कर्मण्येवाधिकारस्ते, कल्पना के रस्ते
भूगर्भ से त्रिलोक की उड़ान।
लेखक :- डॉ.मोहन बैरागी
कोरे कथानक में स्वयं को मुख्य पात्र रख रिक्त कथा गढ़ता मनुष्य...औसत आयु के तीन चौथाई हिस्से में कल्पनाचित्रों के आसरे व्यतीत करता है शेष आयु...?
बाँचता है अनलिखे उपन्यास, कहानी, कविताएं और साम्य जीवन की परालौकिक गाथाएं....मष्तिष्क के शुक्ष्म हिस्से में...?
अनेको बार ....!
सभ्य समाज में कहा जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है...? और मनुष्य ही है, जो सोच,समझ,सही-गलत की तथा विरक्ति व आसक्ती की विचार शक्ति रखता है। किंतु......कल्पना के केंद्र में होता है एकात्म भाव...? स्वयं को उच्चस्थ पर प्रदर्शित व प्रचारित करने का...?
श्रीमद्भगवद गीता में एक मूल श्लोक कर्मण्येवाधिकारस्ते....का विवरण मिलता है, जिसका अर्थ है, कर्म पर तेरा अधिकार है, कर्म के फल पर नहीं...?
कल्पना करते-करते मनुष्य सामान्यतः कल्पनालोक (खयाली दुनिया) में दाखिल हो जाता है, (हालांकि यह जानते हुए की कल्पनालोक शब्द ही पुल्लिंग है।) और उसकी असीम उम्मीदों का प्रस्फुटन होने लगता है। मृगतृष्णा के विराट जंगल मे महीन धागे से घने वटवृक्ष को बांधने के प्रयास तथा पुष्प की नवांकुर नन्ही कली से लेकर सूर्य के रश्मिरथी तक को बांधने व अपने त्वरित उपजे विचारों से स्वयं को सदैव श्रेष्ठतम अथवा सफलतम व्यक्ति (कभी-कभी तो व्यवस्था को भी ) बताने में माहिर भौतिक मनुष्य इस आकाशीय जीवन मे अनेकों बार उड़ता है..?(हालांकि इस स्थिति में उसे यह तक भान नहीं रहता कि रात ज़्यादा हो गयी और अगले दिन सुबह नल (पानी) आएगा तो जल्दी उठ के पानी भरना है...? )
वह कल्पना के घोड़े भूगर्भ से त्रिलोक तक दौड़ाता है...? गर्भस्थ अवस्था से त्रिलोकी भ्रमाण्ड में पर फैलाकर नापता है दूरी....सदियों की क्षणों में...? एकाकार कर देता है सम्पूर्ण जगत को...? कोमल मन, सहज मानव स्वभाव व तीव्र उद्वेलित कल्पना उड़ान से...?
ज्ञान का भान न होने की दशा में उत्पन्न इस स्थिति में उत्कर्ष को उद्वेलित अनंत व्यापक किन्तु शुक्ष्म मन ना कल्पना के सिद्धान्त को समझता है और न उसके दर्शन को मानता है।
गीता का ज्ञान कर्मण्येवाधिकारस्ते... हो जिसमें स्पष्ट है कि केवल कर्म पर तुम्हारा अधिकार है...उसके फल पर नहीं। या आधुनिक युग के तमाम दार्शनिक जिनमें ह्यूम हो या कांट....जिन्होंने अत्यंत सरल भाषा में कल्पना की परिभाषा दी की....कल्पना केवल हमारी ज्ञानेन्द्रियों को बाह्य पदार्थ का ज्ञान भर है, या यह हमारे स्मृति पटल पर तीव्र इंद्रिय अनुभव भर है जो हमें मानसिक अनुभूति प्रदान करता है,जो इच्छा,अनिच्छा अथवा राग-द्वेष के रूप में प्रकट होता है।
मनुष्य यह सब मानने को तैयार नहीं, उसकी वैचारिक पराकष्ठा समाप्त होती है, स्वयं के विचार व मन अनुरूप दृष्यादर्शन पर….? वह अनंत व्योम में एकात्म व सार्वभौमिक विचार प्रदत्त व्यक्ति होता है इस स्थिति में, जब वह स्वयं के भौतिक शरीर से भी कुछ फर्लांग दूर ही हो...?
कल्पना मानव स्वभाव है तथा सहज प्रक्रिया है, किन्तु कल्पना के अनंत चरम पर विचार का केंद्र निश्चित नहीं होता और तब वह यथार्थ व भौतिक धरातल से दूर हो जाता है।
अनिश्चित, असंगत, अव्याप्त, असहनीय व अ-अंकेक्षणिय कल्पना व्यर्थ है।
कल्पना यथार्थ के सामर्थ्य अनुरूप हो....।
कल्पना करें,जीवन सुखद हो..!
©डॉ.मोहन बैरागी
वाह आदरणीय क्या गजब लिखा...आपका आज्ञाकारी शिष्य राहुल शर्मा उज्जैन
ReplyDeleteलेखनी के धनी तो आप हैं ही इस विधा का भी शानदार प्रदर्शन
ReplyDeleteThis is an ethical argument according to the Epic age. Please I feel that outlook of western philosophers must be interpreted Indian advocates also.
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteगजब का यथार्थ दर्शन है!
ReplyDeleteअती सुन्दर सर जी
ReplyDelete👌👌
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