ड्योढ़ी पर छत
एक फर्लांग इधर, एक फर्लांग उधर
कर देने से....
हो जाते हैं पार...
ड्योढ़ी के.....
इधर घर,
उधर
बाहर..?
जहां दुनियां हैं..?
वह..जो आपकी नहीं..?
दुनिया तो हैं घर के भीतर...
ड्योढ़ी के इधर....
यहीं से जा सकते हैं...
घर की छत पर...
जहां....गर्मियों में ठंडी हवाओं के एहसास
से, आती थी नींद, सुकून की..!
अब सुकून और नींद...
दोनों गायब है....?
क्योंकि, अब, वो छत नहीं, ठंडी हवाओं का एहसास नहीं...?
न चौखट बची, न दरवाज़े....
न ही ड्योढियां....
अब हैं सिर्फ, ड्योढ़ी और उसके ऊपर की छत..
जहां से मिलता है तो सिर्फ माइग्रेशन..
क्योंकि अब न बची है ड्योढियां और न ही छत
@डॉ. मोहन बैरागी
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