

अंत मे कह सकते है कि सामाजिक ताना बाना एक व्यवस्था के अनुरूप बनता है, या यूं कहें कि कई सारी व्यवस्थाओं को मिलाकर एक व्यवस्था बनती है जिसको समाज सर्वमान्य रूप से मान लेता है। इसके लिए आवश्यक है कि कुछ आधारभूत मूल्य व आचरण, प्रतिमान सभी मे समान रूप से उपलब्ध हों। जब यह आधारभूत नैतिक मूल्य,आचरण व प्रतिमान अधिक मात्रा में उपलब्ध हों, तब यह सामाजिक व्यवस्था बनती है, लेकिन यह भी सच है कि कुछ हिस्सा ऐसा भी होता है जहां मूल्य व आचरण का सामंजस्य नही हो पाता। इसी असामनता व असंगत सामजंस्य के तानेबाने से समाज नामक संस्था का निर्माण होता है।

सार यह कि नैतिक जीवन के आदर्श से स्थापित प्रतिमानों को मानें और समाज निर्माण में अपनी भूमिका का निर्वहन करें।

©डॉ.मोहन बैरागी

20/7/2022

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