Dr.Mohan Bairagi

Saturday, April 9, 2022

वैभव से वैराग्य को आतुर अनहद मन

 


वैभव से वैराग्य को आतुर अनहद मन यह नही विचारता की दूर क्षितिज पार करने के मौन समय मे कितने तटबंध होंगे, वह तो उन्मुक्त हल्के सूखे पलाश के सूक्ष्म पत्तो सा निर्मल नीर की सतह पर निर्बाध बहने को आतुर है। एकाकी  आलिंगन कर सतह पर बहते पत्ते से और उर्ध्व पर अनंत आकाश....? 

हृदय में जुगुप्सा अनंत पार जाने की....? तभी प्रश्न खड़े करते आवरण के बाहर उपस्थित धरती, आकाश, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, जीव-जंतु, प्रकृति और अमिटता सा मनुष्य....? 

अ-सोचनीय विचारों व शब्दों के नुकीले, हृदय व आत्मा भेदी बाण या सवाल या प्रश्न....? कभी-कभी तो विचार व सिद्धान्तों को ठुकराकर तथा नकार कर तटस्थ हो जाते यक्ष प्रश्न...?

उत्तर सहज सरल....!

किन्तु द्वापर, त्रेता, सतयुग और इसके बाद कलयुग में जैसे मनुष्य पैदा ही हुआ है  विरोध के तूणीर पर असहमति का बाण रख लक्ष्य भेदने को...? 

विरोध हर पल ,हर क्षण....चौखट पर जूते छप्पल उतारने से लेकर बाथरूम में हाथ धोने को साबुत साबुन नहीं होने व मैले छोटे तौलिये से हाथ पोछने तथा डाइनिंग पर दाल में नमक कम से लेकर मिर्ची ज्यादा तक.....?

जाने क्यों आज के युग में हम सब को मिर्ची का एहसास कुछ ज़्यादा ही है...? भले हमको लगे...?....या जाने अनजाने हम किसी को लगाएं....?

बात तो मिर्ची की है....?

इस मिर्ची से हम उग्र और उद्वेलित इसलिये भी हैं क्योंकि हमारे इतिहास में अनहद आनंद को प्राप्त करने का ज़रिया स्वादिष्ट भोजन या फिर इतिहास में शबरी के मीठे बेर रहे है...कहीं मिर्ची से रिश्ते प्रगाढ़ हुए.....?, ऐसा तो साधारणतः प्रतीत नहीं होता। और जब ऐसा प्रतीत भी नहीं होता न ही सर्वव्यापी उदाहरण मौजूद है, तो इससे स्पष्ट है कि मनुष्य की भौतिक काया में मिर्च की ग्रीष्मता, उद्वेलन, अप्वाष्पीकृत भाप जो जिव्हा से वाष्पित होकर अश्रुनीर बहाने व धरती से छः उंगल ऊपर उछलने पर शारीरिक त्रन्त को विवश करती है, का मनुष्य के प्रकृति, पेड़ पौधे व मनुष्य तथा धरती के मूल संयोजन तथा पारस्परिक बेलेंस करने का सुझाव मात्र है।

बावजूद इसके हम अपने तथाकथित नैसर्गिक सौदंर्य, भाव, विचार, हैसियत से इतने बड़े हैं कि सहजता, सरलता, विरलता और लघुता हममें से वाष्पीकृत हो गई है...? 

भगवान शंकर की जटा में गंगा जब तक थी...? बंधन में थी...लेकीन जब शंकर ने प्रवाहमान होने का आशीष गंगा को दिया....तब वह उन्मुक्त होकर धरती की गोद मे फैल गयी...। 

जब पवनसुत ने सूरज अपने मुँह से बाहर निकाला तब, भ्रमाण्ड में फैला उजाला....।

अनहद को आनन्दित मन के खुले आकाश में विचरण के लिए आवश्यक है इसको विरक्त और विमुक्त करना।

प्रयास करें....और सीखें मन को विरक्त करना....।

यकीन मानिए....आनंद की अनुभूति होगी।

®डॉ.मोहन बैरागी

6 comments:

  1. Great personality and good philospher

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  2. गहन दार्शनिक विचार।

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  3. विचार तो उत्तम है, किन्तु कार्य कठिन है।

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  4. सुंदर अभिव्यक्ति

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  5. बहुत सुंदर आलेख,बधाई बैरागी जी

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  6. डॉ ललित उपाध्याय अलीगढ़

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