Dr.Mohan Bairagi

Friday, May 13, 2022

झांकते लोग..... लेखक : डॉ. मोहन बैरागी

 झांकते लोग.....

लेखक : डॉ. मोहन बैरागी

ताक-झाँक करना स्वभावतः मनुष्य के स्वभाव का हिस्सा बन चुकी आदत है।  जब अंतस्थ: अनसुलझी शरीर व मस्तिष्क की तंत्रिकाओं के साथ संवेदना को स्थान्तरित करने वाली तंत्रिकाएं अनासक्त अपेक्षा प्रदर्शित करती है तथा ज्ञात-अज्ञात वस्तु, स्थिति व ज्ञान के सापेक्ष सृष्टि के यथार्थ को दृष्टि के पृष्ठ पटल पर केंद्रित कर उसका अंकन करना चाहती है, जिससे हृदय के अनजाने भाग को कंपन की अनुभति होती है,जो मस्तिष्क समेत समस्त शरीर मे उत्स्फूर्त तरंगे पैदा करता है, जिससे तात्कालिक रूपेण सकारात्मक भाव पैदा होता है, जिसे खुशी कहते हैं, इसके परिणामस्वरूप आँखें सामान्य अनुपात से कुछ अधिक खुलती है तथा अधरों का भूगोल भाव-भंगिमाओं के साथ बदल जाता है, तथापि चेहरे के केंद्र पर अस्थाई किन्तु सूक्ष्म खिलखिलाहट प्रदर्शित होने लगती है।

यह स्थिति कई परिस्थितियों में उत्पन्न होती है और मनुष्य तब उत्फुल्लता की सीधी रेखा पर स्वयं को खड़ा पाता है।

झाँकने की यह वृत्ति वैज्ञानिक प्रक्रिया के निष्पादन स्वरूप स्वतः उत्पन्न क्रिया है।

संरचनात्मक सर्जना के पश्चात से तथा देह में सांस धारण के पश्चात से लेकर अंतिम सांस से कुछ अवधि पूर्व तक मनुष्य में झाँकने की कला का जन्म व विकास होकर उसका सोच व विचार के आधार पर परिवर्धन होता रहता है। मनुष्य शरीर के सैकड़ो,हज़ारो भावों में से यह एक विचार मनुष्य के मस्तिष्क में स्थायी निवासी होकर यात्रा करता है। झाँकने की वृत्ति सदैव नकारात्मक व पूर्व नियोजित नहीं होती, शिशु मातृ संबंध में शिशु माता को नेह भाव से भूख प्यास की अवस्था में झांकता है तो वहीं युवा मनुष्य भी तात्कालिक रूप से उत्पन्न त्वरित विचार की परिणति के रूप में अपने आस-पास के वातावरण व व्यक्तियों के जीवन मे झाँकता है।

आधुनिक दुनिया का मनुष्य झाँकने की कला को जैसे अपना संवैधानिक अधिकार ही समझता है। ब्रिटेन में 1354वी सदी के आसपास में एक शब्द आया मैग्नाकार्टा, जो आया तो व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों को लेकर था। (अधिकारों का घोषणापत्र)

कहना यह कि ... जैसे हर कोई मान के चलता है कि वह मैग्नाकार्टा (झाँकने का अधिकार) को अपने चेहरे पर ओढ़कर चलता है। और जब तब चेहरे को उघाड़ सकता है..?

झाँकने की क्रिया कई परिप्रेक्ष्य में संपादित होती है। सृष्टि के सृजन तथा मानव विकास से लेकर अब तक इसके लाखों-करोड़ों उदाहरण मिलते हैं, जिसमें अकारण अथवा सकारण झांका गया है। इस कला के संपादित होने पर कई ऐसी घटनायें कालजयी होकर इतिहास में दर्ज हैं।

सतयुग,त्रेता,द्वापर और कलयुग...हर युग में इस झाँकने की प्रवृति ने सभ्यता व मनुष्य संस्कृति को आहत कर ऐतिहासिक व पौराणिक किस्से-कहानियों को गढ़ा हैं।रामायण व महाभारत में कई ऐसे पात्र व उनकी कथाएं मौजूद हैं जिनके झाँकने से युद्ध की विभीषिका तक समय जा पहुंचा।आधुनिक सभ्यता के मनुष्य में स्वयं के छिद्रान्वेषण की 

वृत्ति (आदत) भीतर केंद्र में सामान्यतः नहीं रही, जिससे कि वह इस महीन कला से निवृत्ति के सोपान कभी पहुंच भी सके..?

चारित्रिक निर्मिति के असंख्य हिस्सो में से यह एक हिस्सा है। माना जाता है कि मनुष्य के वैचारिक दृष्टिकोण की निबद्धता से चारित्रिक निर्मिति समेत उसकी अस्मिता का स्थायी अथवा अस्थायी निर्माण होता है। प्रसिद्ध दार्शनिक फ्रायड का मानना है कि मनुष्य की अस्मिता स्थिर नहीं है तो वहीं एरिक ऐरिक्सन कहते हैं कि अस्मिता दो व्यक्तियों के बीच परस्पर पहचान एवं सामुदायिक संस्कृति से प्राप्त पहचान में निहित है।

व्यक्ति की चारित्रिक अस्मिता से विलग झाँकने की इस कला में निपूर्ण मानव वर्तमान, भविष्य तथा कालांतर में भी झाँकता है।

दुनिया मे प्रेम का स्थायी स्मारक दुनिया को देने वाले शाहजहां ने प्रेम के लिए ताजमहल बनवाया लेकिन शाहजहां अपनी उम्र के अंतिम समय मे 8 वर्ष तक अपने ही बेटे औरंगजेब की कैद में आगरा किले में रहा, और वहीं से ताजमहल को झाँकते था।

कुछ अलग तरह से वैश्विक स्तर पर एक और उदाहरण देखें तो....अमेरिका ने एक गलतफहमी के चलते (इस बात पर डिबेट है की स्पेन की वजह से अमेरिका के 200 से अधिक लोगो की मौत हो गयी थी।) स्पेन से बदला लेने के इरादे से अपनी सेना को भेजकर क्यूबा को स्पेन से आज़ाद करवाया।

क्यूबा के एक शहर गुवांतानामो बे को प्रिवेंटिव डिटेंशन सेंटर के नाम पर लगभग कब्जा किया,जबकि यह स्थान लीज पर अमेरिका ने क्यूबा को स्पेन से आज़ाद कराने के समय लिया था, और आज भी इस स्थान को अमेरिका न सिर्फ झांककर देखता है बल्कि इस स्थान पर अपना अधिकार ही जमा लिया है?

सरल शब्दों में कहना यह कि...अपने आस पास के वातावरण, दूसरों के जीवन, फेसबुक से लेकर व्हाट्सएप और ट्विटर, सभी जगह पर अनावश्यक न झाँके..? 

झाँकना ही है तो स्वयं में झाँके...की जीवन की इस यात्रा में हम कहाँ पहुँचे।

©डॉ.मोहन बैरागी

1 comment:

  1. बहुत सुंदर आलेख

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